गीत:
हिन्दी अधिकारी
डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र
(ओएनजीसी के हिन्दी अधिकारी रह चुके डॉ. मिश्र ने हिन्दी अधिकारियों की पीड़ा और समस्याओं को महसूस कर यह सार्वकालिक गीत है)
हिन्दी अधिकारी
डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र
(ओएनजीसी के हिन्दी अधिकारी रह चुके डॉ. मिश्र ने हिन्दी अधिकारियों की पीड़ा और समस्याओं को महसूस कर यह सार्वकालिक गीत है)
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पीर बवर्ची भिश्ती खर
हैं, कहने को हम भी अफ़सर हैं।
सौ-सौ प्रश्नों की बौछारें, एक अकेले हम उत्तर हैं।
इसके आगे, उसके आगे
दफ़्तर में जिस-तिस के आगे
कदमताल करते रहने को
आदेशित हैं हमी
अभागे
तनकर खड़ा नहीं हो पाये, सजदे में कट गयी उमर है।
यों दधीचि की हैं सन्तानें
रीढ़ नहीं है अपने तन में
ऊपर से गाँधी गिरमिटिया
भीतर भगत सिंह हैं मन में
काशी के दादुर
भी पंडित, हम तो बस अछूत मगहर हैं।
उल्टी गंगा बहा रहे हैं
नये दौर के नये भगीरथ
जितना दूर चलें दिन भर में
उतना लम्बा हो जाए पथ
हम तो नाग सँपेरे वाले, हम से नहीं किसी को डर
है।
सारी प्रगति आँकड़ों तक है
बढ़ता पेट कर्मनाशा का
रोज देखना पड़ता हमको
होता चीर-हरण भाषा का
हर वैतरणी पार कराने, पूँछ गाय की, छूमन्तर हैं।
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