कहाँ हैं नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ? |
राम प्रसाद बिस्मिल |
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अन्त में जनप्रतिनिगण जस्टिस राधाविनोद पाल की अध्यक्षता में गैर-सरकारी
जाँच आयोग के गठन का निर्णय
लेते हैं। तब जाकर नेहरूजी 1956 में भारत सरकार
की ओर से जाँच-आयोग के गठन की घोषणा करते हैं।
लोग सोच रहे थे कि
जस्टिस राधाविनोद पाल को ही आयोग की अध्यक्षता सौंपी जायेगी। विश्वयुद्ध के
बाद जापान के युद्धकालीन प्रधानमंत्री सह युद्धमंत्री जेनरल हिदेकी तोजो
पर जो युद्धापराध का मुकदमा चला था, उसकी ज्यूरी (वार क्राईम ट्रिब्यूनल)
के एक सदस्य थे- जस्टिस पाल।
मुकदमे के दौरान जस्टिस पाल को जापानी गोपनीय
दस्तावेजों के अध्ययन का अवसर मिला था, अतः स्वाभाविक रूप से वे उपयुक्त
व्यक्ति थे जाँच-आयोग की अध्यक्षता के लिए।
(प्रसंगवश जान लिया जाय कि ज्यूरी के बारह सदस्यों में से एक जस्टिस पाल ही थे, जिन्होंने जेनरल तोजो का बचाव किया था। जापान ने दक्षिण-पूर्वी एशियायी देशों को अमेरीकी, ब्रिटिश, फ्राँसीसी और पुर्तगाली आधिपत्य से मुक्त कराने के
लिए युद्ध छेड़ा था। नेताजी के दक्षिण एशिया में अवतरण के बाद भारत को भी ब्रिटिश आधिपत्य से छुटकारा दिलाना उसके अजेंडे में शामिल हो गया । आजादी के लिए संघर्ष करना कहाँ से
‘अपराध’ हो गया? जापान ने कहा
था- ‘एशिया- एशियायियों के लिए’- इसमें गलत क्या था? जो भी हो, जस्टिस
राधाविनोद पाल
का नाम जापान में सम्मान के साथ लिया जाता है।) मगर नेहरू जी को आयोग की
अध्यक्षता के लिए सबसे योग्य व्यक्ति केवल शाहनवाज खान नजर आते हैं। शाहनवाज खान- उर्फ, लेफ्टिनेण्ट जेनरल एस.एन.
खान। कुछ याद आया?
आजाद हिन्द फौज के भूतपूर्व सैन्याधिकारी, शुरु में नेताजी
के दाहिने
हाथ थे, मगर इम्फाल-कोहिमा फ्रण्ट से उनके विश्वासघात की खबर आने के बाद
नेताजी ने उन्हें रंगून मुख्यालय वापस बुलाकर उनका कोर्ट-मार्शल करने का आदेश
दे दिया था।
उनके बारे में यह भी बताया जाता है कि कि लाल
किले के कोर्ट-मार्शल में
उन्होंने खुद यह स्वीकार
किया था कि आई.एन.ए./आजाद हिन्द फौज में
रहते हुए
उन्होंने गुप्त रुप से ब्रिटिश सेना को मदद
ही पहुँचाने का काम किया था। यह
भी जानकारी
मिलती है कि बँटवारे के बाद वे पाकिस्तान चले
गये थे, मगर
नेहरूजी उन्हें भारत वापस बुलाकर
अपने मंत्रीमण्डल में उन्हें सचिव का पद
देते हैं।
विमान-दुर्घटना में नेताजी को मृत घोषित कर देने के बाद शाहनवाज खान को नेहरू मंत्री मण्डल में रेल राज्य मंत्री पद प्रदान किया जाता है.
आयोग के दूसरे सदस्य सुरेश कुमार बोस (नेताजी के बड़े भाई) खुद को शाहनवाज खान के निष्कर्ष से अलग कर लेते हैं। उनके अनुसार, जापानी राजशाही ने विमान-दुर्घटना का ताना-बाना बुना है, और नेताजी जीवित हैं।
***
शाहनवाज आयोग का निष्कर्ष देशवासियों के गले के नीचे नहीं उतरता
है। साढ़े तीन सौ सांसदों द्वारा पारित प्रस्ताव के आधार पर सरकार को 1970
में (11 जुलाई) एक दूसरे आयोग का गठन करना पड़ता है। यह इन्दिराजी का समय
है। इस आयोग का अध्यक्ष जस्टिस जी.डी. खोसला को बनाया जाता है।
जस्टिस घनश्याम दास खोसला के बारे में तीन तथ्य जानना ही काफी होगा:
1. वे नेहरूजी के मित्र रहे हैं;
2. वे जाँच के दौरान ही श्रीमती इन्दिरा गाँधी की जीवनी लिख
रहे थे, और
3. वे नेताजी की मृत्यु की जाँच के साथ-साथ तीन अन्य आयोगों की भी अध्यक्षता कर रहे थे।
सांसदों के दवाब के चलते आयोग को इस बार ताईवान भेजा जाता है। मगर ताईवान जाकर
जस्टिस खोसला किसी भी सरकारी संस्था से सम्पर्क नहीं करते- वे
बस
हवाई अड्डे तथा
शवदाहगृह से घूम आते हैं। कारण यह है कि
ताईवान के साथ
भारत का कूटनीतिक सम्बन्ध नहीं है।
हाँ, कथित विमान-दुर्घटना में जीवित बचे कुछ
लोगों का बयान यह आयोग
लेता है, मगर
पाकिस्तान में बसे मुख्य गवाह कर्नल
हबिबुर्रहमान खोसला आयोग
से मिलने से इन्कार कर देते हैं।
खोसला आयोग की रपट पिछले
शाहनवाज आयोग की रपट का सारांश साबित होती है। इसमें अगर नया कुछ है, तो वह
है- भारत सरकार को इस मामले में पाक-साफ एवं
ईमानदार साबित करने की पुरजोर
कोशिश।
***
28 अगस्त 1978 को संसद में प्रोफेसर समर गुहा के सवालों का जवाब
देते हुए प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई कहते हैं कि कुछ ऐसे आधिकारिक
दस्तावेजी अभिलेख (Official Documentary Records) उजागर हुए हैं, जिनके
आधार पर; साथ ही, पहले के दोनों
आयोगों के निष्कर्षों पर उठने वाले
सन्देहों तथा (उन रपटों में दर्ज) गवाहों के विरोधाभासी बयानों के मद्देनजर
सरकार के लिए यह स्वीकार करना मुश्किल है कि वे निर्णय अन्तिम हैं।
प्रधानमंत्री जी का यह आधिकारिक बयान अदालत में चला जाता है और वर्षों बाद ३०
अप्रैल 1998 को कोलकाता उच्च न्यायालय सरकार को आदेश देता है कि उन अभिलेखों
के प्रकाश में फिर से इस मामले की जाँच
करवायी जाए।
अब अटल बिहारी वाजपेयी जी प्रधानमंत्री हैं।
दो-दो जाँच आयोगों का हवाला देकर
सरकार
इस मामले से पीछा छुड़ाना चाह रही थी, मगर
न्यायालय के आदेश के बाद
सरकार को तीसरे
आयोग के गठन को मंजूरी देनी पड़ती है।
इस बार सरकार को मौका न देते हुए आयोग के
अध्यक्ष के रूप में
(अवकाशप्राप्त) न्यायाधीश मनोज
कुमार मुखर्जी की नियुक्ति खुद सर्वोच्च
न्यायालय ही
कर देता है।
जहाँ तक हो पाता है, सरकार मुखर्जी आयोग के
गठन और उनकी जाँच में रोड़े अटकाने की कोशिश करती है, मगर जस्टिस मुखर्जी
जीवट के आदमी साबित होते हैं। विपरीत परिस्थितियों में भी वे जाँच को आगे
बढ़ाते रहते हैं।
आयोग सरकार से उन दस्तावेजों (“टॉप सीक्रेट” पी.एम.ओ. फाईल
2/64/78-पी.एम.) की माँग करता है, जिनके आधार पर 1978 में तत्कालीन
प्रधानमंत्री ने संसद में बयान दिया था, और जिनके आधार पर कोलकाता उच्च
न्यायालय ने तीसरे जाँच-आयोग के गठन का आदेश दिया था।
प्रधानमंत्री
कार्यालय और गृहमंत्रालय दोनों साफ मुकर जाते हैं- ऐसे कोई दस्तावेज नहीं
हैं; होंगे भी
तो हवा में गायब हो गये आप यकीन नहीं करेंगे कि जो
दस्तावेज खोसला आयोग को दिए गए थे, वे दस्तावेज
तक मुखर्जी योग को देखने नहीं दिए जाते, 'गोपनीय' और 'अतिगोपनीय' दस्तावेजों की बात तो छोड़ ही दीजिये ।
प्रधानमंत्री कार्यालय, गृह मंत्रालय, विदेश मंत्रालय सभी
जगह नौकरशाहों का यही एक जवाब-
“भारत के संविधान की धारा 74(2) और साक्ष्य कानून के भाग 123 एवं 124 के तहत इन दस्तावेजों को आयोग को
नहीं दिखाने का “प्रिविलेज” उन्हें प्राप्त
है!”
भारत सरकार के रवैये के विपरीत ताईवान सरकार मुखर्जी
आयोग द्वारा
माँगे गये एक-एक दस्तावेज को आयोग के
सामने प्रस्तुत करती है। चूँकि ताईवान
के साथ भारत के
कूटनीतिक सम्बन्ध नहीं हैं, इसलिए भारत सरकार किसी
प्रकार
का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दवाब ताईवान सरकार पर नहीं
डाल पाती है।
हाँ, रूस के मामले में ऐसा नहीं है। भारत का रूस के साथ गहरा सम्बन्ध है, अतः रूस सरकार का स्पष्ट मत है कि जब तक
भारत सरकार आधिकारिक रुप से अनुरोध
नहीं भेजती, वह
आयोग को न तो नेताजी से जुड़े गोपनीय दस्तावेज देखने दे
सकती है और न ही कुजनेत्स, क्लाश्निकोव- जैसे महत्वपूर्ण
गवाहों का
साक्षात्कार लेने दे सकती है। आप अनुमान लगा
सकते हैं- आयोग रूस से खाली
हाथ लौटता है।
यह भी जिक्र करना प्रासंगिक होगा कि मुखर्जी आयोग जहाँ “गुमनामी बाबा” के मामले में गम्भीर तरीके से जाँच करता है,
वहीं स्वामी शारदानन्द के मामले
में गम्भीरता नहीं दिखाता। आयोग फैजाबाद के राम भवन तक तो आता है, जहाँ
गुमनामी
बाबा रहे थे; राजपुर रोड की उस कोठी तक नहीं जाता, जहाँ
शारदानन्द रहे थे। आयोग गुमनामी बाबा की हर वस्तु की
जाँच करता है, मगर
उ.प्र. पुलिस/प्रशासन से शारदानन्द के
अन्तिम संस्कार के छायाचित्र माँगने
का कष्ट नहीं उठाता।
मई' 64 के बाद जब स्वामी शारदानन्द सतपुरा (महाराष्ट्र) के मेलघाट के जंगलों में अज्ञातवास गुजारते हैं, तब उनके साथ सम्पर्क में रहे डॉ. सुरेश पाध्ये का कहना है कि उन्होंने खुद नेताजी (स्वामी शारदानन्द) और उनके परिवारजनों तथा वकील के
कहने के कारण (1971 में) ‘खोसला आयोग’ के सामने
सच्चाई का बयान नहीं किया था।
अब चूँकि स्वामीजी का देहावसान हो चुका है, इसलिए वे (26 जून 2003 को)
मुखर्जी आयोग को सच्चाई बताते हैं। मगर आयोग उनकी तीन दिनों की गवाही को
(अपनी रिपोर्ट में) आधे वाक्य में समेट देता है और दस्तावेजों को (जो कि
वजन में ही 70
किलो है) एकदम नजरअन्दाज कर देता है। यह सब कुछ किसके दवाब में किया जाता है- यह राज तो आने वाले समय में ही खुलेगा।
2005 में दिल्ली में फिर काँग्रेस की सरकार बनती है। यह सरकार
मई में जाँच आयोग को छह महीनों का विस्तार देती है।
8 नवम्बर को आयोग अपनी रपट सरकार को सौंप देता है। सरकार इस पर कुण्डली
मारकर बैठ जाती है। दवाब पड़ने पर 18 मई 2006 को रपट को संसद के पटल पर रखा
जाता है।
मुखर्जी आयोग को पाँच विन्दुओं पर जाँच करना था:
1. नेताजी जीवित हैं या
मृत?
2. अगर वे जीवित नहीं हैं, तो क्या उनकी मृत्यु विमान-दुर्घटना
में
हुई, जैसा कि बताया जाता है?
3. क्या जापान के रेन्कोजी मन्दिर में रखा
अस्थि भस्म नेताजी का है?
4. क्या उनकी मृत्यु कहीं और, किसी और तरीके से
हुई, अगर ऐसा है, तो कब और कैसे?
5. अगर वे जीवित हैं, तो अब वे कहाँ हैं?
आयोग का निष्कर्ष कहता है कि-1. नेताजी अब जीवित नहीं हैं।
2. किसी विमान-दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु नहीं
हुई है।
3. रेन्कोजी मन्दिर (टोक्यो) में रखा अस्थिभस्म
3. रेन्कोजी मन्दिर (टोक्यो) में रखा अस्थिभस्म
नेताजी का नहीं है।
4. उनकी मृत्यु कैसे और कहाँ हुई- इसका जवाब
4. उनकी मृत्यु कैसे और कहाँ हुई- इसका जवाब
आयोग नहीं ढूँढ़ पाया।
5. इसका उत्तर क्रमांक 1 में दे दिया गया है।
5. इसका उत्तर क्रमांक 1 में दे दिया गया है।
स्वाभाविक रुप से सरकार इस रिपोर्ट को खारिज कर देती है।
अगर हम यहाँ यह अनुमान लगायें कि भारत सरकार ने “अराजकता” या “राजनीतिक अस्थिरता” फैलने की बात
कहकर मुखर्जी आयोग को ‘चौथे’ विन्दु पर
ज्यादा आगे
न बढ़ने का अनुरोध किया होगा, तो क्या हम बहुत गलत
होंगे?
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