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शनिवार, 21 जनवरी 2012

मैं सन्‌ ३६ की दिल्ली में - राजेन्द्र उपाध्याय

मैं सन्‌ ३६ की दिल्ली में- राजेन्द्र उपाध्याय
 
ऐसे समय जब सब क्रांतिकारी कवि
विदूषकों के हाथों पुरस्कृत हो रहे हैं
मैं सन्‌ ३६ की दिल्ली में जाना चाहता हूँ
जब पहली बार प्रेमचन्द जैनेन्द्र से मिलने दिल्ली आए थे
और दरियागंज के एक पुराने मकान में ठहरे थे।
मैं वहीं तंग सीढ़ियाँ चढ कर उपन्यास सम्राट के पांव छूना चाहता हूँ।
 
मैं जैनेन्द्र और प्रेमचन्द के साथ तांगे में बैठकर
कुतुबमीनार जाना चाहता हूँ।
मैं इन दोनों थके हुए बूढ़ों को कुतुबमीनार की सबसे ऊंची मंजिल पर
ले जाकर दुनिया दिखाना चाहता हूँ।
मैं इनसे कहूँगा तुम्हारे चढ़ने से ये मीनार छोटी नहीं होगी
चढ़ों तुम चढ़ों इस पर
गर्व को इसके चूर करो
बताओ कि तुम्हारा लिखा इससे भी बड़ा है
तुम्हारे लिखे पर कभी जंग नहीं लगेगी
जबकि विदूषक के हाथों पुरस्कृत होने वाले क्रांतिकारी कवि की सारी रचनाएं
एक दिन कबाड़ी भी ले जाने से इंकार देगा।
 
मैं कैप्टन वात्स्यायन के साथ पूर्वोत्तर की पहाड़ियाँ
रौंदना चाहता हूँ ट्रक में उनकी बगल में बैठकर
मैं उनके साथ चिरगांव जाना चाहता हूँ
देखना चाहता हूँ राष्ट्रकवि कैसे पैर छूते हैं अपने से काफी छोटे युवा कवि के।
मैं शमशेर के 'जस्टफिट'  में काली चाय पीना चाहता हूँ
केदार को अदालत में वकालत करते देखना चाहता हूँ
मैं सुभद्रा के हाथ के दालचावल खाना चाहता हूँ
मैं नागार्जुन के साथ बैलगाड़ी में बिहार के एक पिछड़े गांव में
कानी कुतिया के पास जाना चाहता हूँ।
मैं बच्चन की साईकिल पर पीछे बैठकर इलाहाबाद के अमरूद खाना चाहता हूँ।
 
मैं सुनना चाहता हूँ टेलिफोन पर नवीन की वो आवाज
जिसमें उन्होंने इंदिरा से कहा था
मुझे तुमसे नहीं तुम्हारे बाप से बात करनी है।
 
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