एक कविता:
संजीव 'सलिल'
*
समय सलिला के किनारे
श्वास-पाखी ताक में है.
आस मछली मोहती मन.
कभे इजती फिसल
ज्यों संध्या गयी ढल.
कभी मछली पकड़
लगता सार्थक पल.
केंकड़ा संकट लगाये घात.
फेंकता है जाल
मछुआरा अबोले.
फन उठाये सर्प
डंसना चाहता है.
किटकिटाते दाँत
दौड़ा नेवला.
यह जगत-व्यापार
या व्यवहार
क्यों लगता अबूझा?
हर कोई शंकाओं से
हो ग्रस्त जूझा.
लय मिली तो कर लिया
अभिमान खुद पर.
और हारे तो कहा
'दोषी विधाता'..
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot. com
http://hindihindi.in
संजीव 'सलिल'
*
समय सलिला के किनारे
श्वास-पाखी ताक में है.
आस मछली मोहती मन.
कभे इजती फिसल
ज्यों संध्या गयी ढल.
कभी मछली पकड़
लगता सार्थक पल.
केंकड़ा संकट लगाये घात.
फेंकता है जाल
मछुआरा अबोले.
फन उठाये सर्प
डंसना चाहता है.
किटकिटाते दाँत
दौड़ा नेवला.
यह जगत-व्यापार
या व्यवहार
क्यों लगता अबूझा?
हर कोई शंकाओं से
हो ग्रस्त जूझा.
लय मिली तो कर लिया
अभिमान खुद पर.
और हारे तो कहा
'दोषी विधाता'..
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
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