रचना-प्रतिरचना
ग़ज़ल:
कभी-कभी
मैत्रेयी अनुरूपा
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*सपने ला ला कर आँखों में कोई बोता कभी कभी शाम अकेली को यादें दे कोई भिगोता कभी कभी
इश्क मुहब्बत,गम तन्हाई सब ही गहरे दरिया हैंबातें करते सभी,लगाता कोई गोता कभी कभीबस्ती के उजले दामन पर कितने काले धब्बे हैंकितना अच्छा होता इनको कोई धोता कभी कभीमन तो माला के मनकों सा मोती मोती बिखरा हैअपनेपन की डोरी लेकर कोई पोता कभी कभीशायर प्पगल आशिक ही तो रातों के दरवेश रहेफ़िक्रे-सुकूँ में थक थक कर ही कोई सोता कभी कभीवज़्मे सुखन के नये चलन में शायर तो हर कोई हुआवाह वाह भी करते, मिलता कोई श्रोता कभी कभीगज़लों के ताने बाने तो बुन लेती है अनुरूपापल जो कवितायें लिखवाता, कोई होता कभी कभी
मुक्तिका :
कभी-कभी
संजीव 'सलिल'
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अपनों को अपनापन देकर कोई खोता कभी-कभी अँखियों में सपनों को पाले कोई रोता कभी-कभी
अरमानों के आसमान में उड़ा पतंगें कोशिश की बाँध मगर पहले ले श्रम का कोई जोता कभी-कभी
बनते अपने मुँह मिट्ठू तुम चलो मियाँ सच बतलाओ गुण गाता औरों का भी क्या कोई तोता कभी-कभी
साये ने ही साथ अँधेरे में छोड़ा है अपनों का इसीलिये तो भेज न पाया कोई न्योता कभी-कभी
बनते अपने मुँह मिट्ठू तुम चलो मियाँ सच बतलाओ गुण गाता औरों का भी क्या कोई तोता कभी-कभी
साये ने ही साथ अँधेरे में छोड़ा है अपनों का इसीलिये तो भेज न पाया कोई न्योता कभी-कभी
अपनों के जीने-मरने में हुए सम्मिलित सभी 'सलिल' गैरों की लाशों को भी क्या कोई ढोता कभी-कभी
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