नवगीत:
शीत से कँपती धरा
संजीव 'सलिल'
*
शीत से कँपती धरा की
ओढ़नी है धूप
कोहरे में छिप न पाये
सूर्य का शुभ रूप
सियासत की आँधियों में उड़ाएँ सच की पतंग
बाँध जोता और माँझा, हवाओं से छेड़ जंग
उत्तरायण की अँगीठी में बढ़े फिर ताप-
आस आँगन का बदल रवि-रश्मियाँ दें रंग
स्वार्थ-कचरा फटक-फेंके
कोशिशों का सूप
मुँडेरे श्रम-काग बैठे सफलता को टेर
न्याय-गृह में देर कर पाये न अब अंधेर
लोक पर हावी नहीं हो सेवकों का तंत्र-
रजक-लांछित सिया वन जाए न अबकी बेर
झोपड़ी में तम न हो
ना रौशनी में भूप
पड़ोसी दिखला न पाए अब कभी भी आँख
शौर्य बाली- स्वार्थ रावण दबाले निज काँख
क्रौच को कोई न शर अब कभी पाये वेध-
आसमां को नाप ले नव हौसलों का पांख
समेटे बाधाएँ अपनी
कोख में अब कूप
*
ओढ़नी है धूप
कोहरे में छिप न पाये
सूर्य का शुभ रूप
सियासत की आँधियों में उड़ाएँ सच की पतंग
बाँध जोता और माँझा, हवाओं से छेड़ जंग
उत्तरायण की अँगीठी में बढ़े फिर ताप-
आस आँगन का बदल रवि-रश्मियाँ दें रंग
स्वार्थ-कचरा फटक-फेंके
कोशिशों का सूप
मुँडेरे श्रम-काग बैठे सफलता को टेर
न्याय-गृह में देर कर पाये न अब अंधेर
लोक पर हावी नहीं हो सेवकों का तंत्र-
रजक-लांछित सिया वन जाए न अबकी बेर
झोपड़ी में तम न हो
ना रौशनी में भूप
पड़ोसी दिखला न पाए अब कभी भी आँख
शौर्य बाली- स्वार्थ रावण दबाले निज काँख
क्रौच को कोई न शर अब कभी पाये वेध-
आसमां को नाप ले नव हौसलों का पांख
समेटे बाधाएँ अपनी
कोख में अब कूप
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.http://hindihindi.in
14 टिप्पणियां:
achal verma ✆
ekavita
नई भोर की किरण अनूठी
हीरे की जैसे हो अंगूठी
चमक रही है नयन नयन में
जैसे जलती एक अंगीठी ||
अचल वर्मा
deepti gupta ✆ द्वारा yahoogroups.com
ekavita
उत्तम कविता, उत्तम चित्र !
vijay2 ✆ द्वारा yahoogroups.com
ekavita
आ० कविवर ’सलिल" जी,
कविता अच्छी लगी, भाव बहुत सुन्दर हैं । विशेषकर ...
शीत से कँपती धरा की
ओढ़नी है धूप
कोहरे में छिप न पाये
सूर्य का शुभ रूप
अतिशय बधाई ।
विजय
dks poet ✆
ekavita
आदरणीय आचार्य जी,
इस सुंदर नवगीत के लिए साधुवाद स्वीकार करें।
सादर
धर्मेन्द्र कुमार सिंह ‘सज्जन’
- pratapsingh1971@gmail.com
आदरणीय आचार्य जी
बहुत ही सुन्दर !
मुँडेरे श्रम-काग बैठे सफलता को टेर
न्याय-गृह में देर कर पाये न अब अंधेर
लोक पर हावी नहीं हो सेवकों का तंत्र-
रजक-लांछित सिया वन जाए न अबकी बेर.......अति सुन्दर !
साधुवाद !
सादर
प्रताप
Amitabh Tripathi ✆ द्वारा yahoogroups.com
ekavita
आदरणीया आचार्य जी,
अच्छा नवगीत! पहला बंद सुन्दर लगा|
सादर
अमित
धर्मेन्द्र कुमार सिंह ‘सज्जन’Jan 20, 2012 10:29 PM
इस सुंदर नवगीत के लिए आचार्य जी को बहुत बहुत बधाई
sharda monga (aroma)Jan 21, 2012 02:35 AM
तथास्तु.
आशावादी नवगीत.सुदर.
परमेश्वर फुँकवालJan 21, 2012 04:45 AM
बहुत सुन्दर शुभकामनाएँ हैं आ. संजीव जी.
बेनामीJan 21, 2012 10:50 PM
सुंदर नवगीत के लिए आचार्य जी को बहुत बहुत बधाई
Prabhudayal
प्रत्युत्तर दें
बेनामीJan 22, 2012 08:58 AM
सुन्दर रचना !
अवनीश तिवारी
विमल कुमार हेड़ा।Jan 22, 2012 07:35 PM
शीत से कँपती धरा की ओढ़नी है धूप
कोहरे में छिप न पाये सूर्य का शुभ रूप
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ अच्छे नवगीत के लिये आचार्य संजीव जी को बहुत बहुत बधाई।
धन्यवाद।
विमल कुमार हेड़
मोहिनी चोरडियाJan 23, 2012 02:28 AM
आशा की नई किरण दिखाती रचना |
sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.com
ekavita
Bhaai amit ji,
Achaary ji pulling hain .
Kamal
shar_j_n ✆ shar_j_n@yahoo.com
ekavita
आदरणीय आचार्य जी,
बहुत ही सुन्दर! आनंद आ गया!
शीत से कँपती धरा की
ओढ़नी है धूप --- वाह!
कोहरे में छिप न पाये
सूर्य का शुभ रूप
स्वार्थ-कचरा फटक-फेंके
कोशिशों का सूप --- क्या कल्पना है !
रजक-लांछित सिया वन जाए न अबकी बेर -- वाह !
पड़ोसी दिखला न पाए अब कभी भी आँख
शौर्य बाली- स्वार्थ रावण दबाले निज काँख
क्रौच को कोई न शर अब कभी पाये वेध-
आसमां को नाप ले नव हौसलों का पांख
समेटे बाधाएँ अपनी
कोख में अब कूप --- इस पूरे बंद में क्या क्या समाहित नहीं है! -- मुहावरे, कल्पनाएँ, पौराणिक कथाएँ ! जय हो!
*
आदरणीय अचल जी,
आपने भी कितना सुन्दर बंद लिखा है उत्तर में !
सादर शार्दुला
एक टिप्पणी भेजें