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शनिवार, 21 जनवरी 2012

साक्षात्कार ... माधवी शर्मा गुलेरी जी से ... --लावण्य शाह

साक्षात्कार  ...  
 माधवी शर्मा गुलेरी जी से ... 
लावण्य   शाह
 

  

'तेरी कुड़माई हो गई है ? हाँ, हो गई।.... देखते नहीं, यह रेशम से कढा हुआ सालू।'' जेहन में ये पंक्तियाँ और पूरी कहानी आज भी है .चंद्रधर शर्मा गुलेरी ' जी की ' उसने कहा था ' प्रायः हर साहित्यिक प्रेमियों की पसंद में अमर है . अब आप सोच रहे होंगे किसी के ब्लॉग की चर्चा में यह प्रसंग क्यूँ , स्वाभाविक है सोचना और ज़रूरी है मेरा बताना . तो आज मैं जिस शक्स के ब्लॉग के साथ आई हूँ , उनके ब्लॉग का नाम ही आगे बढ़ते क़दमों को अपनी दहलीज़ पर रोकता है - " उसने कहा था " ब्लॉग के आगे मैं भी रुकी और नाम पढ़ा और मन ने फिर माना - गुम्बद बताता है कि नींव कितनी मजबूत है ! जी हाँ , 'उसने कहा था ' के कहानीकार चंद्रधर शर्मा गुलेरी जी की परपोती माधवी शर्मा गुलेरी का ब्लॉग है - 'उसने कहा था ' - http://guleri.blogspot.com/
माधवी ने २०१० के मई महीने से लिखना शुरू किया ... 'खबर' ब्लॉग की पहली रचना है , पर 'तुम्हारे पंख' में एक चिड़िया सी चाह और चंचलता है , जिसे जीने के लिए उसने कहा था की नायिका की तरह माधवी का मन एक डील करता है रेस्टलेस कबूतरों से -
"क्यों न तुम घोंसला बनाने को 
ले लो मेरे मकान का इक कोना
और बदले में दे दो
मुझे अपने पंख!" .... ज़िन्दगी की उड़ान जो भरनी है !
माधवी की मनमोहक मासूम सी मुस्कान में कहानियों वाला एक घर दिखता है ... जिस घर से उन्हें एक कलम मिली , मिले अनगिनत ख्याल ... हमें लगता है कविता जन्म ले रही है , पर नहीं कविता तो मुंदी पलकों में भी होती है , दाल की छौंक में भी होती है , होती है खामोशी में - ... कभी भी, कहीं भी , ............ बस वह आकार लेती है कुछ इस तरह -
"रोटी और कविता

मुझे नहीं पता
क्या है आटे-दाल का भाव
इन दिनों 

नहीं जानती 
ख़त्म हो चुका है घर में 
नमक, मिर्च, तेल और
दूसरा ज़रूरी सामान 

रसोईघर में क़दम रख 
राशन नहीं
सोचती हूं सिर्फ़
कविता 

आटा गूंधते-गूंधते
गुंधने लगता है कुछ भीतर
गीला, सूखा, लसलसा-सा 

चूल्हे पर रखते ही तवा 
ऊष्मा से भर उठता है मस्तिष्क 

बेलती हूं रोटियां 
नाप-तोल, गोलाई के साथ
विचार भी लेने लगते हैं आकार 

होता है शुरू रोटियों के
सिकने का सिलसिला
शब्द भी सिकते हैं धीरे-धीरे 

देखती हूं यंत्रवत्
रोटियों की उलट-पलट
उनका उफान 

आख़िरी रोटी के फूलने तक
कविता भी हो जाती है
पककर तैयार।" ......... गर्म आँच पर तपता तवा और गोल गोल बेलती रोटियों के मध्य मन लिख रहा है अनकहा , कहाँ कोई जान पाता है . पर शब्दों के परथन लगते जाते हैं , टेढ़ी मेढ़ी होती रोटी गोल हो जाती है और चिमटे से छूकर पक जाती है - तभी तो कौर कौर शब्द गले से नीचे उतरते हैं - मानना पड़ता है - खाना एक पर स्वाद अलग अलग होता है - कोई कविता पढ़ लेता है , कोई पूरी कहानी जान लेता है , कोई बस पेट भरकर चल देता है .... 
यदि माधवी के ब्लॉग से मैं उनकी माँ कीर्ति निधि शर्मा गुलेरी जी के एहसास अपनी कलम में न लूँ तो कलम की गति कम हो जाएगी . 
http://guleri.blogspot.com/2011/09/blog-post_12.html इस रचना में पाठकों को एक और नया आयाम मिलेगा द्रौपदी को लेकर ! 
माधवी की कलम में गजब की ऊर्जा है .... समर्थ , सार्थक पड़ाव हैं इनकी लेखनी के . -

1 टिप्पणी:

S N SHARMA KAMAL ने कहा…

आ० लावण्या जी,
कहाँ ले आईं आप आज मुझे | " उसने कहा था " कहानी मेरी हाईस्कूल की पाठ्य-पुस्तक में थी |
आजतक याद है , यह भी याद है कि उस कहानी को जब भी पढता तो रोता था | सन ४२-४३ था और
कोई १५ वर्ष की आयु मेरी | शायद उस कहानी का प्रभाव रहा हो मन पर जब मैंने अपनी पहली कहानी
" दों बूंदे " लिखी ( एक दुखांत कथा ) और डरते डरते कानपुर प्रताप प्रेस में तत्कालीन संपादक पंडित
बाल कृष्ण शर्मा 'नवीन' जी को दिखाई | उन्होंने पैनी नज़र से मुझे देखा और पूछा क्या करते हो | लगा
अब डांट पड़ी कि पढ़ते हो कि उल्टी-सीधी कथा कहानी लिखते हो | उत्तर आवश्यक था बताया दसवें
दर्जे में हूँ | बोले कितनी कहानियां लिखीं ? थूक घटक कर बोला यह पहली ही लिखी है | अब उन्होंने मुझे
सिर से पैर तक घूरा बोले - कुछ और भी लिखते हो ( मुझे लगा कि कहानी गई पानी में ) कहा कभी
कभी कविता लिखता हूँ | बोले कविता भी दिखाना | दिल बैठ गया कि कहानी ढेर हो चुकी अब कविता की
बारी है | मैंने कहा तो यह कहानी ले जाऊं | हँस दिये बोले क्यों ले जाओगे इसे अगले रविवार की साप्ताहिक में
दूंगा | और उस क्षण लगा कि जग जीत लिया है |
आज " उसने कहा था " परिवार की नई कोंपल देख और सम्बंधित सामिग्री पढ़ कर मन रोमांचित
हो गया और पलकें गीली |
लावण्या जी, इस प्रस्तुति के लिये आपका आभार किन शब्दों में दूं | बस निःशब्द हूँ |
सादर
कमल