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शुक्रवार, 25 मार्च 2011

कठोपनिषद- काव्यानुवाद : मृदुल कीर्ति

कठोपनिषद- काव्यानुवाद : मृदुल कीर्ति 

 

ॐ श्री परमात्मने नमः

शांति पाठ
ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्वि नावधीतमस्तु । मा विद्विषावहै ।

रक्षा करो पोषण करो, गुरु शिष्य की प्रभु आप ही,
ज्ञातव्य ज्ञान हो तेजमय, शक्ति मिले अतिशय मही।
न हों पाराजित हम किसी से, ज्ञान विद्या क्षेत्र में,
हो त्रिविध तापों की निवृति, न प्रेम शेष हो नेत्र में॥
 
प्रथम अध्याय
 
 
ॐ अशन् ह वै वाजश्रवस: सर्ववेदसं ददौ ।
तस्य ह नचिकेता नाम पुत्र आस ॥१॥
ॐ नाम से उपनिषद शुचि आदि हो स्वस्तिमयी,
वाजश्रवा के पुत्र उद्दालक का यज्ञ मंगलमयी।
नचिकेता नाम का पुत्र उनका लीन था सर्वज्ञ में,
धन दान में सब दे दिया था, विश्वजीत इस यज्ञ में॥ [ १ ]

तं ह कुमारं सन्तं दक्षिणासु नीयमानसु श्रद्धा आविवेश सोऽमन्यत ॥२॥
उपरांत यज्ञ के ब्राह्मणों को, दक्षिण के रूप में,
गौएँ जो दी जानी थी, सब थी जीर्ण शीर्ण स्वरूप में।
नचिकेता बालक था अपितु, आवेश में कुछ कुछ कहा,
क्या दान योग्य है जीर्ण गौएँ, शेष इनमें क्या रहा॥ [ २ ]

पीतोदका जग्धतृणा दुग्धदोहा निरिन्द्रिया: ।
अनन्दा नाम ते लोकास्तान् स गच्छति ता ददत् ॥३॥

ये दुग्ध हीन निरिन्द्रियाँ, गौएँ तो मरणासन्न हैं,
यह दान व्यर्थ है, पिता मेरे, इतने कैसे प्रसन्न हैं?
जो भी निरर्थक वस्तुएं हों, दान उनका व्यर्थ है,
जो प्रेय श्रेय को दे सके, उस दान का ही अर्थ है॥ [ ३ ]

स होवाच पितरं तत कस्मै मां दास्यतीति ।
द्वितीयं तृतीयं तं होवाच मृत्यवे त्वा ददामीति॥४॥

इन अर्थों में, अति परम प्रिय धन, तात का मैं पुत्र हूँ,
मुझे आप किसको दे रहे कृपया कहें, मैं व्यग्र हूँ।
पुनि प्रश्न था, पुनि मौन था, पुनि प्रश्न उत्तर शेष था,
तुझे मृत्यु को देता हूँ, ऋषि को, क्रोधमय आवेश था॥ [ ४ ]

बहूनामेमि प्रथमों बहूनामेमि मध्यम:।
किं स्विद्यमस्य कर्तव्यं यन्मयाद्य करिष्यति ॥५॥

शिष्यों, पुत्रों की तीन श्रेणी, श्रेष्ठ तो कहीं मध्यमा,
कदापि मैं नहीं अधम हूँ , क्यों कुपित तात हैं दें क्षमा।
यमराज को क्यों तात मुझको, दे रहे क्या मर्म है,
अब दुखित भी अति लग रहे, करूं शांत मेरा धर्म है॥ [ ५ ]

अनुपश्य यथा पूर्वे प्रतिपश्य तथापरे ।
सस्यमिव मर्त्य: पच्यते सस्यमिवाजायते पुन: ॥६॥

हे तात ! आपके पूर्वजों ने आचरण, जो भी किया,
वर्तमान को श्रेष्ठ लोगों ने अभी जैसे जिया।
करिये यथावत आचरण, ऋत, मरण धर्मा प्राण हैं,
अन्न सम प्राणों की वृति इव, जन्म जीर्ण विधान है॥ [ ६ ]

वैश्वानर: प्रविशत्यतिथिर्ब्राह्मणों गृहान् ।
तस्यैतां शान्ति कुर्वन्ति हर वैवस्वतोदकम् ॥७॥

नचिकेता पहुंचे यमसदन, ब्राह्मण अतिथि के रूप में,
आतिथ्य रवि सुत ने किया, अर्ध्य पाद्य स्वरूप में
किया पाद्य- प्रक्षालन विनत हो, धर्मराज ने विप्र का,
वर तीन देने को कहा त्रैदिन प्रतीक्षा रूप में [ ७ ]

आशा प्रतीक्षे संगतं सूनृतां च इष्टापूर्ते पुत्रपशूंश्च सर्वान् ।
एतद् वृड्क्ते पुरुषस्याल्पमेधसो यस्यानश्नन् वसति ब्राह्मणो गृहे ॥८॥

भोजन बिना ब्राह्मण अतिथि, घर में रहे जिसके कभी,
शुभ दान, यज्ञ व पुण्य कर्मों के फलित फल क्षय हों सभी।
पूर्व पुण्य से प्राप्त सुत -पशु, वाणी का माधुर्य भी,
श्री हीन क्षीण हो अतिथि जिसके, घर रहे भूखा कभी॥ [ ८ ]

तिस्त्रो रात्रीर्यदवात्सीर्गृहे मे अनश्नन् ब्रह्मन्नतिथिर्नमस्य : ।
नमस्ते अस्तु ब्रह्मन् स्वस्ति में अस्तु तस्मात् प्रति त्रीन् बरान् वृणीष्व ॥९॥

श्रद्धेय विप्र हे देवता. मम अतिथि आप प्रणम्य हो,
मेरे प्रमाद से तीन रातों का कष्ट विप्र हे क्षम्य हो।
भोजन बिना ही आप घर पर तीन रातों तक रहे,
अब तीन वर देता हूँ मैं संकोच बिन कुछ भी कहे॥ [ ९ ]

शान्तसकल्प: सुमना यथा स्याद्वीतमन्युगौर्तमों माभि मृत्यो ।
त्वत्प्रसृष्टं माभिवदेत्प्रतीत एतत्त्रयाणां प्रथमं वरं वृणे ॥१०॥

वापस यहाँ से जाऊं मैं तो, पूर्ववत मेरे पिता,
क्रोध क्षोभ से रहित शांत हों, मुदित मन आनंदिता।
स्नेहाविकल होकर कहें, मम पुत्र नचिकेता यही,
तीनों वरों में मृत्यु देव हे ! प्रथम वर इच्छित यही॥ [ १० ]

यथा पुरस्ताद् भविता प्रतीत औद्दालकिरारुणिर्मत्प्रसृष्ट : ।
सुखं रात्री: शयिता वीतमन्युस्त्वां ददृशिवान्मृत्युमुखात्प्रमुक्तम् ॥११॥

धर्मराज ने कह तथास्तु विप्र वर को वर दिया,
क्रोध दुःख, उद्विग्नता को शांत मैंने कर दिया।
तुम्हे मृत्यु मुख से मुक्त देख के हर्ष के अतिरेक से,
शांत चित वे सो सकेंगे, काम लेंगे विवेक से॥ [ ११ ]

स्वर्गे लोक न भयं किञ्चनास्ति न तत्र त्वं न जरया बिभेति ।
उभे तीर्त्वाशनायापिपासे शेकातिगो मोदते स्वर्गलोके ॥१२॥

भय नहीं किंचित स्वर्ग लोके, जरावस्था भी नहीं,
भूख प्यास विकार तन के, व्याधि दुःख होते नहीं।
वहाँ मृत्यु रूप में आप भी करते नहीं भयभीत हैं ,
आनंद रस में निमग्न हो, वहाँ जीव सारे पुनीत हैं॥ [ १२ ]

स त्वमग्नि स्वर्ग्यमध्येषि मृत्यों प्रब्रूहि त्वं श्रद्दधानाय मह्यम ।
स्वर्गलोका अमृतत्वं भजन्त एतद् द्वितीयेन वृणे वरेण ॥१३॥

वह स्वर्ग, अग्नि लोक को जाने बिना मिलता नहीं
हे मृत्यु देवता ! आप सा नहीं अग्नि का ज्ञाता कहीं।
आप में और अग्नि विद्या में गहन श्रद्धा मेरी,
उपदेश उसका ही कीजिये वर दूसरा इच्छा मेरी॥ [ १३ ]

प्र ते ब्रवीमि तदु मे निवोध स्वर्ग्यमग्निं नचिकेत: प्रजानन् ।
अनन्तलोकाप्तिमथो प्रतिष्ठां विद्धि त्वमेतं निहितं गुहायाम् ॥१४॥

नचिकेता प्रिय मैं अग्नि विद्या से, विधिवत विज्ञ हूँ,
ऋत मर्म कहता हूँ सुनो, वर देने को मैं प्रतिज्ञ हूँ।
है अग्नि विद्या अनंत इससे, लोक अविनाशी मिले,
बुद्धि रुपी गुफा में यह तात्विकों को ही मिले॥ [ १४ ]

लोकादिमग्निं तमुवाच तस्मै या इष्टका यावतीर्वा यथा वा ।
स चापि तत्प्रत्यवदद्यथोक्तमथास्य मृत्यु: पुनरेवाह तुष्ट:॥१५॥

यमराज ने तब स्वर्ग कारण रूप अग्नि विद्या को
आद्यंत कर उपदेश पूछा कि ज्ञात्त क्या हुआ प्रज्ञा को।
कहाँ कैसी कितनी ईंटे अग्नि कुंड शुचि को अभिष्ट हैं,
नचिकेता ने सब यथावत कह दिया, जो उपदिष्ट है॥ [ १५ ]

 

  • प्रथम अध्याय / प्रथम वल्ली / भाग २ / कठोपनिषद / मृदुल कीर्ति

  • तमब्रवीत प्रीयमाणो महात्मा वरं तवेहाद्य ददामि भूय: ।
    तवैव नामा भवितायमग्नि : सृक्ङां चेमामनेकरुपां गृहाण ॥१६॥

    नचिकेता की अप्रतिम बुद्धि से, धर्मराज चकित हुए,
    एक और वर देता हूँ प्रिय, मन मुदित कह हर्षित हुए।
    अब तुम्हारे ही नाम से, यह अग्नि विद्या प्रसिद्ध हो,
    जो रत्नमाल देवत्व सिद्धि को विविध रूपा सिद्ध हो॥ [ १६ ]

    त्रिणाचिकेतस्त्रिभिरेत्य सन्धिं त्रिकर्मकृत् तरति जन्ममृत्यू ।
    ब्रह्मजज्ञ। देवमीड्यं विदित्वा निचाय्येमां शानितमत्यन्तमेति ॥१७॥

    त्रय बार करते जो अनुष्ठान को, शास्त्र विधि से अग्नि का,
    ऋक साम यजुः के तत्व ज्ञान व दान यज्ञ विधान का।
    निष्काम भाव से चयन करते वे ही, पाते शान्ति को,
    जन्म मृत्यु विहीन होकर, शेष करते भ्रांति को॥ [ १७ ]

    त्रिणाचिकेतस्त्रयमेतद्विदित्वा य एवं विद्वांश्चिनुते नाचिकेतम् ।
    स मृत्यृपाशानृ पुरत: प्रणोद्य शोकातिगो मोदते स्वर्गलोके ॥१८॥

    अग्नि चयन विधि ईंटों की, संख्या स्वरूप को जानते,
    नाचिकेतम अग्नि विद्या के मर्म को पहचानते।
    तीन बार के अनुष्ठान से ही, जन्म मृत्यु के पाश से,
    रहित होकर स्वर्ग का पाते हैं सुख विश्वास से॥ [ १८ ]

    एष तेऽग्निर्नचिकेत: स्वर्ग्यो यमवृणीथा द्वितीयेन वरेण ।
    एतमग्निं तवैव प्रवक्ष्यन्ति जनासस्तृतीयं वरं नचिकेतो वृष्णीष्व॥१९॥

    नाचिकेत को यह अग्नि विद्या, स्वर्ग दायिनी ज्ञात्त हो,
    जिसे दूसरे वर से तुम्ही ने माँगा था विज्ञात हो।
    यह अग्नि विद्या अब तुम्हारे नाम से ही विज्ञ हो,
    नचिकेता अब तुम तीसरा वर मांग लो दृढ़ प्रग्य हो॥ [ १९ ]

    येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्येऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके ।
    एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाहं वराणामेष वरस्तृतीय : ॥२०॥

    उपरांत मृत्यु के आत्मा अस्तित्व में है या नहीं
    अव्यक्त अब तक तथ्य यह, इस विषय में एक मत नहीं।
    उपदिष्ट आपसे मर्म इसका, धर्मराज मैं जान लूँ
    तीनों वरों में तीसरा वर , आपसे मैं मांग लूँ॥ [ २० ]

    देवैरत्रापि विचिकित्सितं पुरा न हि सुवेज्ञेयमणुरेष धर्म : ।
    अन्यं वरं नचिकेतो वृणीष्व मा मोपरोत्सीरति मा सृजैनम् ॥२१॥

    आत्म तत्व का विषय नचिकेता बहुत ही सूक्ष्म है,
    सहज ग्राह्य न देवों से बी, ज्ञात अतिशय न्यून है।
    यद्यपि प्रतिज्ञ हूँ ऋणी हूँ, पर दूसरा वर मांग लो,
    देवों से भी अविदित मर्म है, गूढ़ है, यह जान लो॥ [ २१ ]

    देवैरत्रापि विचिकित्सितं किल त्वं च मृत्यों यत्र सुविज्ञेममात्थ ।
    वक्ता चास्य त्वादृगन्यों न लभ्यो नान्यो वरस्तुल्य एतस्य कश्चित् ॥२२॥

    देवों से भी अज्ञेय यदि और विषय इतना गूढ़ है,
    फिर आपसा ज्ञाता कहाँ मैं पाउँगा, जग मूढ़ है।
    मैं गूढ़ता से हार, वर कोई अन्य लूँ , यह कथन है ,
    इस वर के संम नहीं अन्य वर, कृपया कहें पुनि नमन है॥ [ २२ ]

    शतायुष: पुत्रपौत्रान् वृणीष्व बहून् पशून् हस्तिहिरण्यमश्वान् ।
    भूमेर्महदायतनं वृणीष्व स्वयं च जीव शरदो यावदिच्छसि ॥२३॥

    नचिकेता प्रिय इस वर को लेकर क्या करोगे मान लो ,
    सुत, पौत्र, गौएँ, स्वर्ण, गज, साम्राज्य, अश्व को मांग लो।
    तुम आयु इच्छित भोगने की चाहना हो तो कहो,
    सब सुलभ, दुर्लभ आत्म तत्व है, बस इसी को मत कहो॥ [ २३ ]

    एतत्तुल्यं यदि मन्यसे वरं वृणीष्व वित्तं चिरजीविकां च ।
    महाभूभौ नचिकेतस्त्वमेधि कामानां त्वा कामभाजं करोमि॥२४॥

    धन राज्य वैभव दीर्घ जीवन, यदि तुम्हारी दृष्टि में,
    वर आत्म विषयक सम यदि हैं, मांग लो सब सृष्टि में।
    इस विश्व के विश्वानि वैभव, दासवत, हो जायेंगे,
    इच्छित युगों तक जियो, भोगो शेष न हो पायेगे॥ [ २४ ]

    ये ये कामा दुर्लभा मर्त्यलोके सर्वान् कामांश्छन्दत: प्रार्थयस्व।
    इमा रामा : सरथा : सतूर्या न हीदृशा लम्भनीया मनुष्यै:।
    आभिर्मत्प्रत्ताभि : परिचारयस्व् नचिकेतो मरणं मानुप्राक्षी ॥२५॥

    भू लोक में जो भोग दुर्लभ, सुलभ सब कर दूँ अभी,
    रमणियां दुर्लभ, सहज सेवा समर्पित हों सभी।
    नचिकेता प्रिय विश्वानि वैभव, सब तुम्हारे ही लिए
    पर मृत्यु बाद की आत्मा का मर्म मत पूछो प्रिये॥ [ २५ ]

    श्वो भावा मर्त्यस्य यदन्तकैतत् सर्वेन्द्रियाणां जरयन्ति तेज: ।
    अपि सर्वम् जीवितमल्पेमेव तवैव वाहास्तव नृत्यगीते ॥२६॥

    नाशवान हैं पौत्र, सुत, गौ, अश्व, गज, साम्राज्य भी,
    सब मरण धर्मा प्राण, आयु, अप्सरा, रथ, राज्य भी।
    बहु प्रेय श्रेय सभी चुकेगे, क्षणिक इस संसार में,
    है शक्य कल होंगी नहीं, क्यों सार खोजूँ असार में॥ [ २६ ]

    न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यो लप्स्यामहे वित्तमद्राक्ष्म चेत् त्वा ।
    जीविष्यामो यावदीशिष्यसि त्वं वरस्तु मे वरणीय: स एव॥२७॥

    धन से हुआ कब तृप्त मानव, अर्थ के क्या अर्थ हैं,
    अगणित प्रलोभन आपके , मेरे लिए सब व्यर्थ हैं।
    शुभ दृष्टि से तो आपकी, धन आयु स्वयं यथेष्ट हैं, इस विषय
    अब आत्म ज्ञान का तीसरा, वर ही मुझे तो श्रेष्ठ है॥ [ २७ ]

    अजीर्यताममृतानामुपेत्य जीर्यन् मर्त्यः व्कधःस्थः प्रजानन्।
    अभिध्यायन् वर्णरतिप्रमोदानदीर्घे जीविते को रमेत ॥२८॥

    सब जानते हैं, सुविज्ञ मानव, मरण धर्मा प्राण हैं,
    जग नारी के सौन्दर्य सुख, धन भोग से कब त्राण है।
    छोड़ आपको रमे इनमें, कौन ऐसा मूढ़ है,
    मृत्यु हीन हे धर्मराज ! ही आप दुर्लभ गूढ़ हैं॥ [ २८ ]

    यस्मिन्निदं विचिकित्सन्ति मृत्यो यत्साम्पराये महति ब्रूहि नस्तत्।
    योऽयं वरो गूढमनुप्रविष्टो नान्यं तस्मान्नचिकेता वृणीते ॥२९॥

    मरणोपरांत की आत्मा अस्तित्व में है या नहीं,
    इस विषय का ज्ञातव्य ज्ञान, कहें प्रभो! इच्छा यही।
    वर आत्म ज्ञान का गूढ़, सत्य है, पर यही वर चाहिए,
    सब प्रलोभन व्यर्थ मुझको , आत्म ज्ञान ही चाहिए॥ [ २९ ]



    ॥ इति काठकोपनिषदि प्रथमाध्याये प्रथमा वल्ली ॥
     
    अन्यच्छेयोऽन्यदुतैव प्रेयस्ते उभे नानार्भे पुरुषं सिनीतः।
    तयोः श्रेय आददानस्य साधु भवति हीयतेऽर्थाद्य उ प्रेयो वृणीते ॥१॥
    कल्याण साधन अलग हैं, और प्रेम भोग भी अलग हैं,
    भिन्न फलदाता हैं दोनों, इनसे मानव सलग हैं।
    श्रेय कल्याणक अलौकिक, परे सुख संसार है,
    श्रेय नित्य है सौख्य सिंधु, प्रेम दुःख व्यापार है॥ [ १ ]

    श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीरः।
    श्रेयो हि धीरोऽभिप्रेयसो वृणीते प्रेयो मन्दो योगक्षेमाद् वृणीते ॥२॥

    अति धीर ज्ञानी प्रेय श्रेय के रूप का चिंतन करें,
    दोनों का अन्तर समझ कर ही श्रेय का साधन करें।
    मंद बुद्धि मनुष्य भौतिक, योगक्षेम में लींन हैं,
    तत्व ज्ञानी नीर क्षीर विवेक प्रभु तल्लीन हैं॥ [ २ ]

    स त्वं प्रियान् प्रियरूपांश्च कामानभिध्यायन्नचिकेतोऽत्यस्त्राक्षीः।
    नैतां सृडकां वित्तमयीमवाप्तो यस्यां मज्जन्ति बहवो मनुष्याः ॥३॥

    लौकिक अलौकिक दिव्य भोगों के प्रलोभन भी तुम्हें,
    किंचित न विचलित कर सकें, हम तत्व अधिकारी कहें।
    धन लोभ में तो विश्व के जन बद्ध, पर तुम मुक्त हो
    नचिकेता अधिकारी तुम्हीं, शुचि दिव्य निःस्पृह भक्त हो॥ [ ३ ]

    दूरमेते विपरीत विषूची अविद्या या च विद्येति ज्ञाता।
    विद्याभीप्सितं नचिकेतसं मन्ये न त्वा कामा बहवोऽलोलुपन्त ॥४॥

    विख्यात दो साधन प्रमुख, विद्या - अविद्या नाम से,
    एक भोगों से सलग, और एक प्रेरित ज्ञान से।
    नचिकेता प्रिय विद्या का में, अभिलाषी तुमको मानता,
    अविचल तितिक्षामय विवेकी, आत्मज्ञान प्रधानता॥ [ ४ ]

    अविद्यायामन्तरे वर्तमानः स्वयं धीराः पण्डितम्मन्यमानाः।
    दन्द्रम्यमाणाः परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः ॥५॥

    अन्तर अविद्या वास फिर जो स्वयं को ज्ञानी कहे ,
    ज्ञानाभिमानी मूढ़ भोगी, विविध योनी में रहे।
    अंधे को अंधा मार्ग दर्शक , ठीक गति उनकी वही,
    बहु योनियों की दुखद भटकन, लक्ष्य क्या मिलता कहीं॥ [ ५ ]

    न साम्परायः प्रतिभाति बालं प्रमाद्यन्तं वित्तमोहेन मूढम्।
    अयं लोको नास्ति पर इति मानी पुनः पुनर्वशमापद्यते मे ।। ६।।

    भौतिक प्रमादी मूढ़ जो, धन मोह में मदमत्त हैं,
    परलोक की चिंता नहीं, अदृश्य उनको सत्य हैं।
    भौतिक क्षणिक सुख मान शाश्वत, भ्रमित हो हँसते रहे,
    पुनरपि जनम और मरण के, दुष्चक्र में फँसते रहे॥ [ ६ ]

    श्रवणायापि बहुरभिर्यो न लक्ष्यः श्रृण्वन्तोपि बहवो यं न विद्युः।
    आश्चर्यो वक्ता कुशलोस्य लब्धाश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः ।। ७ ।।

    अधिकांश को तो आत्म तत्व का श्रवण भी नहीं साध्य है,
    कुछ श्रवण करते फिर भी उनका, ग्रहण तत्व दुसाद्धय है॥
    विरला ही कोई यथार्थ ज्ञाता, विरला ही कोई गहे,
    ऋत आत्म तत्व के ज्ञान का, ज्ञाता परम दुर्लभ महे॥ [ ७ ]

    प्रथम अध्याय / द्वितीय वल्ली / भाग २ / कठोपनिषद / मृदुल कीर्ति
    न नरेणावरेण प्रोक्त एष सुविज्ञेयो बहुधा चिन्त्यमानः ।
    अनन्यप्रोक्ते गतिरत्र नास्ति अणीयान् ह्यतर्क्यमणुप्रमाणात् ॥ ८ ॥

    सूक्षातिसूक्ष्म है आत्म तत्व तो, तर्क से भी अतीत है,
    विज्ञेय केवल ज्ञानियों से, ऋत जिन्हें अनुभूति है।
    यह तो प्रकृति पर्यंत और ज्ञातव्य न अल्पज्ञ से,
    फ़िर आत्म तत्व के ज्ञान बिन, कैसे मिलें सर्वज्ञ से॥ [ ८ ]

    नैषा तर्केण मतिरापनेया प्रोक्तान्येनैव सुज्ञानाय प्रेष्ठ ।
    यां त्वमापः सत्यधृतिर्बतासि त्वादृङ्नो भूयान्नचिकेतः प्रष्टा ॥ ९ ॥

    नचिकेता प्रिय प्रज्ञा तुम्हारी, देख कर मन मुदित है,
    जो तर्क से प्रायः परे, मिले प्रभु कृपा से विदित है।
    अति अडिग दृढ़ श्रद्धा तुम्हारी, सब प्रलोभन से परे,
    तुम सा जिज्ञासु मिले तो, आत्म ज्ञान कथित करें॥ [ ९ ]

    जानाम्यहं शेवधिरित्यनित्यं न ह्यध्रुवैः प्राप्यते हि ध्रुवं तत् ।
    ततो मया नाचिकेतश्चितोऽग्निः अनित्यैर्द्रव्यैः प्राप्तवानस्मि नित्यम् ॥ १० ॥

    मैं जानता हूँ, कर्म फल निधि, भोग सारे अनित्य हैं,
    नहीं अनित्य से नित्य सम्भव, तथ्य सत्य अचिन्त्य हैं।
    नाचिकेता अग्नि का, किया चयन , निः स्पृह वृति से,
    ब्रह्म मिल सकता है केवल, निरासक्ति प्रवृति से॥ [ १० ]

    कामस्याप्तिं जगतः प्रतिष्ठां क्रतोरानन्त्यमभयस्य पारम् ।
    स्तोममहदुरुगायं प्रतिष्ठां दृष्ट्वा धृत्या धीरो नचिकेतोऽत्यस्राक्षीः ॥ ११ ॥

    इस विश्व के विश्वानि वैभव, धन व श्री सुख संपदा,
    से वृति तुम्हारी विरत निःस्पृह अनासक्त सदा सदा।
    वेदों में जो स्तुत्य सुख का, वृहत वर्णन वृहद है,
    इनके प्रति शुचि त्याग वृति, तुम्हारी दुर्लभ सुखद है॥ [ ११ ]

    तं दुर्दर्शं गूढमनुप्रविष्टं गुहाहितं गह्वरेष्ठं पुराणम् ।
    अध्यात्मयोगाधिगमेन देवं मत्वा धीरो हर्षशोकौ जहाति ॥ १२ ॥

    सबके ह्रदय की गुफा में , प्रभु सर्व व्यापी व्याप्त हैं,
    वह योग माया के आवरण में, है छिपा नहीं ज्ञात है।
    जग गहन दुर्गम विपिन सम, सत्ता अगोचर की महे,
    जो धीर साधक सतत चिन्तक, वे हर्ष शोक नहीं गहें॥ [ १२ ]

    एतच्छ्रुत्वा सम्परिगृह्य मर्त्यः प्रवृह्य धर्म्यमणुमेतमाप्य ।
    स मोदते मोदनीयँ हि लब्ध्वा विवृतँ सद्म नचिकेतसं मन्ये ॥ १३ ॥

    सुनकर ग्रहण मानव करे, आध्यात्म के उपदेश को,
    फ़िर तत्वमय चिंतन करें,ऋत आत्म तत्व प्रवेश को।
    आनंद में ऋत ज्ञान के ज्ञानी वही तल्लीन हो,
    नचिकेता अधिकारी हो तुम, ऋत ब्रह्म ज्ञान प्रवीण हो॥ [ १३ ]

    अन्यत्र धर्मादन्यत्राधर्मा- दन्यत्रास्मात्कृताकृतात् ।
    अन्यत्र भूताच्च भव्याच्च यत्तत्पश्यसि तद्वद ॥ १४ ॥

    वह कार्य कारण रूप जग से,ब्रह्म भिन्न अतीत है,
    वर्तमान , भविष्य, भूत से, ब्रह्म कालातीत है।
    धर्म और अधर्मातीत है, वह ब्रह्म आप ही जानते,
    नचिकेता पुनि -पुनि विनत वद, यदि पात्र मुझको मानते॥ [ १४ ]

    सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति तपाँसि सर्वाणि च यद्वदन्ति ।
    यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदँ संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत् ॥ १५ ॥

    जिस परम पद का वेद पुनि -पुनि कथन प्रतिपादन करें,
    सम्पूर्ण तप जिस परम पद का लक्ष्य और साधन करें।
    जिसके लिए ही ब्रह्मचर्य का, कठिन व्रत साधक करे,
    वह परम तत्व है "ॐ " अक्षर महत उद्धारक नरे॥ [ १५ ]

    एतद्ध्येवाक्षरं ब्रह्म एतद्ध्येवाक्षरं परम् ।
    एतद्ध्येवाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत् ॥ १६ ॥

    यह "ॐ " अक्षर प्रणव अक्षय, ब्रह्म का ही स्वरूप है,
    यही परम पुरुषोत्तम जनार्दन, परम ब्रह्म अनूप है।
    ब्रह्म और परब्रह्म का ही, नाम तो ओंकार है,
    ऋत तत्व साधक को सुलभ, परब्रह्म दोनों प्रकार है॥ [ १६ ]

    प्रथम अध्याय / द्वितीय वल्ली / भाग ३ / कठोपनिषद / मृदुल कीर्ति
    एतदालम्बनँ श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम्।
    एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते ॥ १७ ॥

    ॐ कार आलंबन अत्युतम, श्रेष्ठतम है, परम है,
    कोई अन्य आलंबन नहीं, आश्रय यही तो परम है।
    साधन अमोघ है ॐ जिसमें, परम प्रभु ज्ञातव्य है,
    मर्म जान के ॐ का, साधक को प्रभु प्राप्तव्य हैं॥ [ १७ ]

    न जायते म्रियते वा विपश्चिन्
    नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित् ।
    अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
    न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ १८ ॥

    है जन्म मृत्यु विहीन आत्मा, कार्य कारण से परे,
    यह नित्य शाश्वत अज पुरातन कैसे परिभाषित करें।
    क्षय वृद्धिहीन है आत्मा और नाशवान शरीर है,
    आत्मा पुरातन अज सनातन मूल है अशरीर है॥ [ १८ ]

    हन्ता चेन्मन्यते हन्तुँ हतश्चेन्मन्यते हतम् ।
    उभौ तौ न विजानीतो नायँ हन्ति न हन्यते ॥ १९ ॥

    यहाँ कोई मरता है नहीं,और न ही कोई मारता,
    ऐसा समझता यदि कोई वह तथ्य को नहीं जानता।
    इस नित्य चेतन आत्मा का जड़ अनित्य शरीर से,
    ना ही कोई सम्बन्ध ना ही बंधे जड़ प्राचीर से॥ [ १९ ]

    अणोरणीयान्महतो महीया-
    नात्माऽस्य जन्तोर्निहितो गुहायाम् ।
    तमक्रतुः पश्यति वीतशोको
    धातुप्रसादान्महिमानमात्मनः ॥ २० ॥

    जीवात्मा के, हृदय रूपी गुफा में, ईश्वर रहे,
    अति सूक्ष्म से भी सूक्ष्म जो है, महिम से अतिशय महे।
    परब्रह्म की महिमा महिम, विरले को ही द्रष्टव्य है,
    द्रष्टव्य हो महिमा महिम की, और यही गंतव्य है॥ [ २० ]

    आसीनो दूरं व्रजति शयानो याति सर्वतः ।
    कस्तं मदामदं देवं मदन्यो ज्ञातुमर्हति ॥ २१ ॥

    सर्वत्र सब रूपों में व्यापक, प्रेम पद्म जगत्पते,
    महे दिव्य परम एश्वैर्मय, अभिमान शून्य महामते।
    आसीन पर गतिमान प्रभुवर दूर हैं पर पास हैं,
    उस दिव्य तत्व की दिव्यता बस धर्मराज को भास है॥ [ २१ ]

    अशरीरँ शरीरेष्वनवस्थेष्ववस्थितम् ।
    महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति ॥ २२ ॥

    यह क्षणिक है क्षयमाण क्षीण है, मरण धर्मा शरीर है,
    सब हर्ष शोक विकार मन के, मोह के प्राचीर हैं।
    अति धीर जन प्रज्ञा विवेकी, शोक न किंचित करें,
    सर्वज्ञ ब्रह्म को जान कर, वे मोह न सिंचित करें॥ [ २२ ]

    नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो
    न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
    यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः
    तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूँ स्वाम् ॥ २३ ॥

    परब्रह्म ना ही बुद्धि ना ही वचन, श्रुति अतिरेक से,
    ना तर्क गर्व प्रमत्त से, अथ ना सुलभ प्रत्येक से।
    करते स्वयम स्वीकार जिसको, प्रभु उन्हें उपलब्ध है,
    जो विकल व्याकुल भक्त जिनके भक्तिमय प्रारब्ध हैं॥ [ २३ ]

    नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः ।
    नाशान्तमानसो वाऽपि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ॥ २४ ॥

    ये बुद्धि मन और इन्द्रियों, जिसके नहीं आधीन हैं,
    कटु वृतिमय ज्ञानाभिमानी भी, प्रभु रस हीन हैं।
    है शांत मन जिनका नहीं, और आचरण न ही शुद्ध है,
    नहीं प्रभु कृपा उन पर रहे, वह चाहे कितना प्रबुद्ध है॥ [ २४ ]

    यस्य ब्रह्म च क्षत्रं च उभे भवत ओदनः ।
    मृत्युर्यस्योपसेचनं क इत्था वेद यत्र सः ॥ २५ ॥

    संहारकाले स्वयम मृत्यु व प्राणी जिसका भोज हों,
    अहम कालोअस्मि कथ, अथ का विदित क्या ओज हो।
    उस मृत्यु संहारक परम प्रभु को भला कैसे कोई,
    क्या जान पाये सृष्टि में उपजा नहीं, विरला कोई॥ [ २५ ]



    इति काठकोपनिषदि प्रथमाध्याये द्वितीया वल्ली ॥

    प्रथम अध्याय / तृतीय वल्ली / भाग १ / कठोपनिषद / मृदुल कीर्ति

    ऋतं पिबन्तौ सुकृतस्य लोके गुहां प्रविष्टौ परमे परार्धे ।
    छायातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति पञ्चाग्नयो ये च त्रिणाचिकेताः ॥ १ ॥

    अति पुण्य कर्मों का उदय,मिलता मनुज का रूप है,
    क्योंकि मनुज के हृदय बुद्धि में , ब्रह्म का प्रतिरूप है।
    धूप और छायावत परस्पर, भिन्न भी है अभिन्न भी,
    पन्चाग्निमय जो गृहस्थ, कहते सत्य यह अविछिन्न भी॥ [ १ ]

    यः सेतुरीजानानामक्षरं ब्रह्म यत् परम् ।
    अभयं तितीर्षतां पारं नाचिकेतँ शकेमहि ॥ २ ॥

    याज्ञादी और शुभ कर्म हम निष्काम भाव से सर्वदा,
    प्रभुवर करें सामर्थ्य वह, देना हमें हे वसुविदा।
    भाव सिंधु करने को पार इच्छुक को, जो पद भय रहित है,
    मिले ब्रह्म जब कि प्रार्थना की भावना सन्निहित है॥ [ २ ]

    आत्मानँ रथितं विद्धि शरीरँ रथमेव तु ।
    बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ॥ ३ ॥

    नचिकेता प्रिय जीवात्मा को, रथ का स्वामी मान लो,
    एस पान्च्भौतिक देह को तुम रथ का स्वामी जान लो।
    जीवात्मा स्वामी है रथ का, बुद्धि समझो सारथी,
    रथ रथी और सारथी का मन नियंत्रक महारथी॥ [ ३ ]

    इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयाँ स्तेषु गोचरान् ।
    आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ॥ ४ ॥

    सब इंद्रियों को ज्ञानियों ने, रूप अश्वों का कहा,
    विषयों में जग के विचरने का, मार्ग अति मोहक महा।
    मनचंचला और देह इन्द्रियों से युक्त है जीवात्मा,
    बहु भोग विषयों में लीन हो, भूला है वह परमात्मा॥ [ ४ ]

    यस्त्वविज्ञानवान्भवत्ययुक्तेन मनसा सदा ।
    तस्येन्द्रियाण्यवश्यानि दुष्टाश्वा इव सारथेः ॥ ५ ॥

    मन वृत्तियाँ जिसकी हैं चंचल, वह विवेकी है नहीं,
    हैं बुद्धि विषयक प्रवण पर वे, ब्रह्म पा सकते नहीं।
    अति दुष्ट अश्वों की भांति, उनकी इन्द्रियों वश्हीं हैं,
    वे लक्ष्य हीन भटकते, जिनका सारथी न प्रवीण है॥ [ ५ ]

    यस्तु विज्ञानवान्भवति युक्तेन मनसा सदा ।
    तस्येन्द्रियाणि वश्यानि सदश्वा इव सारथेः ॥ ६ ॥

    वश में हैं जिसकी इन्द्रियाँ, मन से वही संपन्न है,
    मन से ही लौकिक और भौतिक, लक्ष्य सब निष्पन्न हैं।
    अति कुशल सारथि की तरह से, इन्द्रियाँ जिसकी सदा,
    हो वश में जिसके वह विवेकी, दिव्य पाये संपदा॥ [ ६ ]

    यस्त्वविज्ञानवान्भवत्यमनस्कः सदाऽशुचिः ।
    न स तत्पदमाप्नोति संसारं चाधिगच्छति ॥ ७ ॥

    जो विषय विष को मान अमृत, लिप्त उसमें ही रहें,
    उनके असंयमित मन विकारी, लेश न सतगुन गहें।
    उस परम पद को ऐसे प्राणी, पा नहीं सकते कभी,
    पुनि पुनि जनम और मरण के दुष्चक्र न रुकते कभी॥ [ ७ ]

    यस्तु विज्ञानवान्भवति समनस्कः सदा शुचिः ।
    स तु तत्पदमाप्नोति यस्माद्भूयो न जायते ॥ ८ ॥

    पर जो सदा संयम विवेकी, शुद्ध भाव से युक्त हैं,
    पद परम अधिकारी वही और मरण जन्म से मुक्त हैं। निष्काम भाव से कर्म,कर्मा की जन्म मृत्यु भी शेष है,
    निःशेष शेष हों कर्म जिसके भक्त प्रभु का विशेष है॥ [ ८ ]

    विज्ञानसारथिर्यस्तु मनः प्रग्रहवान्नरः ।
    सोऽध्वनः पारमाप्नोति तद्विष्णोः परमं पदम् ॥ ९ ॥

    जो बुद्धि रूपी सारथी से है नियंत्रित सर्वदा,
    स्व मन स्वरूपी डोर उसके हाथ में रहती सदा।
    है वह मनुज सम्यक विवेकी, पार हो संसार से,
    फ़िर भोग से उपरत हो रत हो, परम करुनागार से॥ [ ९ ]

    इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः ।
    मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान्परः ॥ १० ॥

    इन्द्रियों से अति अधिक तो शब्द विषयों में वेग है,
    विषयों से भी बलवान मन का, प्रबल अति संवेग है| इस मन से भी बुद्धि परम और बुद्धि से है आत्मा,
    अतः मानव आत्म बल संयम से हो परमात्मा॥ [ १० ]

    प्रथम अध्याय / तृतीय वल्ली / भाग २ / कठोपनिषद / मृदुल कीर्ति
    महतः परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुषः परः ।
    पुरुषान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गतिः ॥ ११ ॥

    जीवात्मा से तो बलवती, अव्यक्त माया शक्ति है,
    अव्यक्त माया से परम उस परम प्रभु की शक्ति है।
    उस दिव्य गुण गण प्रभो की परम प्रभुता से परे,
    नहीं सृष्टि में कोई भी किंचित,साम्यता प्रभु से करे॥ [ ११ ]

    एष सर्वेषु भूतेषु गूढोऽऽत्मा न प्रकाशते ।
    दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः ॥ १२ ॥

    प्रभु सर्वभूतेषु तथापि माया के परिवेश में,
    हैं स्वयम को आवृत किए ,रहते अगोचर वेष में।
    अति सूक्ष्म दर्शी भक्त ज्ञानी ही दया की दृष्टि से,
    हैं देख पाते परम प्रभु और विश्व को सम दृष्टि से॥ [ १२ ]

    यच्छेद्वाङ्मनसी प्राज्ञस्तद्यच्छेज्ज्ञान आत्मनि ।
    ज्ञानमात्मनि महति नियच्छेत्तद्यच्छेच्छान्त आत्मनि ॥ १३ ॥

    वाक इन्द्रियों को मनस में और मनस को शुचि ज्ञान में,
    शुचि ज्ञान को फ़िर आत्मा और आत्मा महिम महान में।
    इस भांति जो भी जो भी निरुद्ध और विलीन करते आत्मा,
    स्थिर वे स्थित प्रज्ञ हैं और पाते हैं परमात्मा॥ [ १३ ]

    उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।
    क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ॥ १४ ॥

    लाभान्वित हो मानवों तुम ज्ञानियों के ज्ञान से,
    तुम उठो जागो और जानो ब्रह्म विधान से।
    यह ज्ञानं ब्रह्म का गहन दुष्कर, बिन कृपा अज्ञेय ही,
    ज्यों हो छुरे की धार दुस्तर, ज्ञानियों से ज्ञेय है॥ [ १४ ]

    अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्च यत् ।
    अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं निचाय्य तन्मृत्युमुखात् प्रमुच्यते ॥ १५ ॥

    प्रभु,रूप,रस,स्पर्श,शब्द व गंध हीन महिम महे,
    आद्यंत हीन असीम अद्भुत,नित्य अविनाशी रहे।
    यह ब्रह्म तो जीवात्मा से श्रेष्ठतर ध्रुव सत्य है,
    पुनरपि जनम और मरण शेष हों, ज्ञात जब प्रभु नित्य हो॥ [ १५ ]

    नाचिकेतमुपाख्यानं मृत्युप्रोक्तँ सनातनम् ।
    उक्त्वा श्रुत्वा च मेधावी ब्रह्मलोके महीयते ॥ १६ ॥

    शुचि उपाख्यान सनातनम, यमराज से जो कथित है,
    यह ज्ञानियों द्वारा जगत में, कथित है और विदित है।
    इस नाचिकेतम अग्नि तत्व का श्रवण, अथवा जो कहे,
    महिमान्वित होकर प्रतिष्ठित, ब्रह्म लोक का पद गहें॥ [ १६ ]

    य इमं परमं गुह्यं श्रावयेद् ब्रह्मसंसदि ।
    प्रयतः श्राद्धकाले वा तदानन्त्याय कल्पते ।
    तदानन्त्याय कल्पत इति ॥ १७ ॥

    जो ब्राह्मणों की सभा आदि में , शुद्ध होकर सर्वथा
    परब्रह्म विषयक परम गूढ़ के मर्म की कहते कथा।
    है श्राद्ध काले श्रवण करवानें का फल अक्षय महे,
    वे अंत में होते अनंत हैं,जो अनंता को गहें॥ [ १७ ]

    द्वितीय अध्याय
    द्वितीय अध्याय / प्रथम वल्ली / भाग १ / कठोपनिषद / मृदुल कीर्ति
    पराञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयम्भू-
    स्तस्मात्पराङ्पश्यति नान्तरात्मन् ।
    कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्ष-
    दावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन् ॥ १ ॥

    इन्द्रियों की बहिर्मुख वृति, बाह्य जग ही दृश्य है,
    यही आत्म भू अखिलेश की, रचना स्वयम अदृश्य है।
    कभी कोई कतिपय धीर ज्ञानी, ही परम पड़ चाहते,
    इस अनृत जग से विमुख होकर, सत्य को पहचानते॥ [ १ ]

    पराचः कामाननुयन्ति बाला-
    स्ते मृत्योर्यन्ति विततस्य पाशम् ।
    अथ धीरा अमृतत्वं विदित्वा
    ध्रुवमध्रुवेष्विह न प्रार्थयन्ते ॥ २ ॥

    बाह्य भोगों का अनुसरण तो, मूर्ख ही केवल करें,
    वे विविध योनी मृत्यु बन्धन, मैं पर पड़ें और न तरें।
    अति धीर ज्ञानी ही सुमति से, ध्रुव अमर पद जानते,
    परमार्थ साधन मैं लगे, ऋत तत्व को पहचानते॥ [ २ ]

    येन रूपं रसं गन्धं शब्दान् स्पर्शाँश्च मैथुनान् ।
    एतेनैव विजानाति किमत्र परिशिष्यते ।
    एतद्वै तत् ॥ ३ ॥

    सब शब्द, रस, स्पर्श, मैथुन, गंध रूप की इन्द्रियां,
    हैं प्रभु अनुग्रह से सुलभ मानव को सब ज्ञानेन्द्रियों।
    नचिकेता प्रिय उसकी दया से ही विदित संसार मैं,
    क्या शेष क्षण भंगुर रहा, क्षय क्षणिक जग व्यापार में॥ [ ३ ]

    स्वप्नान्तं जागरितान्तं चोभौ येनानुपश्यति ।
    महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति ॥ ४ ॥

    स्वप्न और जागृत अवस्था की ज्ञान अनुभव चेतना,
    परमेश प्रभु की ही कृपा से मिली है संवेदना।
    जो सर्वव्यापी श्रेष्ठतम परमात्मा को जानते,
    दुःख शोक किंचित किसी कारण भी न उनको व्यापते॥ [ ४ ]

    य इमं मध्वदं वेद आत्मानं जीवमन्तिकात् ।
    ईशानं भूतभव्यस्य न ततो विजुगुप्सते ।
    एतद्वै तत् ॥ ५ ॥

    जिन्हें कर्म फल जीवन प्रदाता का सदा आभास है,
    उन्हे वर्तमान भविष्य भूत का स्वामी प्रभु अति पास है।
    सबके हृदय स्थित प्रभो का तत्व ज्ञानी ही जानते,
    कटु, घृणा, निंदा द्वेष, शून्य हो ब्रह्म को इव मानते॥ [ ५ ]

    यः पूर्वं तपसो जातमद्भ्यः पूर्वमजायत ।
    गुहां प्रविश्य तिष्ठन्तं यो भूतेभिर्व्यपश्यत ।
    एतद्वै तत् ॥ ६ ॥

    प्रगट जल से पूर्व ब्रह्म जो,हिरण्यगर्भ के रूप में,
    है आत्म भू अखिलेश तप से , प्रगट रूप अरूप में।
    ऋत सर्व अंतर्यामी प्रभुवर, एकमेव ही ज्ञात है,
    हृदय रूपी गुफा में, जीवों के प्रभुवर व्याप्त है॥ [ ६ ]

    या प्राणेन संभवत्यदितिर्देवतामयी ।
    गुहां प्रविश्य तिष्ठन्तीं या भूतेभिर्व्यजायत ।
    एतद्वै तत् ॥ ७ ॥

    प्राणों सहित जो देवता मयी, अदिति शुचि निष्पन्न है,
    सब प्राणियों में निहित हिय की गुफा में आसन्न है।
    वह भगवती आद्यंत अद्भुत शक्ति, प्रभु से अभिन्न है,
    नचिकेता प्रिय पूछा जो तुमने, यही प्रभुवर धन्य हैं॥ [ ७ ]

    अरण्योर्निहितो जातवेदा गर्भ इव सुभृतो गर्भिणीभिः ।
    दिवे दिवे ईड्यो जागृवद्भिर्हविष्मद्भिर्मनुष्येभिरग्निः ।
    एतद्वै तत् ॥ ८ ॥

    ज्यों गर्भिणी के गर्भ में बालक छिपा है,निहित है,
    त्यों दो अरिनियों के मध्य, अग्नि तत्व इव सन्निहित है।
    हवनीय द्रव्यों से याज्ञिक, करें नित्य जिनकी वंदना,
    वे ही नचिकेता तुम्हारे प्रश्न ब्रह्म की व्यंजना॥ [ ८ ]

    यतश्चोदेति सूर्योऽस्तं यत्र च गच्छति ।
    तं देवाः सर्वेऽर्पितास्तदु नात्येति कश्चन ।
    एतद्वै तत् ॥ ९ ॥

    दिनकर जहाँ से उदित होते,अस्त होते हैं जहाँ,
    सब देवता अर्पित उसी में,लीं होते हैं वहाँ।
    हैं अलंघनीय विधान उसके, भेद उसके अगम्य हैं,
    नचिकेता प्रिय ये ही तुम्हारे प्रश्न विषयक ब्रह्म हैं॥ [ ९ ]

    यदेवेह तदमुत्र यदमुत्र तदन्विह ।
    मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति ॥ १० ॥

    परब्रह्म जो भूलोक में,दिवि लोक में भी है वही,
    जो है वहाँ वह ही यहाँ, अनु एक भी प्रभु बिन नहीं।
    जो मोह्वश नानात्व की परिकल्पना में भ्रमित हैं,
    वे जन्म मृत्यु के चक्र में,अगणित युगों तक ग्रसित हैं॥ [ १० ]

    द्वितीय अध्याय / प्रथम वल्ली / भाग २ / कठोपनिषद / मृदुल कीर्ति
    मनसैवेदमाप्तव्यं नेह नानाऽस्ति किंचन ।
    मृत्योः स मृत्युं गच्छति य इह नानेव पश्यति ॥ ११ ॥

    शुचि शुद्ध मन से ब्रह्म तत्व गहन परम प्राप्तव्य है,
    जीवात्मा को पूर्ण प्रभु, ही मात्र एक गंतव्य है।
    जो भिन्नता देखे वह पुनरपि जन्म मृत्यु के चक्र में,
    फंस कर न पाये मुक्ति वह, फंस जाए जो दुष्चक्र में॥ [ ११ ]

    अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषो मध्य आत्मनि तिष्ठति ।
    ईशानं भूतभव्यस्य न ततो विजुगुप्सते ।
    एतद्वै तत् ॥ १२ ॥

    प्रभु सर्व व्यापी, व्याप्त पर स्थित ह्रदय में विशेष है,
    अंगुष्ठ मात्र,त्रिकाल शासक ब्रह्म ही परमेश है।
    अनुसार स्थिति के, सभी आकारों से संपन्न है,
    नचिकेता प्रश्नायित तुम्हारे, ब्रह्म ये ही अभिन्न हैं॥ [ १२ ]

    अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषो ज्योतिरिवाधूमकः ।
    ईशानो भूतभव्यस्य स एवाद्य स उ श्वः ।
    एतद्वै तत् ॥ १३ ॥

    प्रभु धूम्रहीन अतीव ज्योतित, ज्योतिमय परमेश हे!
    वर्तमान व विगत आगत के नियंत्रक वृनी महे।
    त्रैकाल शासक नित, सनातन, काल सीमा से परे,
    यही ब्रह्म नचिकेता प्रिय, तू जिसकी जिज्ञासा करे॥ [ १३ ]

    यथोदकं दुर्गे वृष्टं पर्वतेषु विधावति ।
    एवं धर्मान् पृथक् पश्यंस्तानेवानुविधावति ॥ १४ ॥

    ज्यों उच्च शिखरों पर वृषित जल, गिरि के चहुँ दिशि फैलता,
    अनुरूप रूप के रूप ले, जल एक हैं देते बता।
    ज्यों एक प्रभु से सृजित सृष्टि, प्रभु पृथक किंचित नहीं,
    यदि मान्यता जिनकी पृथक, उनकी कभी मुक्ति नहीं॥ [ १४ ]

    यथोदकं शुद्धे शुद्धमासिक्तं तादृगेव भवति ।
    एवं मुनेर्विजानत आत्मा भवति गौतम ॥ १५ ॥

    हे गौतमी ! नचिकेता प्रिय, विश्वानि सृष्टि है ईश की,
    संसार उपरत जन ही तो पाते कृपा जगदीश की।
    ज्यों शुद्ध जल में शुद्ध जल मिल, शुद्ध जल ही बन सके,
    त्यों तत्व ज्ञानी ब्रह्म ज्ञान से ब्रह्म वेत्ता बन सके॥ [ १५ ]




    इति काठकोपनिषदि द्वितीयाध्याये प्रथमा वल्ली ॥
    द्वितीय अध्याय / द्वितीय वल्ली / भाग १ / कठोपनिषद / मृदुल कीर्ति
    पुरमेकादशद्वारमजस्यावक्रचेतसः ।
    अनुष्ठाय न शोचति विमुक्तश्च विमुच्यते ।
    एतद्वै तत् ॥ १ ॥

    मानव शरीरी रूप पुर,ईश्वर का ग्यारह द्वारों का,
    जीवात्मा को जीते जी, पूजा को पथ उद्धारों का।
    वह शोक कारण रूप जग , बन्धन से छूटे मुक्त हो,
    नचिकेता यह वह ब्रह्म है, तुम जिसके प्रति आसक्त हो॥ [ १ ]

    हँसः शुचिषद्वसुरान्तरिक्षसद्-
    होता वेदिषदतिथिर्दुरोणसत् ।
    नृषद्वरसदृतसद्व्योमसद्
    अब्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतं बृहत् ॥ २ ॥

    परब्रह्म हंस बहुत ऋतं शुचि बृहत इसके रूप हैं,
    देवानुप्रिय गृह में अतिथि, वसु अन्तरिक्ष अनूप हैं।
    प्रभु व्योम स्थित ऋत प्रतिष्ठित, अग्नि होता यज्ञ में,
    भू- द्यु , गिरि, नद, अन्न, औषधि सब समाये अज्ञ में॥ [ २ ]

    ऊर्ध्वं प्राणमुन्नयत्यपानं प्रत्यगस्यति ।
    मध्ये वामनमासीनं विश्वे देवा उपासते ॥ ३ ॥

    दे उर्ध्व गति प्राणों को व जो अधोगति दे अपान को,
    प्रभु स्वयम स्थित हृदय में, हैं शुचि प्रदेश महान को।
    उन हृदय स्थित परम प्रभु का, देवता पूजन करें,
    शुचि दिव्य शुभ गुण गण विभूषित ईश का वंदन करे॥ [ ३ ]

    अस्य विस्रंसमानस्य शरीरस्थस्य देहिनः ।
    देहाद्विमुच्यमानस्य किमत्र परिशिष्यते ।
    एतद्वै तत् ॥ ४ ॥

    गमन शील हैं प्राण जीव के, यह कभी स्थिर नहीं,
    एक शरीर से दूसरे में, जन्म मृत्यु हो चिर यही।
    प्राण निकलें जब शरीर से, शेष क्या रहता कहो,
    जो शेष वह ही विशेष है, परब्रह्म अंश महिम अहो॥ [ ४ ]

    न प्राणेन नापानेन मर्त्यो जीवति कश्चन ।
    इतरेण तु जीवन्ति यस्मिन्नेतावुपाश्रितौ ॥ ५ ॥

    न तो प्राण न ही अपान शक्ति से, जी सके कोई यहाँ,
    जीवात्मा में मूल चेतन तत्त्व ब्रह्म है ऋत महा।
    आश्रित हैं प्राण अपान दोनों, मरण धर्मा जीव में,
    जीवात्मा बिन क्षण का न अस्तित्व पृथक सजीव में॥ [ ५ ]

    हन्त त इदं प्रवक्ष्यामि गुह्यं ब्रह्म सनातनम् ।
    यथा च मरणं प्राप्य आत्मा भवति गौतम ॥ ६ ॥

    नचिकेता प्रिय तुम जीव ब्रह्म के तत्व को मुझसे सुनो,
    हूँ प्रतिज्ञ तुमसे गौतमी, श्रवणीय तत्व को तुम गुनो।
    जीवात्मा का होता क्या है , मर के है जाता कहाँ,
    परब्रह्म का है स्वरूप कैसा ? मर्म कहता हूँ यहाँ॥ [ ६ ]

    योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः ।
    स्थाणुमन्येऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम् ॥ ७ ॥

    स्व संस्कार व कर्मों के अनुसार ही सब जन्मते,
    यहाँ कुछ बने जीवात्मा, कुछ कीट पशु कुछ जड़ लते।
    यहाँ शुभ -अशुभ कर्मों के ही, अनुसार जड़ जंगम मिले,
    जब ज्ञान तत्व विशेष , तब जीव ब्रह्म से जा मिले॥ [ ७ ]

    य एष सुप्तेषु जागर्ति कामं कामं पुरुषो निर्मिमाणः ।
    तदेव शुक्रं तद्ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते ।
    तस्मिँल्लोकाः श्रिताः सर्वे तदु नात्येति कश्चन ।
    एतद्वै तत् ॥ ८ ॥

    प्रभु परम अति है, विशुद्ध तत्व है, ब्रह्म भी अमृत वही,
    विश्वानी विश्व का वास उसमें, एक शाश्वत ऋत वही।
    अतिक्रमण हीन विधान उसके, कर्म फलदाता वही,
    जागे प्रलय काले वही, तुम जिसके जिज्ञासु मही॥ [ ८ ]

    द्वितीय अध्याय / द्वितीय वल्ली / भाग २ / कठोपनिषद / मृदुल कीर्ति
    अग्निर्यथैको भुवनं प्रविष्टो
    रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
    एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा
    रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ॥ ९ ॥

    सब प्राणियों में एक प्रभु, सम भावना से व्याप्त है,
    आधार के अनुरूप रूप में, व्याप्त है नहीं ज्ञात है।
    ज्यों अग्नि एक तथापि उसके, प्रगट रूप अनेक हैं,
    त्यों ब्रह्म एक है विविधता, दृष्टव्य जिनमें विवेक है॥ [ ९ ]

    वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो
    रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
    एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा
    रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ॥ १० ॥

    ज्यों एक वायु तथापि गति संयोग शक्ति अनेक हैं,
    त्यों विश्व के सब प्राणियों में ब्रह्म तत्व भी एक है।
    वह एक होकर भी अहो रखते अनेकों वेश हैं,
    अन्तः प्रवाहित बाह्य भी अनभिज्ञ बहु परिवेश हैं॥ [ १० ]

    सूर्यो यथा सर्वलोकस्य चक्षुः
    न लिप्यते चाक्षुषैर्बाह्यदोषैः ।
    एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा
    न लिप्यते लोकदुःखेन बाह्यः ॥ ११ ॥

    यथा रवि को दर्शकों के दोष गुण नहीं लिप्यते,
    तथा प्रभुवर प्राणियों के कर्म दोषों में न रते।
    सबमें विराजित है तथापि पृथक और निर्लिप्त है,
    उस दिव्य पुंज की दिव्य ज्योति से विश्व सारा प्रदीप्त है॥ [ ११ ]

    एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा
    एकं रूपं बहुधा यः करोति ।
    तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीराः
    तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम् ॥ १२ ॥

    तुम एक होकर भी प्रभो, रखते अनेकों वेश हो,
    अन्तः करण स्थित सभी के, आत्म भू अखिलेश हो।
    इस आत्म स्थित परम प्रभु का, ज्ञान जिस ज्ञानी को हो,
    उसे सुख सुलभ शाश्वत सनातन, अन्य को दुर्लभ अहो॥ [ १२ ]

    नित्योऽनित्यानां चेतनश्चेतनानाम्
    एको बहूनां यो विदधाति कामान् ।
    तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीराः
    तेषां शान्तिः शाश्वती नेतरेषाम् ॥ १३ ॥

    प्रभो नित्यों का भी नित्य चेतन, आत्मा की आत्मा,
    जीवों के कर्मों का विधाता, एक है परमात्मा।
    ज्ञानी सतत जो देखते, अन्तः विराजित जगपते,
    वे ही सनातन शांति शाश्वत, पा सकेंगे सत्पते॥ [ १३ ]

    तदेतदिति मन्यन्तेऽनिर्देश्यं परमं सुखम् ।
    कथं नु तद्विजानीयां किमु भाति विभाति वा ॥ १४ ॥

    आनंद सर्वोपरि अलौकिक, सुख परम परब्रह्म का,
    यह वचन वाणी कैसे वर्णित, करे वर्जन ब्रह्म का।
    प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष है या, मात्र अनुभव गम्य है,
    उसे ज्ञात ज्ञानी करे कैसे, गूढ़ अतिशय धन्य है॥ [ १४ ]

    न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं
    नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः ।
    तमेव भान्तमनुभाति सर्वं
    तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥ १५ ॥

    न ही सूर्य चन्द्र न तारा गण, विद्युत प्रकाशित है वहाँ,
    यह अग्नि लौकिक कैसे फ़िर होती प्रकाशित है यहाँ।
    सबमें विराजित है तथापि पृथक और निर्लिप्त है,
    अणु कण सकल ब्रह्माण्ड के तो दिव्य ज्योति प्रदीप्त हैं॥ [ १५ ]


    इति काठकोपनिषदि द्वितीयाध्याये द्वितीया वल्ली ॥

    1 टिप्पणी:

    Divya Narmada ने कहा…

    कठोपनिषद

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