ग़ज़ल एक परिचय: त्रिलोक राज कपूर
हमारी सहयोगी साईट ओपन बुक्स ऑनलाइन में ग़ज़ल लेखन पर केन्द्रित लेखमाला के प्रथम ४ अंशों का सार साभार प्रस्तुत है. पाठक इसे पढ़कर लाभ ले सकें यही अभीष्ट है. हम आभारी हैं श्री तिलकराज कपूर और ओबीओ के.
ग़ज़ल- एक पूर्ण ग़ज़ल में मत्ला, मक्ता और 5 से 11 शेर (बहुवचन अशआर) प्रचलन में ही हैं। यहॉं यह भी समझ लेना जरूरी है कि यदि किसी ग़ज़ल में सभी शेर एक ही विषय की निरंतरता रखते हों तो एक विशेष प्रकार की ग़ज़ल बनती है जिसे मुसल्सल ग़ज़ल कहते हैं हालॉंकि प्रचलन गैर-मुसल्सल ग़ज़ल का ही अधिक है जिसमें हर शेर स्वतंत्र विषय पर होता है। ग़ज़ल का एक वर्गीकरण और होता है मुरद्दफ़ या गैर मुरद्दफ़। जिस ग़ज़ल में रदीफ़ हो उसे मुरद्दफ़ ग़ज़ल कहते हैं अन्यथा गैर मुरद्दफ़।
बह्र- ग़ज़ल किसी न किसी बह्र पर आधारित होती है और किसी भी ग़ज़ल के सभी शेर उस बह्र का पालन करते हैं। बह्र वस्तुत: एक लघु एवं दीर्घ मात्रिक-क्रम निर्धारित करती है जिसका पालन न करने पर शेर बह्र से बाहर (खारिज) माना जाता है। यह मात्रिक-क्रम भी मूलत: एक या अधिक रुक्न (बहुवचन अर्कान) के क्रम से बनता है।
रुक्न- रुक्न स्वयं में दीर्घ एवं लघु मात्रिक का एक निर्धारित क्रम होता है, और ग़ज़ल के संदर्भ में यह सबसे छोटी इकाई होती है जिसका पालन अनिवार्य होता है। एक बार माहिर हो जाने पर यद्यपि रुक्न से आगे जुज़ स्तर तक का ज्ञान सहायक होता है लेकिन ग़ज़ल कहने के प्रारंभिक ज्ञान के लिये रुक्न तक की जानकारी पर्याप्त रहती है। फ़ारसी व्याकरण अनुसार रुक्न का बहुवचन अरकान है। सरलता के लिये रुक्नों (अरकान) को नाम दिये गये हैं। ये नाम इस तरह दिये गये हैं कि उन्हें उच्चारित करने से एक निर्धारित मात्रिक-क्रम ध्वनित होता है। अगर आपने किसी बह्र में आने वाले रुक्न के नाम निर्धारित मात्रिक-क्रम में गुनगुना लिये तो समझ लें कि उस बह्र में ग़ज़ल कहने का आधार काम आसान हो गया।
रदीफ़-आरंभिक ज्ञान के लिये यह जानना काफ़ी होगा कि रदीफ़ वह शब्दॉंश, शब्द या शब्द-समूह होता है जो मुरद्दफ़ ग़ज़ल के मत्ले के शेर की दोनों पंक्तियों में काफि़या के बाद का अंश होता है। रदीफ़ की कुछ बारीकियॉं ऐसी हैं जो प्रारंभिक ज्ञान के लिये आवश्यक नहीं हैं, उनपर बाद में उचित अवसर आने पर चर्चा करेंगे।
गैर मुरद्दफ़ ग़ज़ल में रदीफ़ नहीं होता है।
काफि़या-आरंभिक ज्ञान के लिये यह जानना काफ़ी होगा कि काफिया वह तुक है जिसका पालन संपूर्ण ग़ज़ल में करना होता है यह स्वर, व्यंजन अथवा स्वर और व्यंजन का संयुक्त रूप भी हो सकता है।
शेर- शेर दो पंक्तियों का मात्रिक-क्रम छंद होता है जो स्वयंपूर्ण पद्य-काव्य होता है अर्थात् हर शेर स्वतंत्र रूप से पूरी बात कहता है। शेर की प्रत्येक पंक्ति को ‘मिसरा’ कहा जाता है। शेर की पहली पंक्ति को मिसरा-ए-उला कहते हैं और दूसरी पंक्ति को मिसरा-ए-सानी कहते हैं। शेर के दोनों मिसरे निर्धारित मात्रिक-क्रम की दृष्टि से एक से होते हैं। जैसा कि उपर कहा गया शेर के मिसरे का मात्रिक-क्रम किसी न किसी ‘बह्र’ से निर्धारित होता है।
यहॉं एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि क्या कोई भी दो पंक्तियों का मात्रिक-क्रम-छंद शेर कहा जा सकता है? इसका उत्तर है ‘जी नहीं’। केवल मान्य बह्र पर आधारित दो पंक्ति का छंद ही शेर के रूप में मान्य होता है। यहॉं यह स्पष्ट रूप से समझ लेना जरूरी है कि किसी भी ग़ज़ल में सम्मिलित सभी शेर मत्ला (ग़ज़ल का पहला शेर जिसे मत्ले का शेर भी कहते हैं) से निर्धारित बह्र, काफिया व रदीफ का पालन करते हैं और स्वयंपूर्ण पद्य-काव्य होते हैं।
यहॉं एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि जब हर शेर एक स्वतंत्र पद्य-काव्य होता है तो क्या शेर स्वतंत्र रूप से बिना ग़ज़ल के कहा जा सकता है। इसका उत्त्तर ‘हॉं’ है; और नये सीखने वालों के लिये यही ठीक भी रहता है कि वो शुरुआत इसी प्रकार इक्का-दुक्का शेर से करें। इसका लाभ यह होता है कि ग़ज़ल की और जटिलताओं में पड़े बिना शेर कहना आ जाता है। स्वतंत्र शेर कहने में एक लाभ यह भी होता है कि मत्ले का शेर कहने की बाध्यता नहीं रहती है।
यहॉं एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि क्या कोई भी दो पंक्तियों का मात्रिक-क्रम-छंद शेर कहा जा सकता है? इसका उत्तर है ‘जी नहीं’। केवल मान्य बह्र पर आधारित दो पंक्ति का छंद ही शेर के रूप में मान्य होता है। यहॉं यह स्पष्ट रूप से समझ लेना जरूरी है कि किसी भी ग़ज़ल में सम्मिलित सभी शेर मत्ला (ग़ज़ल का पहला शेर जिसे मत्ले का शेर भी कहते हैं) से निर्धारित बह्र, काफिया व रदीफ का पालन करते हैं और स्वयंपूर्ण पद्य-काव्य होते हैं।
यहॉं एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि जब हर शेर एक स्वतंत्र पद्य-काव्य होता है तो क्या शेर स्वतंत्र रूप से बिना ग़ज़ल के कहा जा सकता है। इसका उत्त्तर ‘हॉं’ है; और नये सीखने वालों के लिये यही ठीक भी रहता है कि वो शुरुआत इसी प्रकार इक्का-दुक्का शेर से करें। इसका लाभ यह होता है कि ग़ज़ल की और जटिलताओं में पड़े बिना शेर कहना आ जाता है। स्वतंत्र शेर कहने में एक लाभ यह भी होता है कि मत्ले का शेर कहने की बाध्यता नहीं रहती है।
मत्ले का शेर या मत्ला- ग़ज़ल का पहला शेर मत्ले का शेर यह मत्ला कहलाता है जिसकी दोनों पंक्तियॉं समतुकान्त (हमकाफिया) होती हैं और वह तुक (काफिया) निर्धारित करती हैं जिसपर ग़ज़ल के बाकी शेर लिखे जाते हैं)। मत्ले के शेर में दोनों पंक्तियों में काफिया ओर रदीफ़ आते हैं।
मत्ले के शेर से ही यह निर्धारित होता है कि किस मात्रिक-क्रम (बह्र) का पूरी ग़ज़ल में पालन किया जायेगा।
मत्ले के शेर से ही रदीफ़ भी निर्धारित होता है।
ग़ज़ल में कम से कम एक मत्ला होना अनिवार्य है।
हुस्ने मतला और मत्ला-ए-सानी- किसी ग़ज़ल में आरंभिक मत्ला आने के बाद यदि और कोई मत्ला आये तो उसे हुस्न-ए-मत्ला कहते हैं। एक से अधिक मत्ला आने पर बाद में वाला मत्ला यदि पिछले मत्ले की बात को पुष्ट अथवा और स्पष्ट करता हो तो वह मत्ला-ए-सानी कहलाता है।
मक्ता और आखिरी शेर- ग़ज़ल के आखिरी शेर में यदि शायर का नाम अथवा उपनाम आये तो उसे मक्ते का शेर या मक्ता, अन्यथा आखिरी शेर कहते हैं।
तक्तीअ- ग़ज़ल के शेर को जॉंचने के लिये तक्तीअ की जाती है जिसमें शेर की प्रत्येक पंक्ति के अक्षरों को बह्र के मात्रिक-क्रम के साथ रखकर देखा जाता है कि पंक्ति मात्रिक-क्रमानुसार शुद्ध है। इसीसे यह भी तय होता है कि कहीं दीर्घ को गिराकर हृस्व के रूप में या हृस्व को उठाकर दीर्घ के रूप में पढ़ने की आवश्यकता है अथवा नहीं। विवादास्पद स्थितियों से बचने के लिये अच्छा रहता ग़ज़ल को सार्वजनिक करने के पहले तक्तीअ अवश्य कर ली जाये।
हुस्ने मतला और मत्ला-ए-सानी- किसी ग़ज़ल में आरंभिक मत्ला आने के बाद यदि और कोई मत्ला आये तो उसे हुस्न-ए-मत्ला कहते हैं। एक से अधिक मत्ला आने पर बाद में वाला मत्ला यदि पिछले मत्ले की बात को पुष्ट अथवा और स्पष्ट करता हो तो वह मत्ला-ए-सानी कहलाता है।
मक्ता और आखिरी शेर- ग़ज़ल के आखिरी शेर में यदि शायर का नाम अथवा उपनाम आये तो उसे मक्ते का शेर या मक्ता, अन्यथा आखिरी शेर कहते हैं।
तक्तीअ- ग़ज़ल के शेर को जॉंचने के लिये तक्तीअ की जाती है जिसमें शेर की प्रत्येक पंक्ति के अक्षरों को बह्र के मात्रिक-क्रम के साथ रखकर देखा जाता है कि पंक्ति मात्रिक-क्रमानुसार शुद्ध है। इसीसे यह भी तय होता है कि कहीं दीर्घ को गिराकर हृस्व के रूप में या हृस्व को उठाकर दीर्घ के रूप में पढ़ने की आवश्यकता है अथवा नहीं। विवादास्पद स्थितियों से बचने के लिये अच्छा रहता ग़ज़ल को सार्वजनिक करने के पहले तक्तीअ अवश्य कर ली जाये।
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काफिया
सभी उदाहरण मैनें आखर कलश पर प्रकाशित गोविन्द गुलशन जी की ग़ज़लों से लिये हैं।
एक मत्ला देखें:
'दिल में ये एक डर है बराबर बना हुआ
मिट्टी में मिल न जाए कहीं घर बना हुआ'
इसमें 'बना हुआ' तो मत्ले की दोनों पंक्तियों के अंत में आने वाले स्वतंत्र शब्द हैं इसलिये रदीफ़ हुए और हर शेर की दूसरी पंक्ति के अंत में आने आवश्यक हैं। अब रदीफ़ से पीछे की तरफ़ लौटें तो देखते हैं कि बराबर और घर दोनों मूल शब्द हैं और 'र' पर समाप्त हो रहे हैं, ऐसे में यूँ तो आभासित होता है कि 'र' पर समाप्त होने वाले शब्द काफि़या के रूप में प्रयोग किये जा सकते हैं लेकिन काफि़या में ध्वनि का महत्व देखें तो 'बराबर' और 'घर' दोनों के अंत में 'अर' ध्वनित हो रहा है ऐसे में ग़ज़ल के शेष अशआर में काफि़या के केवल ऐसे शब्द आ सकते हैं जिनके अंत में 'अर' ध्वनित हो रहा हो। ग़ज़ल में लिये गये शेष काफि़या पत्थर, मंज़र, पर, समंदर हैं।
'दिल में ये एक डर है बराबर बना हुआ
मिट्टी में मिल न जाए कहीं घर बना हुआ'
इसमें 'बना हुआ' तो मत्ले की दोनों पंक्तियों के अंत में आने वाले स्वतंत्र शब्द हैं इसलिये रदीफ़ हुए और हर शेर की दूसरी पंक्ति के अंत में आने आवश्यक हैं। अब रदीफ़ से पीछे की तरफ़ लौटें तो देखते हैं कि बराबर और घर दोनों मूल शब्द हैं और 'र' पर समाप्त हो रहे हैं, ऐसे में यूँ तो आभासित होता है कि 'र' पर समाप्त होने वाले शब्द काफि़या के रूप में प्रयोग किये जा सकते हैं लेकिन काफि़या में ध्वनि का महत्व देखें तो 'बराबर' और 'घर' दोनों के अंत में 'अर' ध्वनित हो रहा है ऐसे में ग़ज़ल के शेष अशआर में काफि़या के केवल ऐसे शब्द आ सकते हैं जिनके अंत में 'अर' ध्वनित हो रहा हो। ग़ज़ल में लिये गये शेष काफि़या पत्थर, मंज़र, पर, समंदर हैं।
यहॉं एक बात समझना जरूरी है वह है सिनाद दोष की जो व्यंजन पर कायम होने वाले काफिया के पूर्व के स्वर के अंतर से उत्पन्न होता है। उदाहरणस्वरूप अगर 'शेर' और 'घर' को मत्ले में काफि़या बनाया जाए तो 'अेर' और 'अर' के स्वराँतर के कारण सिनाद दोष उत्पन्न हो जाएगा। यही स्थिति नुक्ते के कारण भी पैदा होती है। माई नेम इज़ ख़ान में शाहरुख़ ख़ान इस नुक्ते को बार-बार समझाते रहें हैं। 'गान' और 'ख़ान' में 'न' के पूर्व आने वाले 'गा' और 'ख़ा' में स्वरॉंतर है। इसी प्रकार अनुनासिक स्वर का भी ध्यान रखा जाना आवश्यक होता है। 'अंदर', 'कलंदर' और 'बंदर' तो ठीक होंगे लेकिन इनके साथ न तो 'मंदिर' स्वीकार्य होगा और न ही 'गदर'। ऐसा क्यों नहीं हो सकता यह अब आप समझ सकते हैं ऐसा मेरा विश्वास है।
अब एक अन्य मत्ला देखें:
'इधर उधर की न बातों में तुम घुमाओ मुझे
मैं सब समझता हूँ पागल नहीं बनाओ मुझे'
इस मत्ले को देखकर अब आप यह तो सरलता से कह सकते हैं कि 'मुझे' रदीफ़ है लेकिन इस मत्ले में एक विशेष बात है जिसपर ध्यान देना जरूरी है; वह है काफि़या के शब्दों 'घुमाओ' और 'बनाओ' में।
दोनों मूल शब्द नहीं हैं और बढ़ाकर बनाये गये हैं और इसके अनुसार ऐसे शब्द जो बढ़े हुए रूप में 'आओ' देते हैं काफि़या के रूप में प्रयोग में लाये जा सकते हैं। ग़ज़ल में जाओ, बताओ, लाओ और जलाओ काफि़या के रूप में प्रयोग में लाये गये हैं इनके अलावा 'सताओ', 'सजाओ', 'खिलाओ', 'दिखाओ' आदि भी प्रयोग में लाये जा सकते हैं। यहॉं 'खिलाओ', 'दिखाओ' के प्रयोग में आपत्ति क्यों नहीं होगी यह सोचने का प्रश्न है। एक बार फिर प्रयोग में लाये गये काफि़या के शब्दों 'घुमाओ' और 'बनाओ' को देखें तो काफि़या 'ओ' पर स्थापित होकर 'आ' से स्वर साम्य प्राप्त कर रहा है और यही प्रकृति 'खिलाओ', 'दिखाओ' शब्दों में भी है अत: 'खिलाओ', 'दिखाओ' शब्दों में 'खि' और 'दि' तक बात जा ही नहीं रही है। काफि़या के स्वर अथवा व्यंजन से पूर्व के स्वर 'आ' पर काफि़या टिक गया और अब उसे अन्य किसी सहारे की ज़रूरत नहीं रही।
अब अगर इसी मत्ले के शेर में 'घुमाओ' के साथ 'जमाओ' लिया जाता तो क्या स्थिति बनती यह सोचने का विषय है। अनुभवी शायर/ शायरा के लिये तो कठिन न होगा लेकिन इस पर अपने विचार रखते हुए एक चर्चा हो जाये तो समझ में आये कि मेरी बात सही जगह पहुँच भी रही या नहीं।
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यह आलेख काफि़या का हिन्दी में निर्धारण और पालन करने की चर्चा तक सीमित है। उर्दू, अरबी, फ़ारसी या इंग्लिश और फ्रेंच आदि भाषा में क्या होता मैं नहीं जानता।
पिछले आलेख पर आधार स्तर के प्रश्न तो नहीं आये लेकिन ऐसे प्रश्न जरूर आ गये जो शायरी का आधार-ज्ञान प्राप्त हो जाने और कुछ ग़ज़ल कह लेने के बाद अपेक्षित होते हैं।
प्राप्त प्रश्नों पर तो इस आलेख में विचार करेंगे ही लेकिन प्रश्नों के उत्तर पर आने से पहले पहले कुछ और आधार स्पष्टता प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। इसके लिये एक और मत्ला देखते हैं (यह भी आखर कलश पर प्रकाशित गोविंद गुलशन जी की ग़ज़ल से ही है):
'रौशनी की महक जिन चराग़ों में है
उन चराग़ों की लौ मेरी आँखों में है'
इस ग़ज़ल में शेष काफि़या इस तरह हैं- गुलाबों, दराज़ों, आशियानों, किनारों, प्यालों, रेगज़ारों। इस मत्ले को देखते ही कुछ मित्र कह सकते हैं कि 'चराग़ों' और 'ऑंखों' में से बढ़ा हुआ अंश हटा देने से मूल शब्द 'चराग़' और 'ऑंख' शेष बचेंगे जो तुक में न होने से मत्ला दोषपूर्ण है।
उन चराग़ों की लौ मेरी आँखों में है'
इस ग़ज़ल में शेष काफि़या इस तरह हैं- गुलाबों, दराज़ों, आशियानों, किनारों, प्यालों, रेगज़ारों। इस मत्ले को देखते ही कुछ मित्र कह सकते हैं कि 'चराग़ों' और 'ऑंखों' में से बढ़ा हुआ अंश हटा देने से मूल शब्द 'चराग़' और 'ऑंख' शेष बचेंगे जो तुक में न होने से मत्ला दोषपूर्ण है।
ये जो बढ़ा हुआ अंश हटा कर काफि़या देखने की बात है; यह उतनी सरल नहीं है जितनी समझी जाती है। इसे समझने के लिये शायरी के इल्म से काफि़या संबंधी कुछ मूल तत्व समझना जरूरी होगा।
एक बात तो यह समझना जरूरी है कि मूल शब्द बढ़ता कैसे है।
कोई भी मूल शब्द या तो व्याकरण रूप परिवर्तन के कारण बढ़ेगा या शब्द को विशिष्ट अर्थ देने वाले किसी अन्य शब्द के जुड़ने से। एक और स्थिति हो सकती है जो स्वर-सन्धि की है (जैसे अति आवश्यक से अत्यावश्यक)। इन स्थितियों को लेकर काफि़या पर बहुत कुछ कहा गया है लेकिन मूल प्रश्न यह है कि काफि़या निर्धारित कैसे हो सकता है और इसमें तो कोई विवाद नहीं कि काफि़या स्वर-साम्य का विषय है न कि व्यंजन साम्य का। कुछ ग़ज़लों में जो व्यंजन-साम्य प्रथमदृष्ट्या दिखता है वह वस्तुत: स्वर-साम्य ही है और व्यंजन के साथ 'अ' के स्वर पर काफिया बनने के कारण व्यंजन-साम्य दिखता है।
काफि़या से जुड़े अक्षरों में एक तो होता है हर्फ़े-रवी (हिन्दी में व्यंजन) यानि काफि़या का वह व्यंजन जिसके साथ स्वर लेते हुए काफि़या निर्धारित किया जाता है। दूसरा होता है हर्फ़े-इल्लत यानि स्वर। हिन्दी में 'अ' 'आ', 'इ', 'ई', 'उ', 'ऊ', 'ए', 'एै', 'ओ', 'औ', 'अं', और 'अ:' स्वर हैं।
सुविधा के लिये कुछ परिभाषायें निर्धारित कर लेते हैं जिससे आलेख में कोई भ्रामक स्थिति न बने। हर्फ़े-रवी को हम नाम दे देते हैं काफि़या-व्यंजन, काफि़या-व्यंजन के पूर्व आने वाले स्वर को हम नाम दे देते हैं पूर्व-स्वर और इसी प्रकार काफि़या-व्यंजन के पश्चात् आने वाले स्वर को हम नाम दे देते हैं पश्चात्-स्वर। एक और परिभाषा यहॉं समझना जरूरी है वह है तहलीली रदीफ़ की। तहलील उर्दू शब्द है जिसका अर्थ है विलीन, डूबी हुआ, घुल मिल गया और यह रदीफ़ का वह अंश होती है जो काफि़या के शब्द में काफि़या के बाद मौज़ूद हो। अगर काफि़या के शब्द में कुछ अंश ऐसा हो जो रदीफ़ का आभास दे तो वह अंश तहलीली रदीफ़ हो जाता है। जैसे 'कल का' और 'तहलका' काफि़या के स्थान पर आ रहे हों तो 'तहलका' का 'का' 'तहलका' शब्द में विलीन हो जाने के कारण तहलीली रदीफ़ हो जायेगा और 'कल का' में आने वाला 'का' रदीफ़। इस बात को अच्छी तरह समझ लेना जरूरी है अन्यथा बढ़ाये हुए अंश को लेकर आने वाली बहुत सी स्थितियॉं समझ में नहीं आयेंगी।
यहॉं यह भी समझ लेना जरूरी है कि 'अ' से 'अ:' तक के स्वर में 'अ्' व्यंजन रूप में उपस्थित है। 'क', 'ख', 'ग' आदि जो भी व्यंजन हम देखते हैं उनमें 'अ' पश्चात्-स्वर के रूप में स्थित है। व्यंजन के साथ 'अ' से भिन्न स्वर आने की स्थिति में काफि़या का निर्धारण काफि़या-व्यंजन के साथ पश्चात्-स्वर लेते हुए अथवा स्वतंत्र रूप से केवल पश्चात्-स्वर पर किया जा सकता है।
उदाहरण के लिये 'नेक', 'केक' में यद्यपि 'न' और 'क' दो अलग व्यंजन हैं लेकिन इनपर 'ए' स्वर के साथ काफि़या निर्धारित होगा 'अे' स्वर और ऐसा करने पर किसी शेर में फेंक नहीं आ सकता क्यूँकि 'क' 'अ' स्वर का है और उसके पहले के स्वर 'ऐ' का ध्यान रखा जाना जरूरी है यह ऐं नहीं हो सकता।
चराग़ों, ऑंखों, गुलाबों, दराज़ों, आशियानों, किनारों, प्यालों में स्वरसाम्य 'ओं' पर स्थापित हो रहा है और ऐसे में शायर को यह अधिकार है कि वह मत्ले में काफि़यास्वरूप केवल स्वरसाम्य ले (जैसा कि उपर लिये गये गोविन्द गुलशन जी के मत्ले की ग़ज़ल में लिया गया है)। यदि मत्ले के शेर में 'दुकानों', 'आशियानों' काफि़या के शब्द लिये जाते हैं तो किसी शेर में 'मकानों' काफि़या लिया जाना ठीक होगा लेकिन अगर मत्ले में 'दुकानों' के साथ 'मकानों' ले लिया गया तो 'नों' तहलीली रदीफ़ हो जायेगा और काफि़या 'क' व्यंजन के साथ 'आ' के स्वर पर निर्धारित हो जायेगा। अब अगर मत्ले के शेर में 'दवाओं' और 'अदाओं' काफिया के शब्द ले लिये गये तो 'ओं' तहलीली रदीफ़ हो जायेगा और काफि़या 'आ' निर्धारित हो जायेगा। अर्थ यह है कि काफि़या में मूलत: दोष जैसा कुछ नहीं होता दोष होता है काफि़या निर्धारण और पालन में। जिस ईता दोष का प्रश्न उठाया गया है वह काफि़या के निर्धारण अथवा पालन में त्रुटि के कारण होता है।
अब एक उदाहरण लेते हैं 'नज़र' और 'क़मर' का (अभी ज़ के नुक्ते को छोड़ दें, वरना अनावश्यक रूप से एक ऐसे विषय में उतर जायेंगे जो हिन्दी में महत्व नहीं रखता है)। 'नज़र' और 'क़मर' में 'अ' के स्वर के साथ 'र' काफिया-व्यंजन है और यही काफि़या रहेगा। यानि काफि़या में ऐसे शब्द आ सकेंगे जो 'र' में अंत होते हों। अगर मत्ले के शेर की दोनों पंक्तियों में काफिया-व्यंजन के पूर्व समान स्वर आ रहे हैं तो इनका पालन सभी अश'आर में करना होगा।
काफि़या की एक मूल आवश्यकता और होती है कि यह पूर्ण शब्द नहीं हो सकता। पूर्ण शब्द होने पर यह काफि़या न होकर रदीफ़ हो जायेगा। ये तो चकरा देने वाली स्थिति पैदा हो रही है लेकिन ये काफि़या का नियम है और इसका पालन किये बिना ग़ज़ल नहीं कही जा सकती है। काफि़या के शब्द में कम से कम एक हर्फ़ ऐसा होना आवश्यक है जो काफि़या से पहले बचता हो। लेकिन मत्ले के शेर में अगर एक काफि़या स्वर से प्रारंभ हो रहा हो तो वह संभव है जैसे कि 'आग' और 'जाग'। यहॉं लेकिन यह भी सावधानी आवश्यक है कि यदि एक पंक्ति में स्वर से काफि़या का शब्द आरंभ हो रहा है तो दूसरी पंक्ति में काफि़या के स्थान पर ऐसा शब्द नहीं आना चाहिये जिसमें सन्धि विच्छेद से ऐसा तहलीली रदीफ़ प्राप्त हो रहा हो जो स्वर से आरंभ होने वाला काफि़या का शब्द हो। इसका एक उदाहरण है 'आब' और 'गुलाब' । गुलाब का सन्धि विच्छेद गुल्+आब मान्य मानते हुए देखें तो एक पंक्ति में 'आब' स्पष्ट रदीफ़ के रूप में आ जायेगा और देसरी पंक्ति में तहलीली रदीफ़़ के रूप में ऐसी स्थिति में 'आब' काफि़या का शब्द नहीं रह जायेगा।
काफि़या के कुछ और उदाहरण देख लेते हैं। जैसे 'करो' और 'मरो' का प्रयोग मत्ले में दोषरहित होगा क्योंकि इनमें 'रो' अलग करने पर क्रमश: 'क' और 'म' आरंभ में छूट रहे हैं लेकिन काफि़या 'र' व्यंजन के साथ 'ओ' स्वर पर कायम हो रहा है। इसी प्रकार 'झंकार' एवं 'टंकार' का प्रयोग भी सही रहेगा क्योंकि इनमें 'अंकार' अलग करने पर क्रमश: 'झ' और 'ट' आरंभ में छूट रहे हैं लेकिन 'कार' के पहले 'अं' का स्वर आ रहा है; वस्तुत: इनमें 'कार' तो दोनों पंक्तियों में तहलीली रदीफ़ की हैसियत रखता है।
अब लौटें गोविन्द गुलशन जी की ग़ज़ल के मत्ले पर जिसमें काफि़या 'ओं' स्वर पर बन रहा है। काफि़या स्वयं ही स्वर पर कायम होने के कारण बढ़ा हुआ अंश हटा देने की बात निरर्थक है। और ऐसे में जो काफि़या के शब्द लिये गये हैं वो सही हैं।
हॉं यह अवश्य है कि अगर मत्ले में 'किताबों' और 'जुराबों' या 'गुलाबों' ले लिया जाता तो काफि़या कायम होता 'आ' के साथ तहलीली रदीफ़ 'बों' और फिर बाकी अश'आर में दराज़ों, आशियानों, किनारों, प्यालों, रेगज़ारों का प्रयोग नहीं हो पाता।
काफि़या पर कैसी-कैसी बहस हो सकती हैं इसके कई उदाहरण आपके पास होंगे, जिनमें तर्क, वितर्क सभी के रूप देखने को मिल जायेंगे। अधिकॉंश को आप पुन: देखेंगे तो पायेंगे असंगत और आधारहीन कुतर्क बहुत दिये जाते हैं। इतना तो आप समझते ही होंगे कि तर्क और वितर्क व्यक्ति की समझ पर होते हैं और उसके ज्ञान के स्तर पर निर्भर रहते हैं लेकिन कुतर्क के लिये न तो समझ की जरूरत होती है और न ही ज्ञान की; बस एक हठ पर्याप्त रहता है। मेरा विशेष निवेदन है कि कहीं अगर आप काफि़या की बहस में उलझ जायें तो निराधार बहस में न पड़ें, तर्क-वितर्क तक सीमित रहें, कुतर्क न दें। ज्ञान तभी सार्थक है जब विनम्रता से तर्क-वितर्क रखता हो और त्रुटि होने पर सहज स्वीकार की स्थिति बने।
अब मैं गोविन्द गुलशन जी की कुछ और ग़ज़लों से मक्ते और प्रयोग में लाये गये काफि़या दे रहा हूँ जिससे इस विषय को समझने में सरलता रहे।
'लफ़्ज़ अगर कुछ ज़हरीले हो जाते हैं
होंठ न जाने क्यूँ नीले हो जाते हैं'
इसके साथ बतौर काफि़या बर्छीले, गीले, दर्दीले, ख़र्चीले, रेतीले, पीले उपयोग में लाये गये हैं।
होंठ न जाने क्यूँ नीले हो जाते हैं'
इसके साथ बतौर काफि़या बर्छीले, गीले, दर्दीले, ख़र्चीले, रेतीले, पीले उपयोग में लाये गये हैं।
'ग़म का दबाव दिल पे जो पड़ता नहीं कभी
सैलाब आँसुओं का उमड़ता नहीं कभी'
सैलाब आँसुओं का उमड़ता नहीं कभी'
इसके साथ बतौर काफि़या बिछड़ता, उखड़ता, पड़ता, उमड़ता उपयोग में लाये गये हैं।
सम्हल के रहिएगा ग़ुस्से में चल रही है हवा
मिज़ाज गर्म है मौसम बदल रही है हवा
इसके साथ बतौर काफि़या पिघल, मुसलसल, टहल, चल, मचल उपयोग में लाये गये हैं।
मिज़ाज गर्म है मौसम बदल रही है हवा
इसके साथ बतौर काफि़या पिघल, मुसलसल, टहल, चल, मचल उपयोग में लाये गये हैं।
'इक चराग़ बुझता है इक चराग़ जलता है
रोज़ रात होती है,रोज़ दिन निकलता है'
इसके साथ बतौर काफि़या टहलता, निकलता, बदलता, चलता, जलता उपयोग में लाये गये हैं।
और एक ख़ास ग़ज़ल से जिसमें दो रदीफ़ और दो काफि़या प्रयोग में लाये गये हैं।
'उसकी आँखों में बस जाऊँ मैं कोई काजल थोड़ी हूँ
उसके शानों पर लहराऊँ मैं कोई आँचल थोड़ी हूँ
इस ग़ज़ल में 'मैं कोई' तथा 'थोड़ी हूँ' के साथ बतौर काफि़या बहलाऊँ तथा पागल, जाऊँ तथा पीतल, पाऊँ तथा पल, मचाऊँ तथा पायल, उपयोग में लाये गये हैं।
उसके शानों पर लहराऊँ मैं कोई आँचल थोड़ी हूँ
इस ग़ज़ल में 'मैं कोई' तथा 'थोड़ी हूँ' के साथ बतौर काफि़या बहलाऊँ तथा पागल, जाऊँ तथा पीतल, पाऊँ तथा पल, मचाऊँ तथा पायल, उपयोग में लाये गये हैं।
एक प्रश्न यह उठ सकता है कि मैनें गोविन्द गुलशन जी की ग़ज़लों से ही उदाहरण कयों लिये इसलिये मैं यह बताना आवश्यक समझता दूँ कि आखर कलश पर दी गयी जानकारी के अनुसार गोविन्द गुलशन जी को काव्य-दीक्षा गुरुवर कुँअर बेचैन /गुरु प्रवर कॄष्ण बिहारी नूर ( लख्नवी ) के सान्निध्य में प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ और इसका प्रभाव आप स्पष्ट रूप से उनकी ग़ज़लों में देख सकते हैं.
ग़ज़ल में काफि़या और रदीफ़ के निर्वाह को और अधिक स्पष्टता से समझने के लिये आप उनकी और ग़ज़लें www.kavitakosh.org/govindgulshan पर पढ़ सकते हैं।
अब आते हैं प्रश्नोत्तर पर
पिछली बार मैनें एक प्रश्न उठाया था कि अगर मत्ले के शेर में 'घुमाओ' के साथ 'जमाओ' लिया जाता तो क्या स्थिति बनती। इस पर मिश्रित प्रतिक्रिया प्राप्त हुई है। इस में वस्तुत: काफि़या कायम हो रहा है हर्फ़े रवी 'म' के साथ बाद में आने वाले स्वर 'आ' पर अत: इसमें ऐसे शब्द काफि़या के रूप में उपयोग में लाये जा सकते हैं जो 'माओ' पर समाप्त हो रहे हों। चूँकि काफिया-व्यंजन 'म' के साथ बाद में 'आ' का स्वर है हमें 'म' के पहले के स्वर को काफि़या दोष के संदर्भ में देखने की कोई आवश्यकता नहीं है। 'घुमाओ' और 'जमाओ' का 'ओ' तो वस्तुत: तहलीली रदीफ़ है।
अब यह तो समझ में आ सकता है कि 'मिटो' और 'पिटो' मत्ले में ले लेने से काफि़या 'टो' के पूर्व 'इ' के साथ बन रहा है अत: अन्य शेर में 'सटो' नहीं लिया जा सकेगा जबकि मत्ले में 'सटो' और 'मिटो' ले लिया जाता तो काफि़या सिर्फ 'टो रह जाता और अन्य शेर में 'मिटो' भी लिया जा सकता है।
मुझे लगता है राजीव के प्रश्न का उत्तर भी इसमें मिल गया है। मिला या नहीं?
'दुआओं' और 'राहों' में ईता दोष नहीं है अगर आप यह देखें कि दुआअ्+ओं और राह्+ओं में काफि़या ओं पर स्थापित हो रहा है और ये 7-अप फ़ंडा है, सीधी-सादी बात सीधी सादे तरीके से, वरना उलझे रहें बढ़े हुए अंश, बढ़े हुए अंश के व्याकरण भेद, मूल शब्द आदि में।
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काफि़या या तो मूल शब्द पर निर्धारित किया जाता है या उसके योजित स्वरूप पर। पिछली बार उदाहरण के लिये 'नेक', 'केक' लिये गये थे जिनमें सिद्धान्तत: मूल शब्द के अंदर नहीं घुसना चाहिये काफि़या मिलान के लिये और काफि़या 'क' पर निर्धारित मानना चाहिये लेकिन फिर भी हमने 'न' और 'क' पर 'ए' स्वर के साथ काफि़या निर्धारिण की स्थिति देखी। और यह देखा कि ऐसा करने पर किसी शेर में फेंक नहीं आ सकता क्यूँकि 'क' के पूर्व-स्वर 'ऐ' का ध्यान रखा जाना जरूरी है यह ऐं नहीं हो सकता और अगर ऐसा किया जाता है तो यह एक गंभीर चूक मानी जायेगी जिसे बड़ी ईता या ईता-ए-जली कहा जाता है। अत: एक सुरक्षित काफि़या निर्धारण तो यही रहेगा कि मूल शब्द के अंतिम व्यंजन अथवा व्यंजन+पश्चात स्वर पर काफि़या निर्धारित कर दिया जाये जिससे पालन दोष की संभावनायें कम हों। जैसे 'थका' 'रुका' जो क्रमश: मूल शब्द 'थक' और 'रुक' के रूप हैं।
इसका और विस्तृत उदाहरण देखें; 'पक' और 'महक' मत्ले में काफि़या रूप में लिये जाने से 'पलक', 'चमक', 'चहक' आदि का उपयोग तो शेर में किया जा सकेगा लेकिन मत्ले में 'दहक' और 'महक' काफि़या के रूप में ले लेने से सभी काफि़या 'हक' पर समाप्त होंगे अन्यथा काफि़या पालन में दोष की स्थिति बन जायेगी। काफि़या पालन के दोष गंभीर माने जाते हैं।
एक अन्य उदाहरण देखें कि अगर आपने 'बस्ते', 'चलते' मत्ले में काफि़या के रूप में लिये तो बाकी अश'आर में 'ते' पर काफि़या अंत होगा लेकिन 'ढलते', 'चलते' मत्ले में काफि़या के रूप में लिये तो बाकी अश'आर में ऐसे मूल शब्द लेने होंगे जो 'ल' पर समाप्त होते हों और जिनके अंत में 'ते' बढ़ा हुआ हो।
यहॉं एक बात समझना जरूरी है कि अगर आपने 'ढहते', 'चलते' मत्ले में काफि़या के रूप में लिये तो काफि़या में ईता-ए-ख़फ़ी या छोटी ईता का दोष आ जायेगा। इसे समझने की कोशिश करते हैं। हो यह रहा है कि दोनों शब्दों में 'ते' मूल शब्द पर बढ़ा हुआ अंश है और काफि़या दोष देखने के लिये इसे हटाकर देखने का नियम है जो यह कहता है कि मत्ले में काफि़या मूल शब्द के स्तर पर मिलना चाहिये और ऐसा नहीं हो रहा है तो छोटी ईता का दोष आ जायेगा।
इसका एक हल यह रहता है कि एक पंक्ति का काफि़या ऐसा लें जो बढ़े हुए अंश पर समाप्त हो रहा हो और दूसरी पंक्ति में काफि़या का शब्द मूल शब्द हो। जैसे कि 'चम्पई' और 'ढूँढती' जिसमें 'चम्पई' मूल शब्द है और 'ढूँढती' है 'ढूँढ' पर 'ती' बढ़ा हुआ अंश। इस उदाहरण में काफि़या होगा 'ई' अथवा इसका स्वर स्वरूप जैसा कि 'ती' में आया है। अब इसमें आदमी, जि़न्दगी आदि सभी शब्द काफि़या हो सकते हैं।
एक अन्य हल होता है कि काफि़या दोनों पंक्तियों में मूल शब्द पर ही कायम किया जाये।
जितना मैनें समझा है उसके अनुसार मत्ले में काफि़या निर्धारण में ईता दोष छोटा माना जाता है और अगर मत्ले में काफि़या निर्धारण ठीक किया गया है लेकिन उसका सही पालन नहीं किया गया है तो वह दोष गंभीर माना जाता है।
अगर मत्ले के शेर में ही बढ़े हुए अंश पर काफि़या निर्धारित किया जाये तो ईता दोष आंशिक रहकर छोटी ईता या ईता-ए-ख़फ़ी हो जाता है। जबकि मत्ले में काफि़या निर्धारण मूल शब्द पर किया गया हो लेकिन उसके पालन में किसी शेर में ग़लती हुई हो तो ईता दोष गंभीर होकर बड़ी ईता या ईता-ए-जली हो जाता है।
हिन्दी ग़ज़लों में छोटी ईता का दोष बहुत सामान्य है और इसे कम लोग पहचान पाते हैं इसलिये इस पर चर्चा कम होती है।
अब लेते हैं प्रश्न और उनके उत्तर:
१. ईता दोष की परिभाषा क्या हुई? उदाहरण सहित समझाएं.
इसके उदाहरण और विवरण उपर दे दिये गये हैं।
२. अगर 'चिरागों' और 'आँखों' में ईता दोष नहीं है क्योंकि काफिया स्वर का है(ओं का), तो फिर 'दोस्ती' और 'दुश्मनी' में ईता दोष क्यों हुआ? यहाँ भी तो काफिया 'ई' के स्वर पर निर्धारित हुआ. जो समझ आ रहा है वो यह कि 'चिरागों' और 'आँखों' में केवल शब्दों का बहुवचन किया है और शब्द का मूल अर्थ नहीं बदला है जबकि 'दोस्ती' और 'दुश्मनी' में 'ई' बढ़ाने से शब्द का अर्थ ही बदल गया है. क्या मेरा यह तर्क ठीक है?
अब जब हम काफि़या को समझने का प्रयास कर चुके हैं, दोष पर भी बात कर लेना अनुचित नहीं होगा। 'चिरागों' और 'आँखों' को मत्ले में लेना निश्चित् तौर छोटी ईता का दोष है। दोनों के मूल शब्द 'चिराग' और 'आँख' मत्ले में काफि़या नहीं हो सकते। यही स्थिति 'दोस्ती' और 'दुश्मनी' की है। इनमें भी मूल 'दोस्त' और 'दुश्मन' मत्ले में काफि़या नहीं हो सकते।
३. 'गुलाब' और 'आब' में अगर दोष है तो 'बदनाम' और 'नाम' के काफियों में दोष क्यों नहीं है?
'नाम' और 'बदनाम' में 'नाम' शब्द पूरा का पूरा बदनाम में तहलीली रदीफ़ के रूप में है इसलिये 'नाम' इस प्रकरण में काफि़या नहीं हो सकता।
अब इसे अगर हिन्दी के नजरिये से देखें और कहें कि हिन्दी में बदनाम एक ही शब्द के रूप में लिया गया है तो बाकी काफि़या केवल वही शब्द हो सकेंगे जो 'नाम' में अंत होते हैं। जैसे हमनाम, गुमनाम आदि।
अब इसे अगर हिन्दी के नजरिये से देखें और कहें कि हिन्दी में बदनाम एक ही शब्द के रूप में लिया गया है तो बाकी काफि़या केवल वही शब्द हो सकेंगे जो 'नाम' में अंत होते हैं। जैसे हमनाम, गुमनाम आदि।
4. सिनाद के ऐब पर पर भी थोड़ा विस्तार से बताएं|
सिनाद दोष मत्ले में होने की संभावना रहती है जब काफि़या के मूल शब्द में जिस व्यंजन पर काफि़या निर्धारित किया जाये वह दोनों पंक्तियों में स्वरॉंतर रखता हो।
जैसे 'रुक' और 'थक' में स्वरॉंतर है। 'छॉंव' और 'पॉंव' तो ठीक होंगे लेकिन 'पॉंव' और 'घाव' स्वरॉंतर रखते हैं।
5. 'झंकार' एवं 'टंकार' का प्रयोग भी सही रहेगा ,,, वस्तुत: इनमें 'कार' तो दोनों पंक्तियों में तहलीली रदीफ़ की हैसियत रखता है।
'घुमाओ' और 'जमाओ' का 'ओ' तो वस्तुत: तहलीली रदीफ़ है।
इन् दो बात में विरोधाभास दिख रहा है 'झंकार' एवं 'टंकार' में "कार" तहलीली रदीफ़ है तो 'घुमाओ' और 'जमाओ' में केवल "ओ" क्यों "माओ" तहलीली रदीफ़ होना चाहिए ?
उत्तर:
इसे इस रूप में देखें कि घु और ज तो काफि़या के रूप मे स्वीकार नहीं हो सकते; ऐसी स्थिति में काफि़या 'मा' पर स्थापित होगा और शायर को हर काफि़या 'माओ' के साथ ही रखना पड़ेगा जबकि 'झंकार' एवं 'टंकार' में 'अं' स्वर पर काफि़या मिल रहा है। काफि़या निर्धारण में आपको मत्ले की दोनों पंक्तियों में आने वाले शब्दों में पीछे की ओर लौटना है और जहॉं काफि़या मिलना बंद हो जाये वहॉं रुक जाना है, इसके आगे का काफि़या-व्यंजन और स्वर मिलकर काफि़या निर्धारित करेंगे और अगर केवल स्वर मिल रहे हैं तो केवल स्वर पर ही काफि़या निर्धारित होगा।
शुद्ध काफि़या की नज़र से देखेंगे तो 'झंकार' एवं 'टंकार' के साथ ग़ज़ल में सभी काफि़या 'अंकार' में अंत होंगे। अगर केवल 'र' पर या 'आर' पर समाप्त किये जाते हैं वह पालन दोष हो जायेगा।
6. काफिया और रदीफ़ की चर्चा में बहुत कुछ नयी जानकरी मिली, मेरा प्रश्न है मतले के पहले मिसरे में काफिया में नुक़ता हो बाकी शेरों में भी क्या नुक़ते वाले शब्द आयेंगे या नुक़ते रहित जैसे सज़ा, बजा
उत्तर:
यहॉं महत्वपूर्ण यह है कि नुक्ते से स्वर बदल रहा है कि नहीं। बदलता है। ऐसी स्थिति में इस स्वर का प्रभाव तो काफि़या पर जा रहा है और काफि़या नुक्ते के स्वर से व्यंजन का घनत्व कम होता है उच्चारित करके देखें। आपने जो उदाहरण दिये इनमें काफि़या नुक्ते के व्यंजन के साथ 'आ' स्वर पर निर्धारित हो रहा है। 'सज़ा' और शायद आपने 'बज़ा' कहना चाहा है जो त्रुटिवश 'बजा' टंकित हो गया है। अगर 'सज़ा' और 'बज़ा' लेंगे तो नुक्ते का पालन करना पड़ेगा। अगर 'सज़ा' और 'बजा'' लेंगे तो नुक्ते का पालन नहीं करना पड़ेगा क्योंकि फिर 'ज' और 'ज़' में साम्य न होने से काफि़या केवल 'ओ' के स्वर पर रह जायेगा।
7. झंकार और टंकार में स्वर साम्य है और "अंकार" दोनों में सामान रूप से विद्यमान है इसलिए "अंकार" काफिया होगा पर टंकार और संस्कार में स्वर साम्य तो है पर इस बार केवल "कार" ही उभयनिष्ट है अतः इस दशा में "कार" को ही काफिया के तौर पर लिया जाएगा. इसी तरह आकार और आभार में स्वर साम्य है पर केवल "आर" उभय्निष्ट है अतः "आर" ही काफिया होगा.
नुक्ते से सावधान रहना बहुत जरूरी है क्योंकि नुक्ते का प्रयोग उर्दू लब्ज़ के मायने भी बदल देता है जैसे अज़ीज़ और अजीज़. यहाँ पहले का अर्थ प्रिय, प्यारा है जब की दूसरे का अर्थ है नामर्द, नपुंसक. हिन्दी में ग़ज़ल लिखते वक्त उर्दू शब्दों का प्रयोग बहुत ही सावधानी से किया जाना चाहिए.
उत्तर:
इसमें यह देखना जरूरी है कि झंकार और टंकार स्वयंपूर्ण मूल शब्द हैं अथवा नहीं। झंकार और टंकार और हुंकार क्रमश: झं, टं और हुं की ध्वनि उत्पन्न करने की क्रिया हैं। संस्कार मूल शब्द है टंकार के साथ मत्ले में काफि़या के रूप में आ सकता है। ब्लॉग पर मेरा उत्तर अपूर्ण अध्ययन पर था। बाद में शब्दकोष देखने से स्पष्ट हुआ।
आभार: ओपन बुक्स ऑन लाइन
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