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शुक्रवार, 25 मार्च 2011

श्वेताश्वतर उपनिषद्- काव्यानुवाद : मृदुल कीर्ति


 
श्वेताश्वतर उपनिषद्- काव्यानुवाद : मृदुल कीर्ति  



शान्ति मंत्र

ॐ सहनाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्वि नावधीतमस्तु । मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

रक्षा करो, पोषण करो, गुरु शिष्य की प्रभु आप ही,
ज्ञातव्य ज्ञान हो तेजमय, शक्ति मिले अतिशय मही।
न हों पराजित हम किसी से ज्ञान विद्या क्षेत्र में,
हो त्रिविध तापों की निवृति, अशेष प्रेम हो नेत्र में।

किं कारणं ब्रह्म कुतः स्म जाता जीवाम केन क्व च संप्रतिष्ठा।
अधिष्ठिताः केन सुखेतरेषु वर्तामहे ब्रह्मविदो व्यवस्थाम्॥१॥
क्या इस जगत का मूल कारण, ब्रह्म कौन व् हम सभी?
उत्पन्न किससे, किसमें जीते, किसके हैं आधीन भी?
किसकी व्यवस्था के अनंतर, दुःख सुख का विधान है,
कथ कौन संचालक जगत का, कौन ब्रह्म महान है? [ १ ]

कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्या।
संयोग एषां न त्वात्मभावा-दात्माप्यनीशः सुखदुःखहेतोः॥२॥

कहीं मूल कारण काल को कहीं प्रवृति को कारण कहा,
कहीं कर्म कारण तो कहीं, भवितव्य को माना महा,
पाँचों महाभूतों को कारण, तो कहीं जीवात्मा,
पर मूल कारण और कुछ, जिसे जानता परमात्मा। [ २ ]

ते ध्यानयोगानुगता अपश्यन् देवात्मशक्तिं स्वगुणैर्निगूढाम्।
यः कारणानि निखिलानि तानि कालात्मयुक्तान्यधितिष्ठत्येकः॥३॥

वेदज्ञों ने तब ध्यान योग से ब्रह्म का चिंतन किया,
उस आत्म भू अखिलेश ब्रह्म को, जाना जब मंथन किया।
परब्रह्म त्रिगुणात्मक लगे, पर सत्व, रज, तम से परे,
संपूर्ण कारण तत्वों पर, एकमेव ही शासन करे। [ ३ ]

तमेकनेमिं त्रिवृतं षोडशान्तं शतार्धारं विंशतिप्रत्यराभिः।
अष्टकैः षड्भिर्विश्वरूपैकपाशं त्रिमार्गभेदं द्विनिमित्तैकमोहम्॥४॥

यह विश्व रूप है चक्र उसका , एक नेमि केन्द्र है,
सोलह सिरों व् तीन घेरों, पचास अरों में विकेन्द्र है।
छः अष्टको बहु रूपमय और त्रिगुण आवृत प्रकृति है,
इस विश्व चक्र में सम अरों, अंतःकरण की प्रवृति है। [ ४ ]

पञ्चस्रोतोम्बुं पञ्चयोन्युग्रवक्रां पञ्चप्राणोर्मिं पञ्चबुद्ध्यादिमूलाम्।
पञ्चावर्तां पञ्चदुःखौघवेगां पञ्चाशद्भेदां पञ्चपर्वामधीमः॥५॥

यदि विश्व रूप नदी का है, तो स्रोत पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ,
दुर्गम गति व् प्रवाह अथ, पुनि जन्म मृत्यु की उर्मियाँ।
ज़रा, जन्म, मृत्यु, गर्भ, रोग, के दुःख जीवन विकट है,
अज्ञान, मद, तम, राग, द्वेष ये क्लेश पञ्च विधि प्रकट हैं। [ ५ ]

सर्वाजीवे सर्वसंस्थे बृहन्ते अस्मिन् हंसो भ्राम्यते ब्रह्मचक्रे।
पृथगात्मानं प्रेरितारं च मत्वा जुष्टस्ततस्तेनामृतत्वमेति॥६॥

है जीविका आश्रय जगत, परब्रह्म प्रभु परमात्मा,
स्व कर्मों के अनुरूप घूमे, चक्र में जीवात्मा।
वह ब्रह्म में यदि लीन हो तो, जन्म मृत्यु से मुक्त हो,
होकर अमियमय शुद्ध, शाश्वत ब्रह्म से संयुक्त हो। [६]

उद्गीतमेतत्परमं तु ब्रह्म तस्मिंस्त्रयं सुप्रतिष्ठाऽक्षरं च।
अत्रान्तरं ब्रह्मविदो विदित्वा लीना ब्रह्मणि तत्परा योनिमुक्ताः॥७॥

परब्रह्म जो वेदों में वर्णित, सर्व श्रेष्ठ है अमर है,
उसमें ही तीनों लोक स्थित, वही मुक्ति की डगर है।
उस हृदय स्थित ब्रह्म को, वेदज्ञ समुचित जानते,
उसके परायण लीन हो अथ मुक्ति पथ पहचानते। [७]

संयुक्तमेतत् क्षरमक्षरं च व्यक्ताव्यक्तं भरते विश्वमीशः।
अनीशश्चात्मा बध्यते भोक्तृ-भावाज् ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः॥८॥

चेतन व जड़ संयोग से, अव्यक्त -व्यक्त जो जग यहाँ,
धारक व पोषक ब्रह्म तो, जीवात्मा भोक्ता यहाँ।
विषयों के भोगों से, प्रकृति आधीन बंधता जीव है,
हो प्रभु अहैतु की कृपा, तो मुक्त होता जीव है। [८]

ज्ञाज्ञौ द्वावजावीशनीशावजा ह्येका भोक्तृभोग्यार्थयुक्ता।
अनन्तश्चात्मा विश्वरूपो ह्यकर्ता त्रयं यदा विन्दते ब्रह्ममेतत्॥९॥

परब्रह्म जीव व् प्रकृति में, परमात्मा का तत्व है,
तीनों अनादि अजन्मा पर, परब्रह्म अद्भुत सत्व है।
यह विश्व रूप विराट का, निष्काम ब्रह्म की वृति है,
मानव जो जाने मर्म प्रवृति, जन्म मृत्यु से निवृति है। [९]

क्षरं प्रधानममृताक्षरं हरः क्षरात्मानावीशते देव एकः।
तस्याभिध्यानाद्योजनात्तत्त्व भावात् भूयश्चान्ते विश्वमायानिवृत्तिः॥१०॥

जीवात्मा अक्षय, अमर, क्षयशील प्रकृति की वृति है,
जड़ तत्व चेतन आत्मा में, प्रभुत्व प्रभु की शक्ति है।
उसका सतत जो स्मरण, और ध्यान में तन्मय रहे,
तो अंत में माया निवृति और चित्त में चिन्मय रहे। [१०]

ज्ञात्वा देवं सर्वपाशापहानिः क्षीणैः वलेशेर्जन्ममृत्युप्रहाणिः।
तस्याभिध्यानात्तृतीयं देहभेदे विश्वैश्वर्यं केवल आप्तकामः॥११॥

परब्रह्म प्रभु के सतत चिंतन से ही पाप का नाश हो,
हो जन्म मृत्यु का सर्वथा ही अभाव मन में प्रकाश हो।
वही मुक्तकाम हो, जीव वृतियां सात्विक सम्पूर्ण हो,
वही आप्तकाम विशुद्ध, अतिशय निर्विकल्प हो पूर्ण हो। [११]

एतज्ज्ञेयं नित्यमेवात्मसंस्थं नातः परं वेदितव्यं हि किञ्चित्।
भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा सर्वं प्रोक्तं त्रिविधं ब्रह्ममेतत्॥१२॥

परब्रह्म अपने हृदय स्थित, एक मात्र ही ज्ञेय है,
इससे परम और चरम, कोई भी नहीं, न श्रेय है।
जीवात्मा जड़ वर्ग के, प्रेरक परम प्रभु ब्रह्म हैं,
वह ही नियामक ज्ञात हो तो, कहाँ कुछ भी अगम्य है। [१२]

वह्नेर्यथा योनिगतस्य मूर्तिनर् दृश्यते नैव च लिङ्गनाशः।
स भूय एवेन्धनयोनिगृह्य स्तद्वोभयं वै प्रणवेन देहे॥१३॥

ज्यों अरणियों में अग्नि, पर किंचित नहीं दृष्टव्य है,
त्यों ब्रह्म में जीवात्मा होती नहीं ज्ञातव्य है।
पर ॐ जप निश्चय करे, साक्षात उस परमेश को,
अदृश्य पर अणु- कण बसे, अद्भुत अगम्य विशेष को। [१३]

स्वदेहमरणिं कृत्वा प्रणवं चोत्तरारणिम्।
ध्याननिर्मथनाभ्यासादेवं पश्यन्निगूढवत्॥१४॥

जब दो अरणियों का हो मंथन, अग्नि तब ही प्रगट हो,
स्व देह अर्णिम, प्रणव अर्णिम, से ही परब्रह्म निकट हों।
ओमकार का जप, ध्यान द्वारा, यदि निरंतर जाप हो,
तब काष्ठ निहित अग्नि सम ही, प्रगट प्रभुवर आप हों। [१४]

तिलेषु तैलं दधिनीव सर्पि रापः स्रोतःस्वरणीषु चाग्निः।
एवमात्माऽत्मनि गृह्यतेऽसौ सत्येनैनं तपसायोऽनुपश्यति॥१५॥

जैसे दही में घी, तिलों में तेल, जल श्रोतों में है,
अग्नि अरणियों में यथा,परमात्मा हृदयों में है।
यदि सत्य संयम रूप तप निष्काम वृति साधक में हो,
मिले निश्चय ही परमात्मा, किंचित कोई बाधक न हो। [१५]

सर्वव्यापिनमात्मानं क्षीरे सर्पिरिवार्पितम्।
आत्मविद्यातपोमूलं तद्ब्रह्मोपनिषत् परम्॥१६॥

ज्यों दूध में स्थित है घी, सर्वत्र है परिपूर्ण है,
त्यों पूर्ण प्रभु परमेश जग में व्याप्त है सम्पूर्ण है।
वह आत्म विद्या और तप, साधन से ही प्राप्तव्य है,
परब्रह्म तत्व परम प्रभो, उपनिषदों से ज्ञातव्य है। [१६]

द्वितीय अध्याय / श्वेताश्वतरोपनिषद / मृदुल कीर्ति
युञ्जानः प्रथमं मनस्तत्त्वाय सविता धियः।
अग्नेर्ज्योतिर्निचाय्य पृथिव्या अध्याभरत्॥१॥

अति प्रथम सृष्टा मन हमारी बुद्धि को पावन करे,
हों बाह्य विषयासक्ति निवृति और सत्य स्थापन करें
जिससे हमारी इन्द्रियों की शक्ति अंतर्मुख रहे,
पार्थिव पदार्थों से विमुख, पर ब्रह्म से आमुख रहे॥ [ १ ]

युक्तेन मनसा वयं देवस्य सवितुः सवे।
सुवर्गेयाय शक्त्या॥२॥

परमेश की आराधना मय, यज्ञ में मन लीन जो,
मन के ही द्वारा परम सुख , आनंद मय परब्रह्म भजो
आराधना में मन लगे, और प्रार्थना विभु की करें.
हम सब यथा शक्ति सतत , अभ्यर्थना प्रभु की करें॥ [ २ ]

युक्त्वाय मनसा देवान् सुवर्यतो धिया दिवम्।
बृहज्ज्योतिः करिष्यतः सविता प्रसुवाति तान्॥३॥

जो व्योम में स्वर्गादि लोकों में गमन करते सदा,
ज्योति विकीरण वे करें , देवें सहारा सर्वदा.
मन बुद्धि को संयुक्त हे सविता !हमारी वे करें,
आलस्य निद्रा , ध्यान के जो विघ्न हैं वे सब हरें॥ [ ३ ]

युञ्जते मन उत युञ्जते धियो विप्रा विप्रस्य बृहतो विपश्चितः।
वि होत्रा दधे वयुनाविदेक इन्मही देवस्य सवितुः परिष्टुतिः॥४॥

जिस परम ब्रह्म में विप्र अपनी , बुद्धि करते प्रवृत हैं
अग्नि होत्र व् स्वस्ति वृतियों में चित्त जिनका नियत है.
ऐसे विचारक चिंतकों से हम करें स्तुति वही,
जिस सर्वव्यापी , अज्ञ ब्रह्म की महिमा न जाती कही॥ [ ४ ]

युजे वां ब्रह्म पूर्व्यं नमोभिर्विश्लोक एतु पथ्येव सूरेः।
शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥५॥

मन बुद्धि के स्वामी तथा अति आदि कारण सृष्टि के,
पुनि नमन में संयुक्त ब्रह्म से , और याचक दृष्टि के.
इस श्लोक स्तुति पाठ से , शुभ कीर्ति का विस्तार हो ,
अमर ब्रह्म के पुत्र भी सब सुनें इसका प्रसार हो॥ [ ५ ]

अग्निर्यत्राभिमथ्यते वायुर्यत्राधिरुध्यते।
सोमो यत्रातिरिच्यते तत्र सञ्जायते मनः॥६॥

ओंकार के जप ध्यान द्वारा, ब्रह्म रूपी अग्नि को ,
ज्योतित प्रकाशित जब करें, तब विजित करते विध्न को.
विधिवत निरोध हो प्राण वायु का, सोम रस आनंद हो ,
उस स्थिति में सर्वदा मन शुद्ध , शेष भी द्वंद हों॥ [ ६ ]

सवित्रा प्रसवेन जुषेत ब्रह्म पूर्व्यम्।
यत्र योनिं कृणवसे न हि ते पूर्तमक्षिपत्॥७॥

अति आदि कारण ब्रह्म ही, सृष्टा है सारी सृष्टि का
साधक करे आराधना तो पात्र हो शुभ दृष्टि का.
फ़िर पूर्व साँची कर्म न बाधक हों जड़ता शेष हो,
यदि सर्व आश्रय लीन ऋत साधक की दृढ़ता विशेष ॥ [ ७ ]

त्रिरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरं हृदीन्द्रियाणि मनसा सन्निवेश्य।
ब्रह्मोडुपेन प्रतरेत विद्वान् स्रोतांसि सर्वाणि भयानकानि॥८॥

साधक गला, सिर और छाती, तीनों को उन्नत रखे,
करे सीधा और स्थिर शरीर व् इन्द्रियों में सत रखे.
फ़िर इन्द्रियों को मन के द्वारा हृदय में संचित करे,
ओंकार की नौका से दुष्कर , भव प्रवाहों से तरे॥ [ ८ ]

प्राणान् प्रपीड्येह संयुक्तचेष्टः क्षीणे प्राणे नासिकयोच्छ्वसीत।
दुष्टाश्वयुक्तमिव वाहमेनं विद्वान् मनो धारयेताप्रमत्तः॥९॥

आहार और विहार भी साधक के समुचित योग्य हों ,
प्राणायाम से प्राण सूक्ष्म व् उच्छ्वास के योग्य हों.
तब दुष्ट घोडों से युक्त रथ, ज्यों सारथी वश में करे,
त्यों योग्य साधक इन्द्रियों को , साध मन वश में करे॥ [ ९ ]

समे शुचौ शर्करावह्निवालिका विवर्जिते शब्दजलाश्रयादिभिः।
मनोनुकूले न तु चक्षुपीडने गुहानिवाताश्रयणे प्रयोजयेत्॥१०॥

हो ध्यान स्थल सुखद शीतल, शुद्ध, समतल, शांत भी.
अति, शुचि, मनोरम, सौम्य बहु, हों दृश्य सुखदायक सभी .
बहु अग्नि बालू और कंकड़, वायु शून्य गुहा न हो.
बहु लोग आश्रय, आगमन, व्यवधान और जहाँ न हो॥ [ १० ]

नीहारधूमार्कानिलानलानां खद्योतविद्युत्स्फटिकशशीनाम्।
एतानि रूपाणि पुरःसराणि ब्रह्मण्यभिव्यक्तिकराणि योगे॥११॥

कोहरा, धुआं, रवि, वायु, अग्नि व् स्फटिक, मणि शशि कभी,
जुगनू व् बिजली के समानान्तर हो दृश्यों के सभी.
पुनरावृति योगी को हो, जो ब्रह्म योग में लीन हैं,
ये सफलता के चिन्ह, योगी ऋत दिशा तल्लीन है॥ [ ११ ]

पृथिव्यप्तेजोऽनिलखे समुत्थिते पञ्चात्मके योगगुणे प्रवृत्ते।
न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम्॥१२॥

आकाश, पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु, ये पाँचों तत्व का.
साधक में जब उत्थान और अधिकार होता सत्व का.
उस योग अग्निमय देह में , कभी रोग का न प्रवेश हो.
न ज़रा, न मृत्यु असमय , इच्छा शक्ति विशेष हो॥ [ १२ ]

लघुत्वमारोग्यमलोलुपत्वं वर्णप्रसादः स्वरसौष्ठवं च।
गन्धः शुभो मूत्रपुरीषमल्पं योगप्रवृत्तिं प्रथमां वदन्ति॥१३॥

आरोग्य जड़ता , हीनता, हर्षित हृदय व् प्रफुल्लता,
विषयासक्ति की निवृति, वाणी में मृदु स्वर मृदुलता.
देह में हो गंध सुरभित, वर्ण की उज्जवलता
अविकारी होवें सिद्ध , जब हो सिद्धिओं की बहुलता॥ [ १३ ]

यथैव बिंबं मृदयोपलिप्तं तेजोमयं भ्राजते तत् सुधान्तम्।
तद्वाऽऽत्मतत्त्वं प्रसमीक्ष्य देही एकः कृतार्थो भवते वीतशोकः॥१४॥

यदि रत्न आवृत मृत्तिका से तेजहीन लगे यथा,
धुलकर प्रकाशित हो यदि निज रूप में आता तथा.
वैसे ही यदि जीवात्मा को, आत्म तत्व प्रत्यक्ष हो,
कैवल्य पा हो कृतार्थ निश्चय ब्रह्म उसको प्रत्यक्ष हों॥ [ १४ ]

यदात्मतत्त्वेन तु ब्रह्मतत्त्वं दीपोपमेनेह युक्तः प्रपश्येत्।
अजं ध्रुवं सर्वतत्त्वैर्विशुद्धं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपापैः॥१५॥

अथ आत्म तत्व के द्वारा योगी, जानते ब्रह्मत्व को,
नहीं इन्द्रियां हैं समर्थ किंचित, ब्रह्म के प्रत्यक्ष को.
यदि जान ले ध्रुव ऋत अजन्मा महिमामय परमात्मा,
पुनि - पुनि जनम और मृत्यु भय से, मुक्त हो जीवात्मा॥ [ १५ ]

एषो ह देवः प्रदिशोऽनु सर्वाः पूर्वो ह जातः स उ गर्भे अन्तः।
स एव जातः स जनिष्यमाणः प्रत्यङ् जनास्तिष्ठति सर्वतोमुखः॥१६॥

परब्रह्म परमेश्वर ही निश्चय, सब दिशाओं में व्याप्त है,
अति आदि कारण, आदि सृष्टि का और उसी में समाप्त है.
वही सर्वतोमुख हिरण्यगर्भा और अन्तर्यामी है,
ब्रह्माण्ड रूपी गर्भ स्थित, त्रिकाल दर्शी स्वामी है॥ [ १६ ]

यो देवो अग्नौ योऽप्सु यो विश्वं भुवनमाविवेश।
य ओषधीषु यो वनस्पतिषु तस्मै देवाय नमो नमः॥१७॥

परब्रह्म जो परमात्मा, अग्नि में है, जल में वही,
विश्वानि लोकों में प्रतिष्ठित, गरिमामय मंडित मही.
है वनस्पति औषधि में भी, सत्ता उसी सम्राट की,
पुनि - पुनि नमन महिमा यही, उस विश्व रूप विराट की॥ [ १७ ]


तृतीय अध्याय / श्वेताश्वतरोपनिषद / मृदुल कीर्ति


य एको जालवानीशत ईशनीभिः सर्वांल्लोकानीशत ईशनीभिः ।
य एवैक उद्भवे सम्भवे च य एतद् विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥१॥

यह विश्व रूप है जाल का, और जिसका अधिपति ब्रह्म है,
स्वरुप शासन शक्तियों से, सत्ता जिसकी अगम्य है।
वह एकमेव ही ब्रह्म पूर्ण समर्थ क्षमतावान है,
जो जानते परब्रह्म को वे ही अमर भी हैं, महान हैं॥ [ १ ]

एको हि रुद्रो न द्वितीयाय तस्थु र्य इमांल्लोकानीशत ईशनीभिः ।
प्रत्यङ् जनास्तिष्ठति सञ्चुकोचान्तकाले संसृज्य विश्वा भुवनानि गोपाः॥२

वही आत्म भू सत्ता व् शक्ति से विश्व पर शासन करे,
वही एकमेव अभिन्न पूर्ण जो सृष्टि का नियमन करे।
वही प्राणियों में प्राण, सृष्टि का नियामक रूप है,
वही प्रलय काले सृष्टि स्व में , समेट लेता अनूप है॥ [ २ ]

विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात् ।
सं बाहुभ्यां धमति संपतत्रै-र्द्यावाभूमी जनयन् देव एकः ॥३॥

सर्वत्र चक्षु व् हाथ, मुख, वही पैरों वाला ही ब्रह्म है,
आकाश पृथ्वी का रचयिता , अगम मर्म अगम्य है।
हाथों से दो- दो जीवों को तो युक्त करता है प्रभो,
पंखों से दो-दो पक्षियों को , युक्त करता है विभो॥ [ ३ ]

यो देवानां प्रभवश्चोद्भवश्च विश्वाधिपो रुद्रो महर्षिः ।
हिरण्यगर्भं जनयामास पूर्वं स नो बुद्ध्या शुभया संयुनक्तु ॥४॥

विश्वधिपति परब्रह्म का, जो रुद्र रूप उत्कर्ष है,
वही वृद्धि व् उत्पत्ति का सर्वज्ञ हेतु महर्षि है।
सृष्टि के आदि में हिरण्य गर्भ की, ब्रह्म ने की सर्जना,
वही स्वस्ति बुद्धि से हमें संयुक्त कर दे, प्रार्थना॥ [ ४ ]

या ते रुद्र शिवा तनूरघोराऽपापकाशिनी ।
तया नस्तनुवा शन्तमया गिरिशन्ताभिचाकशीहि ॥५॥

शिव,सौम्य, पुण्य प्रभा प्रकाशित , रुद्र रूप महान जो,
उस मूर्ति से कल्याण पाओ , मानवों उसको भजो।
शिव शक्ति स्वस्ति अभिप्रियम , कल्याणमय गिरिशन्त हे!
तेरी कृपा की दृष्टि मात्र को, हम प्रनत हैं अनंत हे! ॥ [ ५ ]

याभिषुं गिरिशन्त हस्ते बिभर्ष्यस्तवे ।
शिवां गिरित्र तां कुरु मा हिंसीः पुरुषं जगत् ॥६॥

गिरिशन्त ! हे गिरिराज ! रक्षक तुम हिमालय के महा,
जो वाण धारण हाथ में , वह न विनाशक हो अहा !
उस वाण को कल्याण मय, होने दो हे करुणा निधे,
हिंसा जगत से जीव की , किंचित न होवे महाविधे॥ [ ६ ]

ततः परं ब्रह्म परं बृहन्तं यथानिकायं सर्वभूतेषु गूढम् ।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितार-मीशं तं ज्ञात्वाऽमृता भवन्ति ॥७॥

पूर्वोक्त जीव समूह जग से , ब्रह्मा से भी श्रेष्ठ हैं,
सब जीवों में अनुकूल उनके जीवों के ही तिष्ठ हैं।
सब जगत को सब ओर से , घेरे हुए व्यापक महा,
उस एक ब्रह्म को जान , ज्ञानी अमर हो जाते यहाँ॥ [ ७ ]

वेदाहमेतं पुरुषं महान्त-मादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।
तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥८॥

जो ज्ञानी महिमामय परम परमेश प्रभु को जानता,
वही तम् अविद्या से परे , रवि रूप की हो महानता।
जिसे जान कर ही मनुष्य मृत्यु का उल्लंघन कर सके,
फ़िर जन्म-मृत्यु विहीन हो, पद परम पाकर तर सके॥ [ ८ ]

यस्मात् परं नापरमस्ति किंचिद्य-स्मान्नणीयो न ज्यायोऽस्ति कश्चित् ।
वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येक-स्तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम् ॥९॥

परमेश प्रभु से श्रेष्ठ , कोई दूसरा किंचित कहीं ,
सूक्ष्मातिसूक्ष्म , महिम महे कोई अन्य अथ स्थित नहीं।
वही एक निश्छल भाव से , सम वृक्ष नभ आरूढ़ है,
ब्रह्माण्ड में परिपूर्ण स्थित , मर्म ब्रह्म के गूढ़ हैं॥ [ ९ ]

ततो यदुत्तरततं तदरूपमनामयम् ।
य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति अथेतरे दुःखमेवापियन्ति ॥१०॥

आकार हीन विकास शून्य , अति परम प्रभो जिसे विज्ञ है,
वे ही जन्म मृत्यु विहीन , जिनका लक्ष्य ब्रह्म प्रतिज्ञ है।
इस मर्म से अनभिज्ञ जो , पुनि -पुनि जनम व् मरण के,
दुःख पाते और भटकते हैं, बिन करुणा निधि की शरण के॥ [ १० ]

सर्वानन शिरोग्रीवः सर्वभूतगुहाशयः ।
सर्वव्यापी स भगवांस्तस्मात् सर्वगतः शिवः ॥११॥

सब ओर मुख सर ग्रीवा वाला है महत करुणानिधे,
सब प्राणियों के हृदय रूपी गुफा में है महाविधे।
प्रभु सर्वव्यापी है अतः, व्यापकता अणु- कण व्याप्त है,
साधक जहाँ जिस रूप में , चाहें वह सबको प्राप्त है॥ [ ११ ]

महान् प्रभुर्वै पुरुषः सत्वस्यैष प्रवर्तकः ।
सुनिर्मलामिमां प्राप्तिमीशानो ज्योतिरव्ययः ॥१२॥

निश्चय ही प्रभुता पूर्ण प्रभु , शासक समर्थ महान है,
अविनाशी अव्यय ज्योतिमय के, न्याय पूर्ण विधान हैं।
अंतःकरण मानव का प्रेरित , करता अपनी ओर है,
किंतु मानव सुप्त , माया मोह में ही विभोर है॥ [ १२ ]

अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनानां हृदये सन्निविष्टः ।
हृदा मनीषा मनसाभिक्लृप्तो य एतद् विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥१३॥

अंगुष्ठ के परिमाण वाला है, ब्रह्म सबके हृदय में,
सम्यक विधि स्थित समाहित काल क्रम व् समय में।
निर्मल हृदय व् विशुद्ध मन , साधक यदि करे ध्यान तो,
वही जन्म -मृत्यु विहीन लीन हो, ब्रह्म में ही शत कृतो॥ [ १३ ]

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
स भूमिं विश्वतो वृत्वा अत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥१४॥

वह परम पुरुषोत्तम सहस्त्रों , चक्षु , सिर, पग युक्त है,
विश्वानि जग सब ओर से आवृत किए संयुक्त है।
नाभी से दस अंगुल जो ऊपर , हृदय में स्थित सदा,
है निर्विकारी , व्याप्त, हृदयों में दीन वत्सल वसुविदा॥ [ १४ ]

पुरुष एवेदँ सर्वं यद् भूतं यच्च भव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥१५॥

त्रिकाल चक्र तो ब्रह्म इच्छा के ही सब अनुरूप है,
खाद्यान्नों से विकसित है जो कुछ , ब्रह्म का ही स्वरुप है।
मोक्ष का स्वामी , अमिय रूपी अचिन्त्य की शक्ति से,
भावः बंधनों से मुक्त मानव होता प्रभु की भक्ति से॥ [ १५ ]

सर्वतः पाणिपादं तत् सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥१६॥

सर्वत्र ही मुख, आँख, सिर व् कानों वाला है विभो,
वह परम पुरुषोत्तम जनार्दन , व्याप्त कण - कण में प्रभो।
ब्रह्माण्ड को सब ओर से आवृत किए वह महान हैं,
सबको ही स्व में करके स्थित , कर रहा कल्याण है॥ [ १६ ]

सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् ।
सर्वस्य प्रभुमीशानं सर्वस्य शरणं सुहृत् ॥१७॥

वह परम प्रभु परमेश सारी इन्द्रियों से विहीन है,
फ़िर भी सकल इन्द्रिय के विषयों में तो पूर्ण प्रवीण है।
परमेश प्रभु परमात्मा ही स्वामी है, सर्वेश है,
शासक बृहत,आश्रय विरल, अधिपति, शरण है, महेश है॥ [ १७ ]

नवद्वारे पुरे देही हंसो लेलायते बहिः ।
वशी सर्वस्य लोकस्य स्थावरस्य चरस्य च ॥१८॥

परमात्मा नव द्वार वाले , इस शरीरी नगर में,
स्थित है अन्तर्यामी रूप से , हर निमिष , हर पहर में।
जंगम व् स्थावर चराचर , जगत का वही केन्द्र है,
बाह्य जग लीला उसी की , केन्द्र सबका महेंद्र है॥ [ १८ ]

अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः ।
स वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्र्यं पुरुषं महान्तम् ॥१९॥

वह हाथ पैरों से रहित , पर ग्रहण गमन अपूर्व है,
और चक्षु, कर्णों के बिना , देखे , सुने सम्पूर्ण है।
अथ ज्ञेय व् अज्ञेय का सब अर्थ ईश्वर जानता
उसको भला पर कौन जाने , किसमें इतनी महानता॥ [ १९ ]

अणोरणीयान् महतो महीयानात्मा गुहायां निहितोऽस्य जन्तोः ।
तमक्रतुः पश्यति वीतशोको धातुः प्रसादान्महिमानमीशम् ॥२०॥

अति सूक्ष्म से भी सूक्ष्म परब्रह्म , महत से अति महत है,
वही जीवों की तो हृदय रूपी , गुफा में अथ निहित है।
सविता की करुणा दृष्टि से , मानव को करुणा प्राप्त है,
सब दुःख निषाद निःशेष होते हैं, यदि मानव आप्त है॥ [ २० ]

वेदाहमेतमजरं पुराणं सर्वात्मानं सर्वगतं विभुत्वात् ।
जन्मनिरोधं प्रवदन्ति यस्य ब्रह्मवादिनो हि प्रवदन्ति नित्यम् ॥२१॥

वेदज्ञ जो भी ब्रह्म के अति निकट , उनका कथन है,
मैं ब्रह्म पुराण पुरूष महत को , जानता हूँ नमन है।
ज़रा जन्म - मृत्यु से हीन , शाश्वत नित्य सत्य विराट है,
कण - कण बसा वही, प्राणियों में बस रहा सम्राट है॥ [ २१ ]

चतुर्थ अध्याय / श्वेताश्वतरोपनिषद / मृदुल कीर्ति

य एकोऽवर्णो बहुधा शक्तियोगाद् वरणाननेकान् निहितार्थो दधाति ।
विचैति चान्ते विश्वमादौ च देवः स नो बुद्ध्या शुभया संयुनक्तु ॥१॥

जो निराकार स्वरुप में तो, अवर्ण है व् अरूप है,
निहितार्थ वह ही विविध रूपों में, विविध रखता रूप है।
और अंत में विश्वानि विश्व भी , ब्रह्म में ही लीन है,
वही एकमेव प्रभो हमें, शुभ बुद्धि दे हम दीन हैं॥ [ १ ]

तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः ।
तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म तदापस्तत् प्रजापतिः ॥२॥

ये ही ब्रह्म हैं जल, वायु, अग्नि , सूर्य, शशि, नक्षत्र भी,
यही जल प्रजापति, यही ब्रह्मा, व्याप्त अथ सर्वत्र भी.
परब्रह्म परमेश्वर की ही तो विभूतियाँ कण -कण में हैं.
हो श्रेय चिंतन मानवों को, प्रेय वह क्षण - क्षण में है. [ २ ]

त्वं स्त्री पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी ।
त्वं जीर्णो दण्डेन वञ्चसि त्वं जातो भवसि विश्वतोमुखः ॥३॥

प्रभु आप ही तो कुमार हो अथवा कुमारी नर भी तू ,
नारी तू ही और वृद्ध तू , चले दंड के आधार तू.
जन -जन के मुख के रूप में, परमेश का ही रूप है,
अर्थात इस सम्पूर्ण जग में, तेरा ही तो स्वरुप है. [ ३ ]

नीलः पतङ्गो हरितो लोहिताक्षस्तडिद्गर्भ ऋतवः समुद्राः ।
अनादिमत् त्वं विभुत्वेन वर्तसे यतो जातानि भुवनानि विश्वा ॥४॥

तू ही नील वर्ण पतंग है, तू ही मेघ ऋतुएं बसंत है,
तू ही हरित वर्ण व् लाल चक्षुओं वाला खग है , अनंत है.
तू ही सप्त जलधि रूप , तुझसे सब जगत निष्पन्न है,
आद्यंतहीन , अव्यक्त, व्यापक, सबमें तू आसन्न है. [ ४ ]

अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः ।
अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः ॥५॥

सत रज व् तम् ये त्रिगुणात्मक , प्रकृति प्रभु से सृजित है,
अपरा प्रकृति के जीव भोगें, भोग जो स्व रचित है.
और परा प्रकृति के जीव , कर्मों के भोग करते क्षीण हैं,
निःसार क्षण भंगुर समझ, परित्याग करते प्रवीण हैं [ ५ ]

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते ।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ॥६॥

यह देह मानव की तो मानो वृक्ष पीपल का अहे,
जीवात्मा परमात्मा , दो मित्र पक्षी बन रहे .
जीवात्मा खग कर्म करता और फल भी है भोगता,
परमात्मा खग विरत वृति से देखता नहीं भोगता॥ [ ६ ]

समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोऽनीशया शोचति मुह्यमानः ।
जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य महिमानमिति वीतशोकः ॥७॥

उस वृक्ष पर जीवात्मा, आसक्ति में ही निमग्न है,
मोहित हुआ सुख दुःख , विकारों में ही अथ संलग्न है.
जब प्रभु अहैतु की कृपा हो , तब ही करुनागार के,
अति महिम रूप को देख , दुःख हों शेष सब संसार के॥ [ ७ ]

ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् यस्मिन्देवा अधि विश्वे निषेदुः ।
यस्तं न वेद किमृचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्त इमे समासते ॥८॥

प्रभु दिव्य अविनाशी परम नभ रूप में व्यापक महे,
सब देवगण जिसमें यथोचित वेद भी स्थित रहे .
वेदादि सारे देव सेवक, पार्षदों के रूप में ,
इस मर्म के मर्मज्ञ, जानें ब्रह्म रूप अनूप को॥ [ ८ ]

छन्दांसि यज्ञाः क्रतवो व्रतानि भूतं भव्यं यच्च वेदा वदन्ति ।
अस्मान् मायी सृजते विश्वमेतत्तस्मिंश्चान्यो मायया सन्निरुद्धः ॥९॥

बहु विविध व्रत, यज्ञादि ज्योतिष छंद तीनों काल का,
हैं वेदों में वर्णन यथोचित , इनमें अंश त्रिकाल का .
विश्वानि जग प्रकृति का अधिपति, ब्रह्म से ही सृजित है,
जीवात्मा माया से बंध, बहु मोह से भी ग्रसित है॥ [ ९ ]

मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं च महेश्वरम् ।
तस्यवयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत् ॥१०॥

माया तो प्रभु परमेश की ही , शक्ति रूपा प्रकृति है,
अधिपति प्रकृति का ब्रह्म है, संसार जिसकी कृति है,
इसी कार्य कारण रूप का , परिणाम यह ब्रह्माण्ड है,
माया व् मायापति की महिमा , महिम है व् प्रकांड॥ [ १० ]

यो योनिं योनिमधितिष्ठत्येको यस्मिन्निदाम् सं च विचैति सर्वम् ।
तमीशानं वरदं देवमीड्यं निचाय्येमां शान्तिमत्यन्तमेति ॥११॥

है अधिष्ठाता योनियों का , ब्रह्म तो एकमेव ही,
वही सृष्टि काले विविध रोपों में, प्रगट हो सदैव ही.
हो प्रलय काले विलीन जग , उसी एक सर्वाधार में,
कैवल्य सुख, जिसे जान पाये, जीव करुणाधार में॥ [ ११ ]

यो देवानां प्रभवश्चोद्भवश्च विश्वाधिपो रुद्रो महर्षिः ।
हिरण्यगर्भं पश्यत जायमानं स नो बुद्ध्या शुभया संयुनक्तु ॥१२॥

विश्वधिपति सर्वज्ञ रुद्र ने , इन्द्र देवों को रचा,
उसने हिरण्यगर्भ को, अति आदि में आदि रचा.
वही ब्रह्मा के भी पूर्ववर्ती , ब्रह्म शुभ शुचि बुद्धि से,
हम कर्म सब शुभ कर सकें , अति सत्य सात्विक शुद्धि से॥ [ १२ ]

यो देवानामधिपो यस्मिन्ल्लोका अधिश्रिताः ।
य ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥१३॥

देवाधिपति है ब्रह्म जिसमें , लोक सब आश्रित तथा,
वही जीव समुदायों का शासक और स्वामी है यथा .
हम पूर्ण श्रद्धा भक्ति से, हविः रूप अर्पित अर्चना ,
कर दें समर्पण पूर्ण प्रभु को , सिद्ध हो अभ्यर्थना॥ [ १३ ]

सूक्ष्मातिसूक्ष्मं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य स्रष्ठारमनेकरूपम् ।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा शिवं शान्तिमत्यन्तमेति ॥१४॥

प्रभु सूक्ष्म से भी सूक्ष्म अति और विशद बहु आकार भी,
वही हृदय रूप गुफा में स्थित , विश्व रचनाकार भी .
बहु रूप धारक विश्व वेष्ठित, शिवम् ब्रह्म से विज्ञ जो,
उन्हें शान्ति शाश्वत , चित्त उपरत, निकट है सर्वज्ञ जो॥ [ १४ ]

स एव काले भुवनस्य गोप्ता विश्वाधिपः सर्वभूतेषु गूढः ।
यस्मिन् युक्ता ब्रह्मर्षयो देवताश्च तमेवं ज्ञात्वा मृत्युपाशांश्छिनत्ति ॥१५॥

वही काल ब्रह्मांडों का रक्षक , विश्व अधिपति गूढ़ है,
वेदज्ञ , देव, महर्षि जिसके ध्यान में आरूढ़ हैं,
उसे जान मृत्यु के बंधनों से मुक्त हो जीवात्मा,
संलग्न निश्चय ब्रह्म से हो पायें वे परमात्मा॥ [ १५ ]

घृतात् परं मण्डमिवातिसूक्ष्मं ज्ञात्वा शिवं सर्वभूतेषु गूढम् ।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः ॥१६॥

यही सार का भी सार अतिशय , सूक्ष्म अनुपम गूढ़ है,
सब प्राणियों ब्रह्माण्ड में मक्खन के सम आरूढ़ है.
परब्रह्म तो ब्रह्माण्ड को वेष्ठित किए , स्थित महे,
मानव जो उसको जानता, बंधन कहाँ कोई रहे ? [ १६ ]

एष देवो विश्वकर्मा महात्मा सदा जनानां हृदये सन्निविष्टः ।
हृदा मनीषा मनसाभिक्लृप्तो य एतद् विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥१७॥

वह विश्व करता तो मानवों के हृदय स्थित सर्वदा,
जो हृदय से, बुद्धि मन से, हो ध्यान स्थित वसुविदा.
इस तरह साधक को ही प्रत्यक्ष हो परमात्मा,
अथ, मर्म के मर्मज्ञ होते अमिय रूप महात्मा॥ [ १७ ]

यदाऽतमस्तान्न दिवा न रात्रिः न सन्नचासच्छिव एव केवलः ।
तदक्षरं तत् सवितुर्वरेण्यं प्रज्ञा च तस्मात् प्रसृता पुराणी ॥१८॥

यह अज्ञान- तम् जब शेष हो , अनुभूति तत्व विशेष हो,
वह तत्व दिन है न रात है, न सत असत का प्रवेश हो.
शिव स्वस्ति अविनाशी अनादि अमिय अक्षर शुभ महे,
वह सूर्य का भी उपास्य , उससे ही ज्ञान विस्तृत हो रहे॥ [ १८ ]

नैनमूर्ध्वं न तिर्यञ्चं न मध्ये न परिजग्रभत् ।
न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महद् यशः ॥१९॥

ऊपर न नीचे मध्य से नहीं ग्राह्य न ही विराम है,
अतिशय परात्पर ब्रह्म की , उपमा नहीं न ही नाम है.
परमेश प्रभु अतिशय विलक्षण , सर्वथा ही अग्राह्य है,
उसकी कृपा करुणा का सारे , विश्व में तो प्रवाह है॥ [ १९ ]

न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम् ।
हृदा हृदिस्थं मनसा य एनमेवं विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥२०॥

नहीं चक्षुओं से दृष्टि गोचर ,ब्रह्म हो सकता कभी,
अन्तः करण में भक्त को ही , ब्रह्म दिखता है कभी.
भक्ति से साधक को हृदय स्थित, प्रभो साकार है,
जिसे दिव्य दृष्टि दया निधि से मिलती वह भव पार है॥ [ २० ]

अजात इत्येवं कश्चिद्भीरुः प्रपद्यते ।
रुद्र यत्ते दक्षिणं मुखं तेन मां पाहि नित्यम् ॥२१॥

है रुद्र संहारक अजन्मा , आप मृत्यु विहीन है,
हम जन्म - मृत्यु के भय ग्रसित, मानव हैं बुद्धि विहीन हैं,
हम जन्म - मृत्यु भय विहीन हों , अथ शरण हैं आपकी,
मम सर्वदा रक्षा करो, हटे भावना संताप की॥ [ २१ ]

मा नस्तोके तनये मा न आयुषि मा नो गोषु मा न अश्वेषु रीरिषः ।
वीरान् मा नो रुद्र भामितो वधीर्हविष्मन्तः सदामित् त्वा हवामहे ॥२२॥

हे रुद्र संहारक, विविध उपहार लेकर हम सदा,
तुझको बुलाते, तू अतः कल्याण करना सर्वदा.
मम पुत्र , पौत्रों, अश्वों, गौओं पर न क्रोधित हों कभी,
शुभ दृष्टि रखना सर्वदा , संताप हर लेना सभी॥ [ २२ ]

पंचम अध्याय / श्वेताश्वतरोपनिषद / मृदुल कीर्ति
द्वे अक्षरे ब्रह्मपरे त्वनन्ते विद्याविद्ये निहिते यत्र गूढे ।
क्षरं त्वविद्या ह्यमृतं तु विद्या विद्याविद्ये ईशते यस्तु सोऽन्यः ॥१॥

है ब्रह्मा से भी श्रेष्ठ , गूढ़, असीम अक्षर ब्रह्म मैं,
विद्या - अविद्या जड़ व् चेतन , निहित दोनों अगम्य में।
जड़ वर्ग क्षर चेतन अमर,विद्या, अविद्या नाम है,
दोनों का ईशानम प्रभु , शासक परम है अनाम है॥ [ १ ]

यो योनिं योनिमधितिष्ठत्येको विश्वानि रूपाणि योनीश्च सर्वाः ।
ऋषिं प्रसूतं कपिलं यस्तमग्रे ज्ञानैर्बिभर्ति जायमानं च पश्येत् ॥२॥

एकमेव ही विश्वानि रूपों , कारणों और योनियों,
पर करे आदित्य परब्रह्म , उसके शासन में जियो.
सब ज्ञानों से संपन्न उन्नत, करता है परमात्मा ,
अति आदि दृष्टा, हिरण्यगर्भ का देखे सब विश्वात्मा॥ [ २ ]

एकैक जालं बहुधा विकुर्वन्नस्मिन् क्षेत्रे संहरत्येष देवः ।
भूयः सृष्ट्वा पतयस्तथेशः सर्वाधिपत्यं कुरुते महात्मा ॥३॥

अथ सृष्टि काले देव तत्वों से , जाल को निर्मित करे,
फ़िर कर विभाजन प्रलय काले , पुनि वही संचित करें.
पूर्व इव पुनि सृष्टि काले , लोक पालों को रचे,
फिर स्वयं आधिपत्य करता है, विश्व सब उसके रचे॥ [ ३ ]

सर्वा दिश ऊर्ध्वमधश्च तिर्यक् प्रकाशयन् भ्राजते यद्वनड्वान् ।
एवं स देवो भगवान् वरेण्यो योनिस्वभावानधितिष्ठत्येकः ॥४॥

रवि एक ही चहुँ ओर ज्यों सारी दिशा ज्योतित करे
वैसे अकेला ब्रह्म सारी, सृष्टि को नियमित करे,
वही वरन करने योग्य अद्भुत आत्म भू अखिलेश है,
आधिपत्य कर्ता, सृष्टि का, कल्याण कर्ता महेश है॥ [ ४ ]

यच्च स्वभावं पचति विश्वयोनिः पाच्यांश्च सर्वान् परिणामयेद् यः ।
सर्वमेतद् विश्वमधितिष्ठत्येको गुणांश्च सर्वान् विनियोजयेद् यः ॥५॥

संकल्प द्वारा ब्रह्म पुनि, होता प्रगट निज रूप में,
कर्ता त्रिगुण सृष्टि रचित , फल कर्म रूप अनूप में.
अथ विविध रूपों योनियों में, सृजित जग विस्तृत महे,
अति आदि कारण ब्रह्म की, करुणा से ही आवृत रहे॥ [ ५ ]

तद् वेदगुह्योपनिषत्सु गूढं तद् ब्रह्मा वेदते ब्रह्मयोनिम् ।
ये पूर्वं देवा ऋषयश्च तद् विदुस्ते तन्मया अमृता वै बभूवुः ॥६॥

प्रभु मर्म, विद्या रूप वेदों के, उपनिषद अति गूढ़ हैं,
ब्रह्म के निःश्वास वेद हैं, ब्रह्म मर्म निगूढ़ हैं.
हैं विज्ञ ब्रह्मा ब्रह्म से और अन्य ऋषि भी जानते,
निश्चय ही तन्मय ब्रह्म में हो , ब्रह्म को पहचानते॥ [ ६ ]

गुणान्वयो यः फलकर्मकर्ता कृतस्य तस्यैव स चोपभोक्ता ।
स विश्वरूपस्त्रिगुणस्त्रिवर्त्मा प्राणाधिपः सञ्चरति स्वकर्मभिः ॥७॥

गुण कर्म रूप सकाम वृतियों से बंधा जीवात्मा,
पुनि जन्म - मृत्यु कर्म के अनुरूप पाता है आत्मा.
अथ तीन वृतियां , तीन गतियों का गमन प्रेरित करें ,
निज कर्म रूप विधान गति , जीवात्मा निश्चित करे॥ [ ७ ]

अङ्गुष्ठमात्रो रवितुल्यरूपः सङ्कल्पाहङ्कारसमन्वितो यः ।
बुद्धेर्गुणेनात्मगुणेन चैव आराग्रमात्रोऽप्यपरोऽपि दृष्टः ॥८॥

अंगुष्ठ के परिमाण मय, रवि रूप सम जीवात्मा ,
सूजे की अग्रिम नोक सम , ज्ञानी कहे जीवात्मा .
ममता अहंता मय है अतः ब्रह्म से लगे भिन्न है,
अन्यथा जीवात्मा परमात्मा से तो अभिन्न है॥ [ ८ ]

बालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च ।
भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते ॥९॥

यदि बाल की एक नोक के सौ भाग , पुनि सौ भाग हों,
कल्पित उसी के एक भाग समान हो, जो विभाग हो.
उसके बराबर जीव का है स्वरुप , अथ यह जानिए ,
अति सूक्ष्म , अति उससे भी लघु , जीवात्मा को जानिए॥ [ ९ ]

नैव स्त्री न पुमानेष न चैवायं नपुंसकः ।
यद्यच्छरीरमादत्ते तेने तेने स युज्यते ॥१०॥

जीवात्मा न तो नपुंसक , न ही पुरूष न ही नारी हैं,
यह देह जैसी ग्रहण करता, वैसा ही रूप धारी है,
जीवात्मा तो सर्व भेद से , शून्य है अविकार है,
अथ नर व् नारी रूप में तो , देह के ही प्रकार है॥ [ १० ]

सङ्कल्पनस्पर्शनदृष्टिमोहैर्ग्रासांबुवृष्ट्यात्मविवृद्धिजन्म ।
कर्मानुगान्यनुक्रमेण देही स्थानेषु रूपाण्यभिसम्प्रपद्यते ॥११॥

स्पर्श दृष्टि व् मोह वृष्टि , भोजन तथा संकल्प से,
हों गर्भ धारण , देह वृद्धी, भांति विविध विकल्प से,
बहु विविध लोकों देह में, अनुक्रम से होती प्राप्त है,
कर्मानुरूप जीवात्मा , देहों में होती व्याप्त है॥ [ ११ ]

स्थूलानि सूक्ष्माणि बहूनि चैव रूपाणि देही स्वगुणैर्वृणोति ।
क्रियागुणैरात्मगुणैश्च तेषां संयोगहेतुरपरोऽपि दृष्टः ॥१२॥

निज संस्कारों , अहम ममता की बुद्धिमन अनुरूप ही,
उसे सूक्ष्म और स्थूल धारण , देह हो तद्रूप ही.
संयोग कारण योनियों का तो अन्य ही अव्यक्त है,
निज कर्म मूल हैं मूल कारण , मूल मंत्र ही व्यक्त है॥ [ १२ ]

अनाद्यनन्तं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य स्रष्ठारमनेकरूपम् ।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः ॥१३॥

जिसने स्वयं यह विश्व वेष्ठित , कर लिया निज रूप में,
बहु रूप धारी ब्रह्म अनुपम , मिलते रूप अनूप में,
दुर्गम जटिल , जग व्याप्त ब्रह्म को, जो भी मानव जानते,
उसे कोई बंधन अहम् ममता , के न किंचित बांधते॥ [ १३ ]

भावग्राह्यमनीडाख्यं भावाभावकरं शिवम् ।
कलासर्गकरं देवं ये विदुस्ते जहुस्तनुम् ॥१४॥

काया विहीन तथापि श्रद्धा भक्ति से, जो ग्राह्य है,
सृष्टि रचयिता सूक्ष्म संहारक है, अन्तः बाह्य है.
सोलह कलाओं का रचयिता , स्वस्ति शुभ आराध्य है,
जो जानता भव मुक्त है, यदि ब्रह्म उसका साध्य है॥ [ १४ ]

षष्ठ अध्याय / श्वेताश्वतरोपनिषद / मृदुल कीर्ति
स्वभावमेके कवयो वदन्ति कालं तथान्ये परिमुह्यमानाः ।
देवस्यैष महिमा तु लोके येनेदं भ्राम्यते ब्रह्मचक्रम् ॥१॥

कुछ विज जग का मूल कारण, काल कहते, स्वभाव है,
पर वस्तुतः मोहित सभी, कुछ और अन्तः भाव है.
प्रत्यक्ष जो ब्रह्माण्ड वह तो, ब्रह्म की महिमा महे,
यह ब्रह्म चक्र है संचलित, परब्रह्म से, कैसे कहें ? [ १ ]

येनावृतं नित्यमिदं हि सर्वं ज्ञः कालकारो गुणी सर्वविद् यः ।
तेनेशितं कर्म विवर्तते ह पृथिव्यप्तेजोनिलखानि चिन्त्यम् ॥२॥

वह तो काल का भी महाकाल व् विश्व को आवृत किए,
जग सर्व गुण सर्वज्ञ से शासित , हो सब उसके किये .
जल, तेज, वायु, नभ, धरा का है , शक्ति संचालक वही,
चिन्मय का चिंतन चित्र से , मानव करो प्रभु अति मही॥ [ २ ]

तत्कर्म कृत्वा विनिवर्त्य भूयस्तत्त्वस्य तावेन समेत्य योगम् ।
एकेन द्वाभ्यां त्रिभिरष्टभिर्वा कालेन चैवात्मगुणैश्च सूक्ष्मैः ॥३॥

निज शक्ति भूता , पृकृति ब्रह्म ने तो कर्म संपादित किया,
जड़ चेतना दो तत्वों का संयोग प्रतिपादित किया .
सत रज व् तम, आठों प्रकृति और काल के सम्बन्ध से ,
यह जग रचा , ममता, अहंता, मोह तत्व प्रबंध से॥ [ ३ ]

आरभ्य कर्माणि गुणान्वितानि भावांश्च सर्वान् विनियोजयेद्यः ।
तेषामभावे कृतकर्मनाशः कर्मक्षये याति स तत्त्वतोऽन्यः ॥४॥

सत रज व् तम तीनों गुणों, स्व वर्ण आश्रम के यथा
करें आचरण निष्काम वृति प्रभु , को समर्पण हो तथा.
साधक वही कर्मादि फल , विश्वानि भोगों से मुक्त हो,
अथ कर्मों का जब नाश हो, तब ब्रह्म से संयुक्त हो॥ [ ४ ]

आदिः स संयोगनिमित्तहेतुः परस्त्रिकालादकलोऽपि दृष्टः ।
तं विश्वरूपं भवभूतमीड्यं देवं स्वचित्तस्थमुपास्य पूर्वम् ॥५॥

अति आदि कारण ब्रह्म कालों से परे, अतिशय परे.
जीव और प्रकृति संयोग कर्ता, विश्व संचालित करे.
स्तुत्य अन्तः करण स्थित, विश्व रूप विराट है,
अति आदि, कारणहीन , अद्भुत देव है, सम्राट है॥ [ ५ ]

स वृक्षकालाकृतिभिः परोऽन्यो यस्मात् प्रपञ्चः परिवर्ततेऽयम् ।
धर्मावहं पापनुदं भगेशं ज्ञात्वात्मस्थममृतं विश्वधाम ॥६॥

संसार रूप प्रपंच अविरल घूमे , जिसके प्रभाव से,
विश्व रूपी वृक्ष , आकृति परे काल विभाव से.
आकार हीन तथापि जगदाधार, अधिपति ईमहे ,
अमृत स्वरूपी ब्रह्म को , साधक हैं ध्याते धी महे॥ [ ६ ]

तमीश्वराणां परमं महेश्वरं तं देवतानां परमं च दैवतम् ।
पतिं पतीनां परमं परस्ताद्विदाम देवं भुवनेशमीड्यम् ॥७॥

उस ईश्वरों के परम ईश्वर , यह महेश्वर ब्रह्म हैं,
देवों के भी आराध्य , पतियों के पति हैं अगम्य है.
ब्रह्माण्ड के स्वामी परम , स्तुत्य ज्योति रूप हैं
हैं जगत के कारण तथापि , पृथक जग से अनूप हैं॥ [ ७ ]

न तस्य कार्यं करणं च विद्यते न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते ।
परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च ॥८॥

वह इन्द्रियों काया विहीन व् सूक्ष्म अति है अदृश्य है,
कोई न उससे है बड़ा , सम दृश्य भी नहीं दृश्य है.
विख्यात है बल ज्ञान उसका ,कर्म भी यश पूर्ण है,
दिव्य शक्ति स्वभाव अनुपम , वृति से परिपूर्ण है॥ [ ८ ]

न तस्य कश्चित् पतिरस्ति लोके न चेशिता नैव च तस्य लिङ्गम् ।
स कारणं करणाधिपाधिपो न चास्य कश्चिज्जनिता न चाधिपः ॥९॥

इस विश्व में कोई भी तो , उस विश्व पति का पति नहीं ,
वही कारणों का परम कारण , कोई भी अधिपति नहीं.
करुणाधिपाधिप ब्रह्म है, वही एक जग का साध्य है,
नहीं जनक उसका कोई भी , वही जग पिता आराध्य है॥ [ ९ ]

यस्तन्तुनाभ इव तन्तुभिः प्रधानजैः स्वभावतः ।
देव एकः स्वमावृणोति स नो दधातु ब्रह्माप्ययम् ॥१०॥

मकड़ी स्व निर्मित तंतुओं से , स्वयं ज्यों आवृत किए,
वैसे नियंता जग रचित कर , स्वयं को परिवृत किए .
इसलिए ही मानवों को तो , ब्रह्म लगता अदृश्य है,
इस रूप में सर्वत्र व्याप्त है , कौन उसके सदृश्य है॥ [ १० ]

एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।
कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च ॥११॥

वही हृदय रूपी गुफा में , अन्तर्निहित होकर छिपा,
सब प्राणियों में बस रहा, सृष्टि सकल उसकी कृपा.
निर्गुण शुभाशुभ कर्म दृष्टा, साक्षी चेतन शुभ महे,
उस कर्म फल दाता, प्रदाता की कृपा कैसे कहें॥ [ ११ ]

एको वशी निष्क्रियाणां बहूनामेकं बीजं बहुधा यः करोति ।
तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम् ॥१२॥

एकमेव ही बहुनाम स्थित , जीवों का अधिपति महा,
जो की प्रकृति रूपी बीज एक, अनेक कर जग रच रहा.
आत्मस्थ ब्रह्म को धीर ज्ञानी, अनवरत ही देखते ,
उनको ही शाश्वत परम सुख , नहीं अन्य को हो ऋत मते॥ [ १२ ]

नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानामेको बहूनां यो विदधाति कामान् ।
तत्कारणं सांख्ययोगाधिगम्यं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः ॥१३॥

है ब्रह्म चेतन नित्य जो कि नित्य बहु जीवात्मा,
के कर्म फल नियमन करे , एकमेव ही परमात्मा.
अति आदि कारण ज्ञान योग से, कर्म योग से प्राप्त हो,
जो जानते , जग चक्र बंधन , सकल उसके समाप्त हों॥ [ १३ ]

न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः ।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥१४॥

न तो सूर्य न ही चन्द्रमा ,न ही तारा गण, न बिजलियाँ ,
होते प्रकाशित तो भला क्या , अग्नि लौकिक है वहॉं.
ज्योतिर्स्वरूपी ब्रह्म ज्योति, से ही सब ज्योतित वहाँ ,
उस ज्योति पुंज समूह को कोई ज्योति दे सकता कहाँ॥ [ १४ ]

एको हंसः भुवनस्यास्य मध्ये स एवाग्निः सलिले संनिविष्टः ।
तमेव विदित्वा अतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥१५॥

इस मध्य में ब्रह्माण्ड के , बसता परम प्रभु सत्य है,
जल में है स्थित अग्नि यद्यपि यह विलक्षण सत्य है.
इस मृत्यु रूपी जग जलधि से पार हो पाता वही,
मर्मज्ञ जो इस तथ्य के , जो अन्य मग है ही नहीं॥ [ १५ ]

स विश्वकृद् विश्वविदात्मयोनिर्ज्ञः कालकालो गुणी सर्वविद् यः ।
प्रधानक्षेत्रज्ञपतिर्गुणेशः संसारमोक्षस्थितिबन्धहेतुः ॥१६॥

ज्ञानस्वरूपी, सर्वसृष्टा, जो काल का भी काल है,
अपने ही उद्भव का स्वयं , कारण है ब्रह्म त्रिकाल है.
जीवात्मा व् प्रकृति का , स्वामी गुणी है गणेश है,
जीवन मरण की गति व् स्थिति , मुक्ति दाता महेश है॥ [ १६ ]

स तन्मयो ह्यमृत ईशसंस्थो ज्ञः सर्वगो भुवनस्यास्य गोप्ता ।
य ईशेऽस्य जगतो नित्यमेव नान्यो हेतुर्विद्यत ईशनाय ॥१७॥

स्थित जगत क स्वरुप में, सर्वज्ञ पूर्ण अनूप है,
ब्रह्माण्ड का रक्षक नियंत्रक , लोक पालों का भूप है.
नहीं दूसरा कोई अन्य शासक , न ही कोई समर्थ है,
करे विश्व सञ्चालन नियंत्रण , किसकी क्या सामर्थ्य है॥ [ १७ ]

यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै ।
तं ह देवं आत्मबुद्धिप्रकाशं मुमुक्षुर्वै शरणमहं प्रपद्ये ॥१८॥

निश्चय ही ब्रह्म ने अति प्रथम, ब्रह्मा की रचना रचित की,
फ़िर ज्ञान वेदों का कराया , दिव्यता संचारित की .
वही आत्म बुद्धि प्रकाश कर्ता, ब्रह्म पूज्य प्रणाम है,
मैं मोक्ष का इच्छुक शरणदाता है, प्रभुवर प्राण है॥ [ १८ ]

निष्कलं निष्क्रियं शान्तं निरवद्यं निरञ्जनम् ।
अमृतस्य परं सेतुं दग्धेन्दनमिवानलम् ॥१९॥

निर्दोष, निष्क्रिय , शांत , निर्मल, निर्विकारी है सर्वथा.
अमृत स्वरूपी मोक्ष का , प्रभु परम सेतु है यथा .
अति दग्ध उज्जवल , प्रज्जवलित , अंगारे क सम ब्रह्म तो,
निर्मल परम चेतन व् निर्गुण , निराकार अगम्य तो॥ [ १९ ]

यदा चर्मवदाकाशं वेष्टयिष्यन्ति मानवाः ।
तदा देवमविज्ञाय दुःखस्यान्तो भविष्यति ॥२०॥

यदि चर्मवत मानव कभी स्व से लपेटे ब्रह्म को ,
संभाव्य यदि न कदापि हो, न दुःख कटें बिन ॐ के.
परब्रह्म को जाने बिना , समुदाय दुःख न शेष हो,
एकाग्र मन यदि स्मरण , तो प्रभु कृपा भी

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

श्वेताश्वतरोपनिषद

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