दो कवितायेँ-
लावण्या शर्मा, अमेरिका
(हिंदी साहित्य और चल-चित्र जगत के अनुपम गीतकार पं. नरेन्द्र शर्मा कि सुपुत्री लावण्या जी के गीतों में पिता से विरासत में मिले सनातन भारतीय संस्कारों की झलक और गूँज है. प्रस्तुत हैं दिव्य नर्मदा के पाठकों के लिए भेजी गयी दो विशेष रचनाएँ-सं.)
अहम ब्रह्मास्मि
असीम अनन्त, व्योम, यही तो मेरी छत है!
समाहित तत्त्व सारे, निर्गुण का स्थायी आवास
हरी-भरी धरती, विस्तरित, चतुर्दिक-
यही तो है बिछौना, जो देता मुझे विश्राम!
हर दिशा मेरा आवरण, पवन आभूषण -
हर घर मेरा जहाँ पथ मुड जाता स्वतः मेरा,
पथिक हूँ, हर डग की पदचाप -
विकल मेरा हर श्वास, तुमसे, आश्रय माँगता!
**********************
श्वेत श्याम
दिवस-रात, श्वेत-श्याम,
एक उज्ज्वल, दूजा घन तमस
बीच मेँ फैला इन्द्रधनुष,
उजागर, किरणों का चक्र,
एक सूर्य के आगमन पर,
उसके जाते सब अन्तर्ध्यान!
तमस, जडता का फैलता साम्राज्य !
चन्द्र दीप, काले काले आसमाँ पर,
तारोँ नक्षत्रों की टिमटिमाहट,
सृष्टि के पहले, ये कुछ नहीं था -
सब कुछ ढँका था एक अँधेरे मेँ,
स्वर्ण गर्भ, सर्वव्यापी, एक ब्रह्म
अणु-अणु मेँ विभाजित, शक्ति-पुंज!
मानव, दानव, देवता, यक्ष, किन्नर,
जल-थल-नभ के अनगिनत प्राणी,
सजीव-निर्जीव, पार्थिव-अपार्थिव
ब्रह्माण्ड बँट गया कण-क़ण मेँ जब,
प्रतिपादित सृष्टि ढली संस्कृति में तब!
****************************
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
शनिवार, 3 अक्तूबर 2009
दो कवितायेँ; लावण्या शर्मा, अमेरिका
चिप्पियाँ Labels:
do kavitayen,
lavnaya sharma USA,
poetry
आचार्य संजीव वर्मा सलिल
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
1 टिप्पणी:
पढने ही नहीं, मनन करने योग्य भी हैं ये रचनाएँ.
एक टिप्पणी भेजें