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शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2009

काव्यानुवाद: श्री मदभगवद्गीता अध्याय ८ मंत्र १ से २८, मृदुल कीर्ति

काव्यानुवाद

श्री मदभगवद्गीता अध्याय ८ मंत्र १ से २८

काव्यानुवादक : मृदुल कीर्ति, mridulkirti@gmail.कॉम

अथ अष्टमोअध्याय

अर्जुन उवाच

हे पुरुषोत्तम ! यहि ब्रह्म है क्या?
अध्यात्म है क्या और कर्म है क्या?
अधिभूत के नाम सों होत है क्या?
अधिदैव के नाम को मर्म है क्या?-----------१

हे मधुसूदन ! अधियज्ञ है क्या?
यहि देह में कैसे कहाँ कत है?
और अंतिम काले योगी जन,
कैसे केहि ज्ञान सों समुझत हैं?------------२

श्री भगवानुवाच

अविनाशी अक्षर ब्रह्म परम,
सत-चित-आनंदम, अर्जुन हे!
तप त्याग दान और यज्ञ आदि,
सब कर्म नाम सों जात कहे.---------------३

अधिभूत जो द्रव्य कहावत है,
उत्पत्ति विनाशन धर्मा हैं,
मैं ही अधि यज्ञ हूँ यहि देहे,
अधिदैव में होवत ब्रह्मा हैं.----------------४

मन माहीं अटल विश्वास, हिया ,
सों अंतिम काल जो ध्यान करै,
मोरो प्रिय मोसों ही मिलिहै,
संशय यहि माहीं न नैकु करै.----------------५

तस-तस ही ताकौ ताय मिलै,
जस भाव धरयो जीवन काले,
जस चिंतन, तस ही चित्त बसे,
कौन्तेय ! सुनौ अंतिम काले.------------------६

सों, हे अर्जुन! तुम जुद्ध करौ,
हर काल मेरौ सुमिरन करिकै,
बिनु संशय तू मोसों मिलिहै,
मन बुद्धि मोहे अर्पित करिकै.----------------७

जिन रोक लियौ मन चहुँ दिस सों,
और ध्यान गहन अभ्यासन सों,
तिन नित्य निरंतर चिंतन सों,
ही जाय मिलै , ब्रज नंदन सों.---------------८

अणु सों अणु , धारक पोषक कौ.
आद्यंत, अचिन्त्य,अनंता कौ,
ज्योतिर्मय रवि सम, प्रभु को जो जन,
ध्यावत नित-नित्य नियंता कौ.--------------९

तिन भक्त योग-बल के बल सों,
भृकुटी के मध्य में प्राण धरै.
हिय सुमिरन ब्रह्म कौ ध्यान अटल,
ही अंतिम काल प्रयाण करै.-----------------१०

जेहि मांही विरागी प्रवेश करै,
वेदज्ञ को 'ॐ ' भयौ जैसो,
ब्रह्मचर्य धरयो जेहि कारण सों,
परब्रह्म कौ सार कह्यो तोसों.-----------------११

वश में इन्द्रिन कौ विषयन सों ,
हिय मांहीं करै स्थिर मन कौ.
स्थापन प्राण कौ मस्तक में,
अथ स्थित योग के धारण कौ.-------------१२

एक 'ॐ ' कौ अक्षर ब्रह्म महे,
उच्चारत भये जिन प्राण तजे
तिन पाया परम गति , बिनु संशय ,
जिन अंतिम काले मोहे भजे ----------------१३

हे पार्थ ! मेरौ अविचल मन सों,
नित सुमिरन मन चित मांहीं करै
तिन योगिन कौ 'मैं' होत सुलभ,
वासुदेव कृपा बहु भांति करै.,-------------१४

जिन सिद्धि परम पद पाय लियौ,
तिन जन मुझ मांहीं समाय गयौ.
तिन क्षण भंगुर दुःख रूप जगत,
पुनि जन्म सों मुक्ति पाय गयौ.---------------१५

अपि ब्रह्म लोक और लोक सबहिं,
पुनरावृति धर्मा अर्जुन हैं.
मुझ मांहीं लीन कौन्तेय ! जना,
पुनरावृति धर्म विहीनन हैं.--------------------१६

जग बीते सहस्त्रं चौकड़ी कौ,
ब्रह्म कौ तब दिन एक भयो.
सम काल की रात है ब्रह्मा की ,
योगिन कौ तत्त्व विवेक भयो.-----------------१७

प्राणी सगरे, यहि दृश्य जगत,
ब्रह्मा सों ही उत्पन्न भयौ .
पुनि लीन भयौ, पुनि जन्म भयौ.
अथ क्रम सृष्टि निष्पन्न भयौ .----------------१८

अस वृन्द ही प्रानिन कौ सगरौ,
आधीन प्रकृति के होय रह्यौ,
निशि में लय, पुनि दिन होत उदय,
पुनि यह क्रम , अर्जुन होय रह्यो.--------------१९

यहि पूरन ब्रह्म विलक्षण जो,
अव्यक्त सनातन सत्य घन्यो.
जग सगरौ नसावन हारो है,
परब्रह्म ही केवल नित्य बन्यो------------------२०

अव्यक्त जो अक्षर हे अर्जुन!
गति मोरी परम कहावत है,
जेहि पाय नाहीं आवति जग में,
सब पूर्ण काम हुए जावत हैं.------------------२१

सब प्राणी ब्रह्म के अर्न्तगत,
जेहि सों परिपूरन जग सगरौ,
सुनि पार्थ! वही परिपूरन ब्रह्म तौ,
भक्ति अनन्य सों है तुम्हारौ.------------------२२

जस काल में मानव देह तजे,
तस आवागमन गति पावत है.
अस काल कौ मर्म सुनौ अर्जुन !
अथ मारग कृष्ण बतावत है.-----------------२३

उत्तरायण मारग अग्नि कौ,
दिन, शुक्ल को देव हो अभिमानी.
ब्रह्मयज्ञ को होत प्रयाण यदि,
दिवि लोकहीं जावत है ज्ञानी.----------------२४

दक्षिरायण मारग धूम निशा,
कृष्ण पक्ष देव हों अभिमानी.
मिलि चन्द्र की ज्योति प्रयाण करै,
पुनि जन्म जो नाहीं निष्कामी.---------------२५

जग में दुइ मार्ग सनातन है,
पथ कृष्ण व् शुक्ल कहावत है,
पितु लोक सों तो पुनि जनमत हैं,
नाहीं देव के लोक सों आवति है.---------------२६

इहि दोनों मारग पार्थ सुनौ,
जेहि ज्ञानी तत्त्व सों जानाति है,
नाहीं मोहित होवत हे अर्जुन!
सम भाव धरौ समुझावति हैं.------------------२७

तप, दान, यज्ञ, और वेद पठन,
कौ फलित पुण्य बतलावत हैं,
सत योगी इनसों होत परे ,
जो जाय, कबहूँ नहीं आवत हैं.-----------------२८

*********************

6 टिप्‍पणियां:

Divya Narmada ने कहा…

गीता का अनुवाद है, सार्थक सरल सुग्राह्य.
जो पढ़-सुन-गुन आचरे, शुचि हो अंतर-बाह्य..

घट-घट में जो रम रहा, पल-पल उसका नाम.
जो जपता उसके सभी, बनते बिगडे काम..

मृदुल कीर्ति जो पा सके, उसके गाकर गीत.
धन्य हो रहा है 'सलिल', बनकर जग का मीत.

मौन न होकर मौन है, अंतर की आवाज़.
हे हरि! कुछ कर दे कृपा, बजे ह्रदय का साज़..


जिसकी कृपा अथाह है, उसका गाकर गान.
'सलिल' धन्य हो रहा है, चरणामृत कर पान..

mridul kirti ने कहा…

न गीता है तेरी, न गीता है मेरी.
गति जग नियंता गति दे रहा है.
प्रसारण का हेतु चुना जिसको उसने,
कि वे धन्य , उनको सुमति दे रहा है.

Divya Narmada ने कहा…

हम सब उसके यन्त्र हैं, सत्य वचन हैं आप्त. .
घट-घट में जो बस रहा, कण-पल में जा व्याप्त..

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

श्रीमद भगवद गीता का अमृत , स्वयं पिलाये जब् विदुषी मृदुल जी
तब ये ईश्वर का प्रसाद समझ कर , सभी इस सुधा का पान कर रहें हैं -
आप को श्री कृष्ण भगवान् प्रेरणा डे रहे हैं और आप जगत को
सहजता से , वितरित कर रहीं हैं -
- धन्य है --
" अपना जितना काम आप ही ,
जो कोई कर लेगा
पाकर उतनी मुक्ति आप वह,
औरों को भी देगा "
रचनाकार " स्व. मैथिली शरण गुप्त

आप दोनों की रचनाएं बहुत पसंद आयीं -
बधाई --

Unknown ने कहा…

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