नवगीत
आचार्य संजीव 'सलिल'
आओ! मिलकर
बाँटें-खायें...
*
करो-मरो का
चला गया युग.
समय आज
सहकार का.
महजनी के
बीत गये दिन.
आज राज
बटमार का.
इज्जत से
जीना है यदि तो,
सज्जन घर-घुस
शीश बचायें.
आओ! . मिलकर
बाँटें-खायें...
*
आपा-धापी,
गुंडागर्दी.
हुई सभ्यता
अभिनव नंगी.
यही गनीमत
पहने चिथड़े.
ओढे है
आदर्श फिरंगी.
निज माटी में
नहीं जमीन जड़,
आसमान में
पतंग उडाएं.
आओ! मिलकर
बाँटें-खायें...
*
लेना-देना
सदाचार है.
मोल-भाव
जीवनाधार है.
क्रय-विक्रय है
विश्व-संस्कृति.
लूट-लुटाये
जो-उदार है.
निज हित हित
तज नियम कायदे.
स्वार्थ-पताका
मिल फहरायें.
आओ! . मिलकर
बाँटें-खायें...
*****************
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बुधवार, 14 अक्तूबर 2009
नवगीत: आओ! मिलकर बाँटें-खायें... -आचार्य संजीव 'सलिल'
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
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5 टिप्पणियां:
मुकेश कुमार तिवारी
आचार्य जी!
इस दौर का कच्चा चिटठा लगा यह नवगीत.
लेना-देना सदाचार है
मोल-भाव जीवनाधार है
क्रय-विक्र है विश्व-संस्कृति
लूट-लुटाये जो उदार है.
निज हित हित
तज नियम-कायदे
स्वार्थ पताका
मिल फहरायें.
आओ! मिलकर बाँटें-खायें.
बहुत ही अच्छा लगा यह बंद.
सादर
सुन्दर विचारों से युक्त रचना के लिए शुक्रिया.
आओ मिलकर बाँटें-खायें...
सजी दीवाली
दीपक बोला
तेल पी गयी
बाती सारी.
इस मँहगाई में इतना मिल पाये
आओ! मिलकर बाँटें-खायें...
दीपावली की शभकामनाएँ. हम तो परस्पर प्रेम बाँटकर ही आनंद लेंगे.
वाह! वाह!!
सटीक समयानुकूल रचना.
आपको बधाई कविता की भी और दीवाली की भी.
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