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गुरुवार, 9 नवंबर 2023

लघुकथा, मुक्तिका

मुक्तिका 
मौसम भौंचक
*
मौसम भौंचक तपिश बढ़ी है
निष्ठा बेघर लुटी खड़ी है

राजनीति हर शीश चढ़ी है
आरोपों की फसल बड़ी है

शत्रु चैन से बजा बाँसुरी
नेताओं में जंग छिड़ी है

बदकिस्मत के शयन कक्ष में
'लिव इन' की तस्वीर मढ़ी है

पहुँचा भू की बर्बादी कर
मनु, चंदा की खाट खड़ी है

देशभक्ति की कोई पुस्तक
अफसर सेठों ने न पढ़ी है

आस सुहागिन राहों में 
सौत प्यास की टाँग अड़ी है 
९.११.२०२३ 
***
लघुकथा 
*
खट खट खट खट
अलस्सुबह सरस्वती मंदिर के द्वार की कुंडी बज रही थी। अलसाते हुए पुजारी जी ने दरवाजा खोला। एक भद्र महिला सिसक रही थी। पुजारी जी आने ने कारण पूछा तो बोली माँ से विनती करनी है। पुजारी ने राह छोड़ दी। 
महिला ने सरस्वती जी को प्रणाम किया और बोली- 'माँ! मेरी रक्षा करो।' 
''बोल बेटी क्या कष्ट है?'' 
'माँ! आप तो त्रिकालदर्शी हैं सब जानती हैं, फिर भी अनजान की तरह पूछ रही हैं?'
''सृष्टि की रचना उद्देश्य यही है कि ईश का अंश 'कर्ता और भोक्ता हो', यदि दैवीय शक्ति 'कर्ता' हो तो उसे 'भोक्ता' भी होना होगा। तब 'ईश' और 'जीव' में कोई भेद ही न रहेगा।
' जैसी आज्ञा माँ! मैं आपकी सुता लघुकथा हूँ। आपने मुझे जीव के जीवन में क्षणमात्र में घटित होनेवाली घटनाओं को कथ्य बनाकर उससे उपजी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति करने का दायित्व दिया है। मैं आदि काल से अपने दायित्व का निर्वहन कर रही हूँ। कलिकाल के प्रभाव से कुछ मठाधीश मेरे दायित्व निर्वहन में बाधक बन गए हैं।'
लघु कथा ने माँ की पर देखा, उन्हें ध्यान से सुनते पाया तो आगे बोली 'माँ! मठाधीशों ने पहले तो मेरे पूर्व कथ्य-रूपों का विभाजन कर दिया, फिर उन्हें मुझसे अलग घोषित कर दिया, इतने पर भी नहीं रुके। मेरे कथ्य, शिल्प, आकार आदि को लेकर मनमानी मान्यताएँ थोप दिन और जिन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया उन्हें लघुकथाकार ही नहीं मान रहे।'
'इससे तुम्हें कष्ट है तो इतने दिन मौन क्यों रहीं और अब क्या चाहती हो?'
'माँ! मैंने सोचा वे बाल-क्रीडा कर रहे हैं, समय के साथ समझकर सुधार जाएँगे पर उन्हें अक्ल तो न आई, उन्होंने लामबंदी कर, नए लघुकथाकारों के लेखन को नियंत्रित करने का दुष्प्रयास आरंभ कर दिया है। उन्होंने अनधिकार चेष्टा करते हुए अलग-लग कुछ मानक बना लिए हैं और स्वतंत्रचेता लघुकथाकारों द्वारा लिखी जा रही लघुकथाओं को अपने मानक के अनुसार न होने पर अमान्य करने का दुस्साहस कर रहे हैं। चंद परिपक्व लघुकथाकार इं पर ध्यान न देकर समाजोपयोगी लघुकथाएँ लिख रहे हैं पर नए लघुकथाकार कुंठित होकर लघुकथा लेखन बंद कार रहे हैं। इससे मेरा विकास ही रुक जाएगा और किसी कारखाने के उत्पाद की तरह एक ही ढाँचे में लिखी गई लघुकथाएँ पाठकों को मुझसे विमुख कर मुझे निष्प्राण कर देंगी।'   
''बस इतना सा कष्ट है। स्मरण रखो 'समय होत बलवान'। जब तक अँधेरा घना नहीं होता, दीपावली नहीं मनाई जाती, सूर्योदय नहीं होता। मेरी किसी संतान का विकास रोकना या विनाश करना किसी मठाधीश के लिए संभव नहीं है। वे अपने कदाचरण के कारण  कुछ समय बाद खुद ही नकार दिए जाएँगे। साहित्य और समाज में सबका हित साधने का साधनेवाली लघुकथाएँ ही चिरजीवी होंगी। किसके रोके रुक है सवेरा।'
'माँ! मैं आश्वस्त हुई। अब कोई शंका शेष नहीं है।' कहकर पुन: प्रणाम कर लौट पड़ी लघुकथा। 
९.११.२०२३
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