कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 2 नवंबर 2023

दोहा, भ्रांतिमान अलंकार, मुक्तिका, नारी, मुक्तिका, दिवाली,

रसानंद दे छंद नर्मदा : ४
दोहा रचें सुजान
- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
दोहा मात्रिक छंद है, तेईस विविध प्रकार।
तेरह-ग्यारह दोपदी, चरण समाहित चार।।
विषम चरण के अंत में, 'सनर' सुशोभित खूब।
सम चरणान्त 'जतन' रहे, पाठक जाये डूब।।
विषम चरण के आदि में, 'जगण' विवर्जित मीत।
दो शब्दों में मान्य है, यह दोहा की रीत।।
आइये कुछ दोनों का रसास्वादन कर उनके तत्वों को समझें औए नियमों के अनुसार जाँचें:
मन से मन के मिलन हित, दोहा रचें सुजान।
सार सत्य कितना कहाँ, पल में सकें बखान।।
१. उक्त दोहे में प्रथम पद है: 'मन से मन के मिलन हित, दोहा रचें सुजान', दूसरा पद है: 'सार सत्य कितना कहाँ, पल में सकें बखान'।
२. हर पंक्ति या पद में २-२ चरण या अर्धाली हैं जिन्हें अल्प विराम (,) तथा पूर्ण विरामों (।) से दर्शाया गया है। प्रथम पदांत में एक तथा द्वितीय पदांत में २ पूर्ण विराम लगाने की परंपरा है ताकि एक पद उद्धृत करते समय उसका पद क्रम सूचित किया जा सके।
३. प्रथम पंक्ति का द्वितीय या सम चरण है: 'दोहा रचें सुजान, द्वितीय पंक्ति का सम चरण है:'पल में सकें बखान'।
४. विषम चरणों में १३-१३ मात्राएँ हैं-
मन से मन के मिलन हित,
११ २ ११ २ १११ ११ = १३
सार सत्य कितना कहाँ,
२१ २१ ११२ १२ = १३
५. सम चरणों में ११-११ मात्राएँ हैं-
दोहा रचें सुजान।
२२ १२ १२१ = ११
पल में सकें बखान।।
११ २ १२ १२१ = ११
६. पद के दोनों चरणों को मिलकर २४-२४ मात्राएँ हैं। दोहा की रचना मात्रा गणना के आधार पर की जाती है इसलिए यह मात्रिक छंद है। दोहा के विषम तथा सम चरणों में समान मात्राएँ है अर्थात आधे पद में भी सामान मात्राएँ हैं इसलिए यह अर्ध सम मात्रिक छंद है।
मन से मन के मिलन हित, दोहा रचें सुजान।
११ २ ११ २ १११ ११ , २२ १२ १२१ = १३ + ११ = २४
सार सत्य कितना कहाँ, पल में सकें बखान।।
२१ २१ ११२ १२ , ११ २ १२ १२१ = १३ + ११ = २४
७. पद के अंतिम शब्दों पर ध्यान दें: 'सुजान' और बखान' ये दोनों शब्द 'जगण' अर्थात जभान १ २ १ = ४ मात्राओं के हैं। दोहे के पदांत में अनिवार्य है, इस नियम का यहाँ पालन हुआ है।
८. दोहा का पदारम्भ एक शब्द में 'जगण' से नहीं होना चाहिए। यहाँ प्रथम शब्द क्रमश: मन तथा सार हैं जो इस नियम के अनुकूल हैं।
१३ - ११ मात्राओं पर यति होने की पुष्टि पढ़ने तथा लिखने में अल्प विराम व पूर्ण विराम से होती है।
निम्न दोहों को पढ़ें, उक्त नियमों के आधार पर परखें और देखें कि कोई त्रुटि तो नहीं है।
९. इन दोहों में लघु-गुरु मात्राओं को गणना करें। सभी दोहों में लघु - गुरु मात्राओं की संख्या तथा स्थान समान नहीं हैं। इस भिन्नता के कारण उन्हें पढ़ने की 'लय' में भिन्नता आती है। इस भिन्नता के आधार पर दोहों को २३ विविध प्रकारों में विभक्त किया गया है।
१०. दूसरे तथा चौथे चरण के अंत में तगण = ताराज = २२१, जगण = जभान = १२१ हो तो उत्तम, अपरिहार्य होने पर नगण = नसल = १११ तथा भगण = भानस में से कोई एक लिया जा सकता है किन्तु यथासंभव बचना ठीक है। शेष गण (यगण = यमाता, मगण = मातारा, रगण = राजभा, सगण = सलगा) अंत में गुरु या दीर्घ मात्रा = २ होने के कारण दूसरे व चौथे चरण के अंत में प्रयोग नहीं किये जा सकते।
११. एक और बात पर ध्यान दें- लघु-गुरु मात्राओं का क्रम बदलने अर्थात शब्दों को आगे-पीछे करने पर भी कभी-कभी दोहा लय में पढ़ा जा सकता है अर्थात उसका मात्रा विभाजन (मात्रा बाँट) ठीक होता है, कभी-कभी दोहा लय में नहीं पढ़ा जा सकता अर्थात उसका मात्रा विभाजन (मात्रा बाँट) ठीक नहीं होता।
कवि कविता से छल करे, क्षम्य नहीं अपराध।
ख़ुद को ख़ुद ही मारता, जैसे कोई व्याध।।
इस दोहे के प्रथम चरण में शब्दों को आगे-पीछे कर छल कवि कविता से करे, कवि छल कविता से करे, कविता से छल कवि करे. छल से कवि कविता करे आदि लिखने पर लय तथा अर्थ भंग नहीं होता किंतु कवि, कविता और छल में से किस पर जोर दिया जा रहा है यह तत्व बदलता है, दोहाकार जिस शब्द पर जोर देना चाहे उसे चुन सकता है, इससे कथ्य के अर्थ और प्रभाव में परिवर्तन होगा। परिवर्तन दोहाकार उचित समझे तो किये जा सकते हैं।
इसी चरण को करे कवि कविता से छल, कविता से करे कवि छल, छल करे कविता से कवि आदि करने पर लय सहज प्रवाममयी जाती अर्थात लय-भंग हो जाती है। ऐसे परिवर्तन नहीं किये जा सकते या उस तरह से दोहा में लय-भंग को दोष कहा जाता है। आरंभ में यह कठिन तथा दुष्कर प्रतीत हो सकता है किन्तु क्रमश: दोहाकार इसे समझने लगता है।
इसी तरह 'ख़ुद को ख़ुद ही मारता' के स्थान पर 'खुद ही खुद को मारता' तो किया जा सकता है किन्तु 'मारता खुद खुद को ही', खुद ही मारता खुद को' जैसे बदलाव नहीं किये जा सकते।
दोहा 'सत्' की साधना, करें शब्द-सुत नित्य.
दोहा 'शिव' आराधना, 'सुंदर' सतत अनित्य.
तप न करे जो सह तपन, कैसे पाये सिद्धि?
तप न सके यदि सूर्ये तो, कैसे होगी वृद्धि?
इन दोहों में यत्किंचित परिवर्तन भी लय भंग की स्थिति बना देता है।
दोहा में कल-क्रम (मात्रा बाँट) :
अ. विषम चरण:
क. विषम मात्रिक आरम्भ- दोहे के प्रथम या तृतीय अर्थात विषम चरण का आरम्भ यदि विषम मात्रिक शब्द (जिस शब्द का मात्रा योग विषम संख्या में हों) से हो तो चरण में कल-क्रम ३ ३ २ ३ २ रखने पर लय सहज तथा प्रवाहमय होती है। चरणान्त में रगण या नगण स्वतः स्थान ग्रहण कर लेगा।
सहज सरल हो कथन यदि, उसे नहीं दें मत कभी आदि में यह कल-क्रम देखा जा सकता है।
ख. सम मात्रिक आरम्भ- दोहे के प्रथम या तृतीय अर्थात विषम चरण का आरम्भ यदि सम मात्रिक शब्द (जिस शब्द का मात्रा योग सम संख्या में २ या ४ हों) से हो तो चरण में कल-क्रम ४ ४ ३ २ रखने पर लय सहज तथा प्रवाहमय होती है। चरणान्त में रगण या नगण स्वतः स्थान ग्रहण कर लेगा।
दोहा रोला रचें हँस, आश्वासन दे झूठ जो वह आदि में यह कल-क्रम दृष्टव्य है।
आ. सम चरण:
ग. विषम मात्रिक आरम्भ- दोहे के द्वितीय या चतुर्थ अर्थात सम चरण का आरम्भ यदि विषम मात्रिक शब्द (जिस शब्द का मात्रा योग विषम संख्या में हों) से हो तो चरण में कल-क्रम ३ ३ २ ३ रखने पर लय निर्दोष होती है। यहाँ त्रिमात्रिक शब्द गुरु लघु है, वह लघु गुरु नहीं हो सकता। चरणान्त में तगण या जगण रखना श्रेयस्कर है।
समय जाए व्यर्थ, वह भटकाता राह आदि में ऐसी मात्रा बाँट देखिए।
घ. सम मात्रिक आरंभ- दोहे के द्वितीय या चतुर्थ अर्थात सम चरण का आरम्भ यदि सम मात्रिक शब्द (जिस शब्द का मात्रा योग सम संख्या में हों) से हो तो चरण में कल-क्रम ४ ४ ३ रखने पर लय मधुर होती है। यहाँ त्रिमात्रिक शब्द गुरु लघु है, वह लघु गुरु नहीं हो सकता। चरणान्त में तगण या जगण रखना श्रेयस्कर है।
पाठक समझें अर्थ, जिसकी करी न चाह आदि में मात्राओं का क्रम इसी प्रकार है।
सहज सरल हो कथन यदि, पाठक समझें अर्थ।
दोहा रोला रचें हँस, समय जाए व्यर्थ।।
उसे नहीं दें मत कभी, जिसकी करी न चाह।
आश्वासन दे झूठ जो, वह भटकाता राह।।
***
अलंकार सलिला: २८
भ्रांतिमान अलंकार
*
समझें जब उपमेय को, भ्रम से हम उपमान
भ्रांतिमान होता वहीँ, लें झट से पहचान.
जब दिखती है एक में, दूजे की छवि मीत.
भ्रांतिमान कहते उसे, कविजन गाते गीत..
गुण विशेष से एक जब, लगता अन्य समान.
भ्रांतिमान तब जानिए, अलंकार गुणवान..
भ्रांतिमान में भूल से, लगे असत ही सत्य.
गुण विशेष पाकर कहें, ज्यों अनित्य को नित्य..
जैसे रस्सी देखकर, सर्प समझते आप.
भ्रांतिमान तब काव्य में, भ्रम लख जाता व्याप..
जब रूप, रंग, गंध, आकार, कर्म आदि की समानता के कारण भूल से प्रस्तुत में अप्रस्तुत का आभास होता है, तब ''भ्रांतिमान अलंकार'' होता है.
जब दो वस्तुओं में किसी गुण विशेष की समानता के कारण भ्रमवश एक वस्तु को अन्य वस्तु समझ लिया जाये तो उसे ''भ्रांतिमान अलंकार'' कहते हैं.
उदाहरण:
१. कपि करि ह्रदय विचार, दीन्ह मुद्रिका डारि तब.
जनु असोक अंगार, दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ.. -तुलसीदास
यहाँ अशोक वृक्ष पर छिपे हनुमान जी द्वारा सीताजी का विश्वास अर्जित करने के लिए श्री राम की अँगूठीफेंके जाने पर दीप्ति के कारण सीता जी को अंगार का भ्रम होता है. अतः, भ्रांतिमान अलंकार है.
२. जानि स्याम घन स्याम को, नाच उठे वन-मोर.
यहाँ श्री कृष्ण को देखकरउनके सांवलेपन के कारण वन के मोरों को काले बादल होने का भ्रम होता है औरवे वर्षा होना जानकार नाचने लगते हैं. अतः, भ्रांतिमान है.
३. चंद के भरम होत, मोद है कुमोदिनी को.
कुमुदिनी को देखकर चंद्रमा का भ्रम होना, भ्रांतिमान अलंकार का लक्षण है.
४. चाहत चकोर सूर ओर, दृग छोर करि.
चकवा की छाती तजि, धीर धसकति है..
५. हँसनि में मोती से झरत जनि हंस दौरें बार मेघ मानी बोलै केकी वंश भूल्यौ है.
कूजत कपोत पोत जानि कंठ रघुनाथ फूल कई हरापै मैन झूला जानि भूल्यौ है.
ऐसी बाल लाल चलौ तुम्हें कुञ्ज लौं देखाऊँ जाको ऐसो आनन प्रकास वास तूल्यौ है.
चितवे चकोर जाने चन्द्र है अमल घेरे भौंर भीर मानै या कमल चारु फूल्यौ है.
६. नाक का मोती अधर की कांति से.
बीज दाडिम का समझ कर भ्रांति से.
देखकर सहसा हुआ शुक मौन है.
सोचता है अन्य शुक यह कौन है. - मैथिलीशरण गुप्त
७. काली बल खाती चोटी को देख भरम होता नागिन का. -सलिल
८. अरसे बाद
देख रोटी चाँद का
आभास होता. -सलिल
९. जन-गण से है दूर प्रशासन
जनमत की होती अनदेखी
छद्म चुनावों से होता है
भ्रम सबको आजादी का. -सलिल
१०. पेशी समझ माणिक्य को, वह विहग, देखो ले चला
११. मनि मुख मेलि डारि कपि देहीं
१२. चंद अकास को वास विहाई कै
आजु यहाँ कहाँ आइ उग्यौ है?
भ्रांतिमान अलंकार सामयिक विसंगतियों को उद्घाटित करने, आम आदमी की पीडा को शब्द देने और युगीन विडंबनाओं पर प्रहार करने का सशक्त हथियार है किन्तु इसका प्रयोग वही कर सकता है जिसे भाषा पर अधिकार हो तथा जिसका शब्द भंडार समृद्ध हो.
साहित्य की आराधना आनंद ही आनंद है.
काव्य-रस की साधना आनंद ही आनंद है.
'सलिल' सा बहते रहो, सच की शिला को फोड़कर.
रहे सुन्दर भावना आनंद ही आनंद है.
*************
मुक्तिका
नारी और रंग
*
नारी रंग दिवानी है
खुश तो चूनर धानी है
लजा गुलाबी गाल हुए
शहद सरीखी बानी है
नयन नशीले रतनारे
पर रमणी अभिमानी है
गुस्से से हो लाल गुलाब
तब लगती अनजानी है।
झींगुर से डर हो पीली
वीरांगना भवानी है
लट घुँघराली नागिन सी
श्याम लता परवानी है
दंत पंक्ति या मणि मुक्ता
श्वेत धवल रसखानी है
स्वप्नमयी आँखें नीली
समुद-गगन नूरानी है
ममता का विस्तार अनंत
भगवा सी वरदानी है
२७-४-२०१९
***
कार्यशाला-
गीत-प्रतिगीत
राकेश खण्डेलवाल-संजीव वर्मा 'सलिल'
*
गह​​न निशा में तम की चाहे जितनी घनी घटाएं उमड़े
पथ को आलोकित करने को प्राण दीप मेरा जलता है
पावस के अंधियारों ने कब अपनी हार कहो तो मानी
हर युग ने दुहराई ये ही घिसी पिटी सी एक कहानी
क्षणिक विजय के उन्मादों ने भ्रमित कर दिया है मानस को
पलक झुकाकर तनिक उठाने पर दिखती फिर से वीरानी
लेकिन अब ज्योतिर्मय नूतन परिवर्तन की अगन जगाने
निष्ठा मे विश्वास लिए यह प्राण दीप मेरा जलता है
खो्टे सिक्के सा लौटा है जितनी बार गया दुत्कारा
ओढ़े हुए दुशाला मोटी बेशर्मी की ,यह अँधियारा
इसीलिए अब छोड़ बौद्धता अपनानी चाणक्य नीतियां
उपक्रम कर समूल ही अबके जाए तम का शिविर उखाड़ा
छुपी पंथ से दूर, शरण कुछ देती हुई कंदराएँ जो
उनमें ज्योतिकलश छलकाने प्राण दीप मे​रा जलता है
दीप पर्व इस बार नया इक ​संदेसा लेकर है आया
सीखा नहीं तनिक भी तुमने तम को जितना पाठ पढ़ाया
अब इस विषधर की फ़ुंकारों का मर्दन अनिवार्य हो गया
दीपक ने अंगड़ाई लेकर उजियारे का बिगुल बजाया
फ़ैली हुई हथेली अपनी में सूरज की किरणें भर कर
तिमिरांचल की आहुति देने प्राण दीप मेरा जलता है
३१ अक्टूबर २०१६
गीतसम्राट अग्रजवत राकेश खंडेलवाल को सादर समर्पित
​​
प्रति गीत
*
मेरा प्राण दीप जलता है, स्नेह तुम्हारा अक्षय पाकर
श्वास न रास आस की सकती थाम, तुम्हारे बिना निमिष भर
*
पावस के अँधियारे में बन विद्युत्छ्टा राह दिखलातीं
बौछारों में साथ भीगकर तन-मन एकाकार बनातीं
पलक झुकी उठ नयन मिले, दिल पर बिजली तत्काल गिर गयी
झुलस न हुलसी नव आशाएँ, प्यासों की हर प्यास जिलातीं
मेरा आत्म अवश मिलता है, विरति-सुरति में सद्गति बनकर,
मेरा प्राण दीप जलता है, स्नेह तुम्हारा अक्षय पाकर
*
खरा हो गया खोटा सिक्का, पारस परस पुलकता पाया
रोम-रोम ने सिहर-सिहर कर, सपनों का संतूर बजाया
अपनों के नपनों को बिसरा, दोहा-पंक्ति बन गए मैं-तुम
मुखड़ा मुखड़ा हुआ ह्रदय ही हुआ अंतरा, गीत रचाया
मेरा काय-कुसुम खिलता है, कोकिल-कूक तुम्हारी सुनकर
मेरा प्राण दीप जलता है, स्नेह तुम्हारा अक्षय पाकर
*
दीप-पर्व हर रात जगमगा, रंग-पर्व हर दिन झूमा सा
तम बेदम प्रेयसि-छाया बन, पग-वंदन कर है भूमा सा
नीलकंठ बन गरल-अमिय कर, अर्ध नारि-नर द्वैत भुलाकर
एक हुए ज्यों दूर क्षितिज पर नभ ने
मेरा मन मुकुलित होता है, तेरे मणिमय मन से मिलकर
मेरा प्राण दीप जलता है, स्नेह तुम्हारा अक्षय पाकर
*
टीप- भूमा = धरती, विशाल, ऐश्वर्य, प्राणी।
२.११.२०१६ जबलपुर
***
मुक्तिका:
किसलिए?...
*
हर दिवाली पर दिए तुम बालते हो किसलिए?
तिमिर हर दीपक-तले तुम पालते हो किसलिए?
चाह सूरत की रही सीरत न चाही थी कभी.
अब पियाले पर पियाले ढालते हो किसलिए?
बुलाते हो लक्ष्मी को लक्ष्मीपति के बिना
और वह भी रात में?, टकसालते हो किसलिए?
क़र्ज़ की पीते थे मय, ऋण ले के घी खाते रहे.
छिप तकादेदार को अब टालते हो किसलिए?
शूल बनकर फूल-कलियों को 'सलिल' घायल किया.
दोष माली पर कहो- क्यों डालते हो किसलिए?
***
मुक्तिका:
*
ज्यों मोती को आवश्यकता सीपोंकी.
मानव मन को बहुत जरूरत दीपोंकी..
संसद में हैं गर्दभ श्वेत वसनधारी
आदत डाले जनगण चीपों-चीपोंकी..
पदिक-साइकिल के सवार घटते जाते
जनसंख्या बढ़ती कारों की, जीपोंकी..
चीनी झालर से इमारतें है रौशन
मंद हो रही ज्योति झोपड़े-चीपों की..
नहीं मिठाई और पटाखे कवि माँगे
चाह 'सलिल' मन में तालीकी, टीपोंकी..
२-११-२०१०

*** 

कोई टिप्पणी नहीं: