पुस्तक चर्चा-
उपन्यास देवयानी : "स्त्री-पुरुष" के रिश्ते की मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक व्याख्या
- राजीव थेपरा
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दर्द का हद से ज्यादा गुजर जाना भी जीवन को गहरा बनाता है, प्रेम के एहसास को दरिया बनाता है और प्रेम की अनुभूतियों को और भी ज्यादा सघन बनाता हुआ प्रेम को एक उच्चतर आयाम तक पहुंचाता है। लेकिन यह भी तभी संभव है, जब व्यक्ति उस तल का हो। यानी कि व्यक्ति में समय और परिस्थितियों के मुताबिक वह समझ विकसित होती चली जाए, जबकि वह दर्द के तमाम एहसासात को अपने भीतर बहुत ही गहराई तक महसूस करता हुआ अपने भीतर घनीभूत हुए उस "आत्म" को महसूस कर सके, जो उसके भीतर सदा से रूहानी है! और सच यह भी है कि कुछ एक विरले लोग ही ऐसा कर पाने में सक्षम होते हैं। ऐसा ही एक सक्षम व्यक्तित्व हजारों शब्दों की अभिव्यक्ति के द्वारा मुझ में से होकर गुजरा है, वह है - दीप्ति गुप्ता के उपन्यास की नायिका देवयानी। अगर मैं कहूँ कि दर्द का एक दूसरा नाम देवयानी, तो अत्युक्ति न होगी।
देवयानी नाम यूँ तो एक उपन्यास का है, जिसकी नायिका देवयानी है, जिसके जीवन के प्रथमार्ध में जिस प्रकार एक अजस्र प्रेम किसी अविरल बहती हुई, अथाह पानी से भरी हुई गंगा के रूप में आता है और तकरीबन 20 वर्षों तक यह अविरल प्रेम मनुज और देवयानी के हृदय को अपनी अनन्त ऊष्मा और ऊर्जा से तरंगायित कर, अचानक इस प्रकार विदा होता है, जैसे वह कभी था ही नहीं! तो पहले प्रेम, फिर पूरी तरह कानूनी धरातल पर विछोह, जिसके चलते फिर से एक-दूसरे का होने की कोई उम्मीद की किरण ही नहीं बचती। आगे अब क्या होगा....नायिका देवयानी अकेली दो बच्चों को पालने-पोसने, उन्हें शिक्षित करने से लेकर, सैटिल करने की महती ज़िम्मेदारी कैसे सम्भालेगी? नौकरी को भी ज़िम्मेदारी से निबाहना, दूसरी ओर भावनात्मक और सामाजिक सहारे का पीछे छूट जाना, इस दर्द और अकेलेपन के साथ जीवन कैसे काट पाएगी - ये अनेक तरह के विचार पाठक को घेर लेते हैं, उस पर हावी हो जाते हैं। एक सस्पेंस बनना शुरू हो जाता है कि आगे क्या होगा!
आरंभ में देवयानी की दिनचर्या, घर का सहज-सलोना वातावरण, बेटे-बेटी से प्यारी बातें, मन को मोहती हैं। देवयानी के मन में, कुछ साल पहले तक उससे बेहद लगाव रखने वाले पति "मनु" के बदले हुए रुख़ को रखकर, चिन्ता और आशंकाओं के तूफ़ान उठना और देवयानी का अपने विचलित व मायूस मन को समझाना....सहज भाव ओढ़े, घर-परिवार और नौकरी में अपने को बहलाए रखना, परंतु किसी को भी अपनी वेदना और व्यथा की भनक न लगने देना - इस सबसे रू-ब-रू हो, पाठक आगे जानने की जिज्ञासा के साथ, देवयानी के साथ बना रहता है। मूल कथा के साथ अवान्तर लघु कथाओं और घटनाओं को लेखिका ने बहुत ख़ूबसूरती के बुना है।
उत्तराखंड के कुछेक हिस्सों के एक विस्तृत इतिहास के विभिन्न पक्षों एवं उन तमाम वादियों की खूबसूरती का बखान करता सुख, उपन्यास धीरे-धीरे जब आगे बढ़ता है, तो, प्रेम के स्थूल रूप से लेकर उसके उत्ताल रूप तक का वर्णन करता हुआ, दर्शन एवं आध्यात्मिकता की गहराई तक पहुँच जाता है। कभी-कभी कुछ आख्यान इस तरह से कह दिए जाते हैं, कि उनके पूरे होने के पश्चात ऐसा लगता ही नहीं कि कि जैसे कि वह काल्पनिक हों, बल्कि उनका एक-एक शब्द किसी की बीते जीवन की दास्तान सा लगता है। इस अद्भुत रूप से हृदयग्राही उपन्यास में तेजी से चलता हुआ घटनाक्रम इस तरह बदलता जाता है कि पाठक उनसे बंधा रह जाता है। सच तो यह भी है कि प्रेम के अतिरेक के बाद एक समय ऐसा भी आता है , जब पुरुष मन उस अतिरेक की एकरसता से ही ऊबकर किसी और ही ठाह में रमने को उत्सुक होने लगता है। इसी बहाने पुरुष मन की समस्त परतों की तरह तरह से पड़ताल की गई है, उनका सांगोपांग वर्णन, मनोविज्ञान पर लेखिका की पकड़ को दर्शाता है, लेकिन साथ ही देवयानी के मन में उमड़-घुमड़ कर रहे भावों को दार्शनिकता और आध्यात्मिकता की दृष्टि से प्रस्तुत करते हुए, जिस प्रकार देवयानी का व्यक्तित्व सामने रखा है, उससे नायिका का मात्र, बेहतरीन उदात्त स्वरूप ही सामने नहीं आता, बल्कि वो प्रेम की एक अटूट व धवल साधक के समान प्रतीत होती है।
किसी नए प्रेम के प्रति या किसी नए रिश्ते के प्रति पुरुष के अति उतावलेपन को रेखांकित करते हुए पुरुष की समस्त मन स्थितियों का जिस प्रकार का वर्णन लेखिका करती है, वह हमारे समाज में मौजूद अनेक व्यक्तियों में भी व्याप्त प्रतीत होता है। आए दिन हमारे सम्मुख घटने वाली घटनाओं में हम लगातार इसे होता हुआ पाते हैं कि किस प्रकार कोई पुरुष अपने जीवन में आने वाले किसी नई आने वाली स्त्री अथवा प्रेमिका के आगे बिछ-सा जाता है और वह उसकी इतनी मनुहार, इतनी बड़ाई और इतनी चिंता करता हुआ उस पर अपना प्यार और अधिकार जताता है, जैसे स्त्री के लिए उस पुरुष से बढ़कर दूसरा कोई हो ही नहीं! बल्कि एकमात्र वह पुरुष ही उस स्त्री का खुदा है और अक्सर स्त्री पुरुष की बातों में आकर अपना सर्वस्व उसके सम्मुख हार बैठती है और यह सब कुछ प्रेम का यह घनीभूत स्वरूप तब तक चलता रहता है, जब तक कि उस पुरुष के जीवन में कोई नई स्त्री नहीं आ जाती! लेकिन जो पुरुष अपने जीवन में आई हुई एक निष्ठावान, हर प्रकार उसके लिए सुंदर और सुशील स्त्री के एकनिष्ठ प्रेम को भूलने में देर नहीं लगाता, वह भला दूसरी स्त्री में भी कब तक रम सकता हैं?
विभिन्न अभिव्यंजनाओं अध्यात्मिकताओं, दार्शनिकताओं और विश्वभर के अनेकानेक दार्शनिकों एवं आध्यात्मिक प्रवर्तकों के उदगारों को अपने उपन्यास में परिस्थितियों के मुताबिक यथेष्ठ स्थान प्रदान करते हुए पुरुष मन की गहराई तक जाकर उसकी हर एक चपलता और कुटिलता को नापते हुए, लेखिका उसके पौरुष के विभिन्न उच्च पक्षों का भी बख़ूबी वर्णन करती हैं। उससे लेखिका की पुरुष के बारे में किसी एकपक्षीय दृष्टि नहीं, बल्कि संपूर्ण दृष्टि का वैभव दिखाई देता है। और यह वैभव उपन्यास के अंत में बख़ूबी नज़र आता है।
अपनी पहली प्रेमिका और पत्नी से ऊबा हुआ मनुज दूसरी प्रेमिका यानी पत्नी एना से कुछ ही वर्षों में ऊब करे, जब देवयानी के पास, वापस लौटने को व्यग्र होता है और अंततः देवयानी की जिंदगी में लौट आता है, तो उसके पश्चाताप भरे आवेगों का तथा उस पुरुष मन के पाक स्वरूप का परिचय देते हुए लेखिका आखिरकार अपने भावों द्वारा यह व्यक्त कर देती है कि यदि मानव अनजाने में की गई अपनी भूलों को किसी भी भांति स्वीकार कर लेता है, तो उसके जीवन में आया हुआ क्लेश भी दूर होकर जीवन पुन: स्वर्ग की भांति सुंदर और सुखमय हो सकता है। उसके जीवन में फिर से उजास फैल सकता है।
इस उपन्यास के प्रत्येक पृष्ठ को पढ़ते हुए देवयानी के चरित्र के रूप में हर शब्द प्रेम का एक विराट प्रतिमान मालूम पड़ता है, क्योंकि अपने जीवन में आने वाले बिन बुलाए, किंतु एक जबरदस्त दीवाने के अकथनीय प्रेम में डूबी देवयानी को जब अपने उसी प्रेम पात्र से प्रथमत: तनाव और फिर अलगाव और फिर उस अलगाव से पैदा हुआ विरह के रूप में जो धोखा मिलता है, आरंभ में वह धोखा, वह तनाव उसे बिखेरता हुआ, उसे तोड़ डालने को उद्यत दिखता है। किंतु शीघ्र ही अपने दो- दो छोटे बच्चों को देखती हुई उस धोखे को, उस तनाव को, उस विचलन को और अपने दिल में उमड़ रहे तमाम झंझावातों को सहेजती हुई नायिका जिस प्रकार अपने आप को संतुलित करती है, वह किसी भी सुघड़ नारी के लिए एक नायाब उदाहरण की भांति है। पहले पहल नायिका का अपने स्कूल में सर्वश्रेष्ठ होना, फिर जीवन की अन्य गतिविधियों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेना और फिर एक अयाचित प्रेम के अपने जीवन में आने के पश्चात और उसके अनचाहे ही फटाफट घर बसने के बाद में एक सुघड़ बहू के रूप में परिवर्तित हो जाना और अपनी समस्त महत्वकांक्षाओं को अपने से बिल्कुल परे करते हुए अपने आप को पूरी तरह से गृहस्थी में झोंक देना, फिर बीसों बरस इस तरह एक अभूतपूर्व और विराट प्रेम में गुजरने के पश्चात अचानक जीवन में एक नए और उतने ही अभूतपूर्व वैसे ही किसी ठीक विलोम झंझावात का आना किसी भी स्त्री को तोड़ देने के लिए काफी होता है और अक्सर स्त्रियाँ टूट भी जाती हैं और कोई भी टूट सकता है और यह स्वाभाविक भी है।
क्योंकि प्रेम में अचानक से उस प्रेम पात्र से संबंध टूट जाना, वह भी बिना किसी गलती के या बिना किसी संभावना के, जीवन में किसी मृत्यु से कम नहीं होता। यह बहुत बड़ी दुर्घटना होती है, जो व्यक्ति को न केवल अंदर से तोड़ती है, बल्कि धीरे-धीरे उसे झुलसाती हुई उसे एकदम से क्षीण ही बना डालती है। ऊपर-ऊपर ठीक-ठाक जीने की कोशिश करता हुआ आदमी अंदर ही अंदर कहाँ और कितना सुलग रहा होता है, इसकी थाह शायद ही कोई ले पाता है! हालांकि अनुमान सब लगाते हैं और अपने उन्हीं अनुमानों के आधार पर लोग उसे तरह तरह की सलाह भी देते हैं और नए जीवन साथी चुनने को उकसाने की कोशिश करते हैं!
लेकिन अपने करैक्टर के अचल खूँटे से बंधा हुआ कोई "दिल" यह सब करना अस्वीकार कर देता हैं और जीवन की चुनौतियों से जूझने का माद्दा पाल लेता है| तब फिर से अपनी लिखाई-पढ़ाई करते हुए अपने-आप को अध्ययन- अध्यापन के कार्य में व्यस्त करते हुए अपने जीवन को संजोने की कोशिश करता है। जीवन के इस संजोने के क्रम में आदमी के जीवन के मन में उमड़-घुमड़ करने वाले खयालात कभी उसे आध्यात्मिकता की राह पर ले जाते हैं, तो कभी किसी अछोर दार्शनिक आयामों के तले गुम करने की कोशिश करते हैं!
जीवन सदा उभय पक्षीय होता है। यह प्रेम भी है, तो कठोरता भी है। गिरना भी है, तो उठना भी है। आदमी के जीवन के आयाम निम्न तलों से लेकर सर्वश्रेष्ठ तलों तक को छूने में सक्षम होते हैं, कौन किस ओर बहता है, यही आदमी की दिशा तय करता है। घाटियों में जाना आसान है और पहाड़ों में चढ़ना सदा कठिन हुआ करता है और यही वह कारण है, जिसके चलते ज्यादातर लोग नीचे की ओर बहते दिखाई देते हैं, खाइयों में फिसलते और गिरते दिखाई देते हैं। विरले ही लोग इसके ठीक उलट ऊंचाई की ओर चलना पसंद करते हैं, बेशक कभी-कभार उनमें से कोई फिसल कर खाईयों में जा गिरता है, लेकिन उनकी वह यात्रा सदा एक ऊर्ध्वगामी यात्रा के रूप में ही स्वीकार की जाती है। बेशक वह अकेले लगते हों, लेकिन अंततः वही सिद्ध होते हैं और युगों तक अनेकानेक लोगों के लिए अनुकरणीय भी।
पैरेंटल लाइफ तो हर कोई जीता है, लेकिन पैरेंटल लाइफ को एक उदाहरण बनाना, एक मिसाल बनाना, एक उत्कृष्टता बनाना और उसके प्रति एक श्रद्धा पैदा करना, यह कार्य कुछ लोग ही कर पाते हैं और जो इसे कर पाते हैं, वही लोग विलक्षण होते हैं या कि सर्वश्रेष्ठ होते हैं या कि वही लोग लाजवाब होते हैं, अतैव इस भाँति वे ह लोग अनुकरणीय होते हैं। इस उपन्यास की मूल विषय वस्तु भी वही है और सच यह भी है कि घटनाओं के घटाटोप तो हर किसी के लिए होते हैं। इस धरती पर ऐसा कोई नहीं जो संघर्षों से न जूझता हो, जो तनावों से न गुजरता हो। जिसके जीवन में कलुषित पक्ष न आते हों। बावजूद इसके, जो जीवन को अपने अनुरूप एक धनात्मक पक्ष की ओर मोड़ता हुआ, अपने आपको एक उदाहरण की तरह प्रस्तुत करता है, वह अपने उस विरोधी के लिए भी अनुकरणीय बन जाता है, जिसने उसके प्रति व्यर्थ ही डाह पाला हुआ है। वह अपने शत्रुओं के प्रति ईर्ष्या का कारण बन जाता है, लेकिन उसकी यह ईर्ष्या उसके प्रति इज्जत के कारण ही पनपी होती है। क्योंकि अपनी ही कटुता या बेवजह की वैमनस्यता के कारण उसने जिसे अपना शत्रु बनाया हुआ है, वह यदि उससे सभी मामलों में उत्कृष्ट हो, तब उसे उस सच को स्वीकार करना ही पड़ता है। चाहे इसे स्वीकार करने में उसे कितनी ही देर क्यों ना हो जाए!
किंतु यदि किसी दूसरी घटिया शत्रुता के कारण उसी प्रकार जीवन में कोई, जो हमें धोखा देता है, उससे नफरत करना आसान है और उसे क्षमा भी न करें, तो चलेगा और ज्यादातर यही होता भी है। लेकिन धोखा देने वाले के मानवीय पक्ष को समझते हुए उसे न केवल क्षमा करना, बल्कि समय-समय पर उससे मित्रवत व्यवहार करना और एक मित्र के समान बराबर मिलते-जुलते रहना, बातचीत करना, अपने घर में बुलाना, और तो और इतना सब कुछ घटने के बावजूद कभी कोई भावनात्मक मदद भी करना, ऐसा शायद नगण्य प्रतिशत लोगों में ही होता होगा और ऐसी ही उस नगण्य प्रतिशत में शामिल है "देवयानी" का चरित्र! यद्यपि उपन्यास में उत्तराखंड के विभिन्न स्थानों की अपूर्व सुंदरता का अनुपम वर्णन भी है। सूर्योदय व सूर्यास्त, पहाड़, घाटियाँ, फूल, उपवन, और विभिन्न ॠतुओं की ताजगी का एहसास इत्यादि-इत्यादि सब कुछ भरपूर है। लेकिन इन सबसे ऊपर इस उपन्यास का दार्शनिक पक्ष है, जो इसे इसी तरह के अन्य उपन्यासों से अलग करता है। किसी कवि ने कहा भी है दुख हमें मांजता है और इसका अनुपम उदाहरण "देवयानी" नाम का यह उपन्यास है, जिसमें नायिका का आत्मिकता का बोध- दुखों से सामना करते हुए शनै: शनै: परवान चढ़ता जाता है। इस तरह के गहन चिन्तन के अंत में देवयानी का अपना यह आत्मालाप'___
"खैर जाने दे देवयानी! त्याग, समर्पण, आत्मिक विसर्जन का अपना ही आनंद है, अपना ही अनोखा सुख है.... इसका स्वाद तो नारी ही जान सकती है! पुरुष यानी निरीह, बालक-सा मचलता, अधीर, बेचैन, हर पल अस्थिर, डगमगाया, दिल के हाथों लुटा...वह क्या जाने 'ढाई आखर' का सच्चा अर्थ, उसकी महिमा...! वह क्या जाने त्याग और समर्पण का परमानंद? यह तो निर्विवाद सत्य है कि अधिकांश पुरुष प्रेम से नहीं अपितु आसक्ति से भरे रहते हैं! अपनी आसक्ति को वे भ्रमवश प्रेम समझते हैं और नारी भी उनके भुलावे में आ जाती है, उनकी आसक्ति को ही प्रेम समझ बैठती है -पर, बाद में पछताती है विश्व के 90% पुरुष इसी आसक्ति और इसके साथ सेटेलाइट की तरह जुड़ी 'एकाधिकार' की अहम भावनाओं के जाल में उलझे होते हैं! तभी वे कभी "ओथेलो" बन अपनी "डैस्डीमोना" को शक की बिना पर मार डालते हैं, तो कभी दुष्यंत बन अपनी शकुंतला को भूल जाते हैं, तो कभी रावण बन परनारी का अपहरण कर लेते हैं, तो कभी वह उसे द्रौपदी के रूप में बांट लेते हैं! सब पुरुष और स्त्री एक से नहीं होते। पुरुष-पुरुष और स्त्री- स्त्री में बहुत अंतर होता है। लेकिन जिस 'उदात्त प्रेम' की 'एकनिष्ठता' के बारे में देवयानी सोच रही थी, उसके मामले में स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों का बड़ा प्रतिशत ढुलमुल ही देखा गया। इसका तात्पर्य यह भी नहीं कि वफादार पुरुष नहीं होते। साथ ही, ंंयह भी कि कायनात ने नारी और पुरुष को कुछ सहज-स्वाभाविक गुणों से नवाजा है। जिसके अनुसार पुरुष मानसिक और शारीरिक रूप से सशक्त, परुष(कठोर) और साहसी या कहें कि दुस्साहसी होता है, जबकि नारी अशक्त कोमल और सहज और असुरक्षा के भाव से भरी होती है। कायनात द्वारा प्रदत्त इन विशेषताओं को नकारा नहीं जा सकता! प्रकृति के इस नियम के तहत ही युगों से धीरे-धीरे बदलते परिवेश में नारी पर अतिरिक्त कार्यभार बढ़ा, उसकी शिक्षा-दीक्षा में बढ़ोतरी हुई, उसकी छवि बदली, लेकिन उसके "सहज गुण" भावनात्मकता, मृदुलता और कोमलता नारी में, हर युग में बनी रही! इसीलिए ही शायद नारी की इतनी प्रगति के बाद भी सब उनसे विनम्र होने की आस लगाते हैं और इसमें कोई बुराई भी नहीं है! इस बात की आशा पुरुष से कम की जाती है। पुरुष भी "विनम्र" हों, तो किसे अच्छा नहीं लगता, लेकिन नारी से इस गुण की अपेक्षा अधिक की जाती है, क्योंकि प्रकृति ने यह गुण उसे अधिक दिया है। पुरुष और स्त्री का यह अंतर बना रहना जरूरी है - संतुलन के लिए! अगर दोनों ही कठोर हो गए या दोनों ही कोमल हो गए, तो असंतुलन हो जाएगा। जहॉं तक बुद्धिमानी और बौद्धिकता का प्रश्न है, उसे बीते युग से, पुरुष अपनी ही बपौती समझता आया है! कारण - युगों से नारी घर की चारदीवारी में रहती आई, कभी मुँह नहीं खोलती थी, न अपना दु:ख- सुख कहती थी, तर्क करना तो बहुत दूर की बात थी! उसकी स्थिति - "बैठ जा- बैठ गई, घूम जा- घूम गई", वाली थीं। अब जब बेटियों को शिक्षित किया जाने लगा, तो उनकी छुपी मानसिक और बौद्धिक क्षमता सहज ही अद्भुत रूप से सामने आई। वह क्षमता, वर्षों से अपनी सशक्त, शासक वाली छवि में जीने वाले पुरुष को नागवार लगी, तो पुरुष की नकारात्मक अनुभूति और कुंठित भावना जाहिर होना स्वभाविक थी। इसमें पुरुष की कोई गलती नहीं। लेकिन धीरे-धीरे पुरुष ने बौद्धिक नारी को स्वीकारना शुरू किया, गति भले ही थोड़ी धीमी रही, पर यह परिवर्तन अभी तक जारी है। यह पुरुष मनोविज्ञान है।
इस प्रकार "देवयानी" नाम का यह उपन्यास न केवल प्रेम, विरह, आलोड़न, विचलन, व्यथा, आदि की कथा कहता है, बल्कि पुरुष और स्त्री मनोविज्ञान की समस्त परतें भी उघाड़ता है। और खास तौर पर पुरुष मनोविज्ञान का एक पक्षीय नहीं, बल्कि संतुलित एवं सम्यक विवेचन प्रस्तुत करता है। हर लेखक की एक व्यापक दृष्टि होती है और उपन्यास की यही विशेषता भी होती है कि वह एक कथानक के साथ एक लेखक की विहंगम दृष्टि को भी प्रस्तुत करता है। क्योंकि लेखक को जो भी कहना होता है, वह अपने पात्रों के मुँह से ही कहलवाता है और यह कहलवाना जितना खूबसूरत बन पड़ता है, उपन्यास भी उतना ही खूबसूरत बन जाता है तथा अपने पाठकों को बांधे रखता है।
मेरी दृष्टि में यह उपन्यास अपने आप में एक लाजवाब एवं अनुपम कृति है और इसे हर एक सजग मनोविज्ञानी और एक आम आदमी को भी पढ़ना चाहिए कि किस प्रकार हमारा ईगो कई बार हमें बेवजह एक दूसरे से दूर ले जाता हैं और किस प्रकार हमारी अपनी भूलों को न मानने की वृत्ति हमें हमारे अपनों से दूर कर सकती है, वही अपने उन्हें भूलों को स्वीकार कर हम उन अपनों से पहले से भी ज्यादा और निकट और निकटतम आ सकते हैं, ऐसी भी संभावनाएँ हमारे इसी जीवन में होती हैं। इस उपन्यास के माध्यम से हम अपनी कमियों को भी परत दर परत उजागर करते हुए, उन्हें आत्मसात करते हुए, अपने जीवन को सरल और बेहतर बनाने का प्रयास कर सकते हैं।लेखिका डॉ. दीप्ति को ढेर बधाई !!
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.राजीव थेपरा
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