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सोमवार, 6 नवंबर 2023

नासदीय सूक्त, सृष्टि उत्पत्ति, प्राण शर्मा, अमरकंटक छंद, सोरठा गीत, मुक्तक, दोहा, कुण्डलिया

सोरठा गीत
कली रखे यदि शूल, कुसुम वीर हो देश में।
कोई सके न भूल, देख बदनीयत से उसे।।
*
तम का करते अंत, तभी रहें जब साथ मिल।
दीपक बाती तेल, ज्योति न होते जब अलग।।
मार मिलातीं धूल, असुरों को दुर्गा शुभे।
सिंह देता रद हूल, कर गर्जन अरि वक्ष में।।
*
चाह रहा है देश, नारी बदले भूमिका।
धारे धारिणी वेश, शुभ-मंगल कर भूमि का।।
वन हों नदिया कूल, शांति स्वच्छता पा विहग।
नभ-सागर मस्तूल, फहराए निज परों के।।
*
पंचतत्व रख शुद्ध, पंच पर्व हम मनाएँ।
करें अनय से युद्ध, विजय विनय को दिलाएँ।।
सुख सपनों में झूल, समय गँवाएँ व्यर्थ मत।
जमा जमीं में मूल, चलो!छुएँ आकाश हम।।
६-११-२०२१
***
मुक्तक
*
स्नेह का उपहार तो अनमोल है
कौन श्रद्धा-मान सकता तौल है?
भोग प्रभु भी आपसे ही पा रहे
रूप चौदस भावना का घोल है
*
स्नेह पल-पल है लुटाया आपने।
स्नेह को जाएँ कभी मत मापने
सही है मन समंदर है भाव का
इष्ट को भी है झुकाया भाव ने
*
'फूल' अंग्रेजी का मैं, यह जानता
'फूल' हिंदी की कदर पहचानता
इसलिए कलियाँ खिलाता बाग़ में
सुरभि दस दिश हो यही हठ ठानता
*
उसी का आभार जो लिखवा रही
बिना फुरसत प्रेरणा पठवा रही
पढ़ाकर कहती, लिखूँगी आज पढ़
साँस ही मानो गले अटका रही
२९.१०.२०१७
***
हिंदी के नए छंद १२
कृष्णमोहन छन्द
विधान-
1. प्रति पंक्ति 7 मात्रा
2. प्रति पंक्ति मात्रा क्रम गुरु लघु गुरु लघु लघु
गीत
रूप चौदस
.
रूप चौदस
दे सदा जस
.
साफ़ हो तन
साफ़ हो मन
हों सभी खुश
स्वास्थ्य है धन
बो रहा जस
काटता तस
बोलती सच
रूप चौदस.
.
है नहीं धन
तो न निर्धन
हैं नहीं गुण
तो न सज्जन
ईश को भज
आत्म ले कस
मौन तापस
रूप चौदस.
.
बोलना तब
तोलना जब
राज को मत
खोलना अब
पूर्णिमा कह
है न 'मावस
रूप चौदस
.
मैल दे तज
रूप जा सज
सत्य को वर
ईश को भज
हो प्रशंसित
रूप चौदस
.
वासना मर
याचना मर
साथ हो नित
साधना भर
हो न सीमित
हर्ष-पावस
साथ हो नित
रूप चौदस
.......
१८-१०-२०१७
***
हिन्दी के नये छंद १३
अमरकंटक छंद
विधान-
1. प्रति पंक्ति 7 मात्रा
2. प्रति पंक्ति मात्रा क्रम लघु लघु लघु गुरु लघु लघु
गीत
नरक चौदस
.
मनुज की जय
नरक चौदस
.
चल मिटा तम
मिल मिटा गम
विमल हो मन
नयन हों नम
पुलकती खिल
विहँस चौदस
मनुज की जय
नरक चौदस
.
घट सके दुःख
बढ़ सके सुख
सुरभि गंधित
दमकता मुख
धरणि पर हो
अमर चौदस
मनुज की जय
नरक चौदस
.
विषमता हर
सुसमता वर
दनुजता को
मनुजता कर
तब मने नित
विजय चौदस
मनुज की जय
नरक चौदस
.
मटकना मत
भटकना मत
अगर चोटिल
चटकना मत
नियम-संयम
वरित चौदस
मनुज की जय
नरक चौदस
.
बहक बादल
मुदित मादल
चरण नर्तित
बदन छागल
नरमदा मन
'सलिल' चौदस
मनुज की जय
नरक चौदस
६-११-२०१८
.......
कार्यशाला
रचना-प्रतिरचना
*
रचना
ग़ज़ल - प्राण शर्मा
----------
देश में छाएँ न ये बीमारियाँ
लोग कहते हैं जिन्हें गद्दारियाँ
+
ऐसे भी हैं लोग दुनिया में कई
जिनको भाती ही नहीं किलकारियाँ
+
क्या ज़माना है बुराई का कि अब
बच्चों पर भी चल रही हैं आरियाँ
+
राख में ही तोड़ दें दम वो सभी
फैलने पाएँ नहीं चिंगारियाँ
+
`प्राण`तुम इसका कोई उत्तर तो दो
खो गयी हैं अब कहाँ खुद्दारियाँ
+
प्रतिरचना
मुक्तिका - संजीव
*
हैं चलन में आजकल अय्यारियाँ
इसलिए मुरझा रही हैं क्यारियाँ
*
पश्चिमी धुन पर थिरकती है कमर
कौन गाये अब रसीली गारियाँ
*
सूक्ष्म वसनों का चलन ऐसा चला
बदन पर खीचीं गयीं ज्यों धारियाँ
*
कान काटें नरों के बचकर रहो
अब दुधारी हो रही हैं नारियाँ
*
कौन सोचे देश-हित की बात अब
खेलते दल आत्म-हित की पारियाँ
*
***
गीत
*
जीवन की बगिया में
महकाये मोगरा
पल-पल दिन आज का।
*
श्वास-श्वास महक उठे
आस-आस चहक उठे
नयनों से नयन मिलें
कर में कर बहक उठे
प्यासों की अँजुरी में
मुस्काये हरसिंगार
छिन-छिन दिन आज का।
*
रूप देख गमक उठे
चेहरा चुप चमक उठे
वाक् हो अवाक 'सलिल'
शब्द-शब्द गमक उठे
गीतों की मंजरी में
खिलखलाये पारिजात
गिन -गिन दिन आज का।
*
चुप पलाश दहक उठे
महुआ सम बहक उठे
गौरैया मन संझा
कलरव कर चहक उठे
मादक मुस्कानों में
प्रमुदित हो अमलतास
खिल-खिल दिन आज का।
***
मुक्तक
नींद उड़ानेवाले तेरे सपनों में सँग-साथ रहूँ
जो न किसी ने कह पायी हो, मन ही मन वह बात कहूँ
मजा तभी बिन कहे समझ ले, वह जो अब तक अनजाना
कही-सुनी तो आनी-जानी, सोची-समझी बात तहूँ
६-११-२०१६
***
कुण्डलिया
मन से मन रखते मिले, जनगण करें न भेद.
नेता भ्रम फैला रहे, नाहक- है यह खेद..
नाहक है यह खेद, पचा वे हार न पाये
सहनशीलता भूल और पर दोष लगाएं
पोल खुल रही फिर भी सबक न लें जीवन से

गयीं सोनिया उतर ' सलिल' जनता के मन से

६-११-२०१५
***
मुक्तक:
हमको फ़ख़्र आप पर है, हारिए हिम्मत नहीं
दूरियाँ दिल में नहीं, हम एक हैं रखिये यकीं
ज़िन्दगी ज़द्दोज़हद है, जीतना ही है हमें
ख़त्म कर सब फासले, हम एक होंगे है यकीं
६-११-२०१४
***
Nasadiya Sukta (called Hymn of Creation in the West)
नासदासींनॊसदासीत्तदानीं नासीद्रजॊ नॊ व्यॊमापरॊ यत् ।
किमावरीव: कुहकस्यशर्मन्नभ: किमासीद्गहनं गभीरम् ॥१॥
Then even nothingness was not, nor existence,
There was no air then, nor the heavens beyond it.
What covered it? Where was it? In whose keeping
Was there then cosmic water, in depths unfathomed?
न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या।आन्ह।आसीत् प्रकॆत: ।
आनीदवातं स्वधया तदॆकं तस्माद्धान्यन्नपर: किंचनास ॥२॥
Then there was neither death nor immortality
nor was there then the torch of night and day.
The One breathed windlessly and self-sustaining.
There was that One then, and there was no other.
तम।आअसीत्तमसा गूह्ळमग्रॆ प्रकॆतं सलिलं सर्वमा।इदम् ।
तुच्छॆनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिना जायतैकम् ॥३॥
At first there was only darkness wrapped in darkness.
All this was only unillumined water.
That One which came to be, enclosed in nothing,
arose at last, born of the power of heat.
कामस्तदग्रॆ समवर्तताधि मनसॊ रॆत: प्रथमं यदासीत् ।
सतॊबन्धुमसति निरविन्दन्हृदि प्रतीष्या कवयॊ मनीषा ॥४॥
In the beginning desire descended on it -
that was the primal seed, born of the mind.
The sages who have searched their hearts with wisdom
know that which is is kin to that which is not.
तिरश्चीनॊ विततॊ रश्मीरॆषामध: स्विदासी ३ दुपरिस्विदासीत् ।
रॆतॊधा।आसन्महिमान् ।आसन्त्स्वधा ।आवस्तात् प्रयति: परस्तात् ॥५॥
And they have stretched their cord across the void,
and know what was above, and what below.
Seminal powers made fertile mighty forces.
Below was strength, and over it was impulse.
कॊ ।आद्धा वॆद क‌।इह प्रवॊचत् कुत ।आअजाता कुत ।इयं विसृष्टि: ।
अर्वाग्दॆवा ।आस्य विसर्जनॆनाथाकॊ वॆद यत ।आबभूव ॥६॥
But, after all, who knows, and who can say
Whence it all came, and how creation happened?
the gods themselves are later than creation,
so who knows truly whence it has arisen?
इयं विसृष्टिर्यत ।आबभूव यदि वा दधॆ यदि वा न ।
यॊ ।आस्याध्यक्ष: परमॆ व्यॊमन्त्सॊ आंग वॆद यदि वा न वॆद ॥७॥
Whence all creation had its origin,
he, whether he fashioned it or whether he did not,
he, who surveys it all from highest heaven,
he knows - or maybe even he does not know.
RV 10.130

The Nasadiya Sukta (after the incipit ná ásat "not the non-existent") also known as the Hymn of Creation is the 129th hymn of the 10th Mandala of the Rigveda (10:129). It is concerned with cosmology and the origin of the universe
***
जड़ पकड़े चेतन तजे, हो खयाल या माल
'सलिल' खलिश आनंद दे, झूमो दे-दे ताल

यमकीय दोहा

फेस न करते फेस को, छिपते फिरते नित्य
बुक न करें बुक फोकटिया, पाठक 'सलिल' अनित्य
६-११-२०१३
***

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