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सोमवार, 13 नवंबर 2023

मुक्तक, गहोई, गीत, षट्पदी, हाइकु गीत, प्रदीप शुक्ल, सरस्वती, सुमेरु, नरहरी,

सरस्वती वंदना
(हाइकु गीत)
सरस्वती जी!
नमन शत शत
दया करिए।
विनत हम
सिर पर हमारे
हाथ धरिए।।
*
हंसवाहिनी!
अमल विमल दो
मति हमें माँ।
ध्याएँ तुमको
भजन गाकर
नित्य प्रति माँ।।
भाव-रस के
सृजन पथ पर
साथ चलिए।
सरस्वती जी!
नमन शत शत
दया करिए।।
शब्द-अक्षर
सरस सहचर
बन सहारे।
पकड़कर
कर कलम छवि
प्यारी उतारे।।
आँख मन की
खुल निरख जग
कथा कहिए।
सरस्वती जी!
नमन शत शत
दया करिए।।
*
बात अपनी
बिन हिचक हम
मिल लिखेंगे।
समय सच
दर्पण सदृश बिन
भय कहेंगे।।
पीर जग की
सकल हर भव
पार करिए।
सरस्वती जी!
नमन शत शत
दया करिए।
१३-११-२०२२
●●●
मुक्तक
खड़े सीमा पर सजग, सोते न प्रहरी ।
अड़े सरहद पर अभय, रोते न प्रहरी।।
शत्रु भय से काँपते, आएँ न सम्मुख -
मिले अवसर तो कभी, खोते न प्रहरी।।
छंदशाला ५०
सगुण छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी, जयकारी/चौपई, भुजंगिनी/गुपाल, उज्जवला, पुनीत, पादाकुलक, पद्धरि, अरिल्ल, डिल्ला, पज्झटिका, सिंह, मत्त समक, विश्लोक, चित्रा, उपचित्रा, वानवसिका, राम, चंद्र, राजीवगण/माली, शक्ति, बंदन/रोली, पुरारि, पीयूषवर्ष व तमाल छंद)
विधान
प्रति पद १९ मात्रा, पदादि ल, पदांत ज।
लक्षण छंद
सगुण-निर्गुण दोनों है ईश एक।
यह सच सब जानते जिनमें विवेक।।
लघु-जगण हों आदि-अंत साथ-साथ।
करें देशसेवा सभी उठा माथ।।
उदाहरण
गुनगुना रहे भ्रमर, लखकर बसंत।
हिल-मिलकर घूमते, कामिनी-कंत।।
महक मोगरा कहे, मैं भी जवान।
मन मोहे चमेली, सुनाकर गान।।
१२-११-२०२२
•••
छंदशाला ५१
सुमेरु छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी, जयकारी/चौपई, भुजंगिनी/गुपाल, उज्जवला, पुनीत, पादाकुलक, पद्धरि, अरिल्ल, डिल्ला, पज्झटिका, सिंह, मत्त समक, विश्लोक, चित्रा, उपचित्रा, वानवसिका, राम, चंद्र, राजीवगण/माली, शक्ति, बंदन/रोली, पुरारि, पीयूषवर्ष, तमाल व सगुण छंद)
विधान
प्रति पद १९ मात्रा, यति १२-७ या १०-९।
लक्षण छंद
रखे यति बारह-सात, सुमेरु छंद।
दस-नौ भी हो यति, पाएं आनंद।।
लघु आदि; यगण से, पदांत भी करें-
काठज्या भाव लय रस, बिंब संग रखें।
उदाहरण
सत्य का अनुगमन, करना है सदा।
धर्म का अनुसरण, करना है बदा।।
जूझना खुद से हमें, प्रभु को भजें-
संतुलन ही साध्य है, सुख मत तजें।।
१३-११-२०२२
•••
छंदशाला ५२
नरहरी छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी, जयकारी/चौपई, भुजंगिनी/गुपाल, उज्जवला, पुनीत, पादाकुलक, पद्धरि, अरिल्ल, डिल्ला, पज्झटिका, सिंह, मत्त समक, विश्लोक, चित्रा, उपचित्रा, वानवसिका, राम, चंद्र, राजीवगण/माली, शक्ति, बंदन/रोली, पुरारि, पीयूषवर्ष, तमाल, सगुण व सुमेरु छंद)
विधान
प्रति पद १९ मात्रा, यति १४-५, पदांत न ग ।
लक्षण छंद
बचाने प्रह्लाद प्रगटे, नरहरी।
यति रखे यम-तत्व झपटे, नरहरी।।
नगण गुरु पद अंत रखकर, कवि रचें।
लोक में रचना सरस पुनि, पुनि बचें।।
टीप - याम १४, तत्व ५।
उदाहरण
छल न अपने आपसे किंचित करें।
फल न अपना आपका जो, मत धरें।।
बीज बोया आपने जो वह फले।
देखकर अरि आपसे नाहक जले।।
१३-११-२०२२
•••
***
दोहा सलिला
राम कथा
वह नर हुआ सुरेश, राम कृपा जिस पर हुई।
उससे खुद देवेश, करे स्पृहा निरंतर।।
कहें आंगिरस सत्य, राम कृष्ण दोउ एक हैं।
वे परमेश अनित्य, वेणु छोड़ धनु कर गहें।।
संगीता हर श्वास, जिसके मन संतोष है।
पूरी हो हर आस, सदानंद उसको मिले।।
जब कृपालु हों राम, जय जयंत को तब मिले।
प्रभु बिन विधना वाम, सिय अनंत गुण-धाम हैं।।
कृष्ण कथा रवि-रश्मि, राम कथा आदित्य है।
प्रभु महिमा का काव्य, सच सच्चा साहित्य है।।
भरद्वाज आश्रम चलें, राम कथा सुन धन्य।
मूल्य आचरण में ढलें, जीवन बने प्रणम्य।।
करिए मंगल कार्य, बाधाएँ हों उपस्थित।
करें विहँस स्वीकार्य, तजें न शुभ संकल्प हम।।
परखें आस्था दैव, किसकी कैसी भक्ति है?
विचलित हुआ न कौन?, जिसकी दृढ़ अनुरक्ति है।।
हों सात्विक तब लोग, संत रूप राजा रहे।
तब सत्ता है रोग, अगर नहीं सद आचरण।।
हो शासक सामान्य, हो विशिष्ट किंचित नहीं।
जनमत का प्राधान्य, राम राज्य तब हो यहीं।।
नहीं किसी से बैर, सदा सभी से निकटता।
तभी रहेगी खैर, जब शासक निष्पक्ष हो।।
समरसता ही साध्य, कहें राम दें बैर तज।
स्वामी-सेवक सम रहें, तभी सकेंगे ईश भज।।
राम सखा वर दीन, दीनों के प्रिय हो गए।
बंधु मानकर दौड़ , भेंटें भुज भरकर भरत।।
हैं परमेश्वर एक, किन्तु विभूति अनंत हैं।
हम मानव हों नेक, भिन्न भले ही पंथ हैं।।
कोई ऊँच; न नीच, कण-कण में सिय-राम।
देश-बाग दें सींच, फूले-फले सुदेश तब।।
राजपुत्र होकर नहीं, जन-चयनित थे राम।
जन आकांक्षा थी तभी, राम अवध-राजा हुए।।
मानव है चैतन्य, प्रश्न करे; हल चाहता।
क्यों जग में वैभिन्न्य, प्रभु से उत्तर चाहता।।
परम शक्ति भगवान्, सब कुछ करता है वही।
रखें हमेशा ध्यान, जो करते भोगें 'सलिल'।।
मनुज सोचता रहा, जाकर आते या नहीं?
एक नहीं मत रहा, विविध पंथ तब ही बने।।
भक्ति शक्ति अनुरक्ति, गुरु अनुकंपा से मिले।
साध्य न होती मुक्ति, प्रभु सेवा ही साध्य हो।।
सोच गहे आनंद, कामी नारी मिलन बिन।
धन से रखता प्रेम, लोभी करता व्यय नहीं।।
भक्त न साधे स्वार्थ, प्रेम अकारण ही करे।
लक्ष्य मात्र परमार्थ, कष्ट अगिन हँसकर सही।।
चित्रकार हर चित्र, निजानंद हित बनाता।
कब देखेगा कौन?, क्रय-विक्रय नहिं सोचता।।
निष्ठा ही हो साध्य, बार-बार बदलें नहीं।
अगिन न हों आराध्य, तभी भक्ति होती सफल।।
तन न; साध्य हो आत्म, माय-छाया एक है।
मूर्त तभी परमात्म, काया जब हो समर्पित।।
१३-११-२०२२
***
पुरोवाक
फ़ुरक़त के बहाने : वस्ल के तराने
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
'फ़ुरक़त' (विरह) और वस्ल (मिलन) एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सृष्टि की उत्पत्ति ही प्रकृति और पुरुष के मिलन से होती है। मिलन नव संतति को जन्म देता है जिसका पालन-पोषण मिलनकी अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। अन्य प्राणियों के लिए 'वस्ल' वंश-वृद्धि का माध्यम मात्र है इसलिए 'फ़ुरक़त' का वॉयस सिर्फ मौत होती है। इंसान ने अपने दिमाग के जरिए 'वस्ल' को रोजमर्रा की ज़िंदगी में शामिल कर लिया है। साइंसदां न्यूटन के मुताबिक कुदरत में हर 'एक्शन' का समान लेकिन उलटा 'रिएक्शन' होता है। जब इंसान ने 'वस्ल' की ख़ुशी को रोजमर्रा की ज़िंदगी में जोड़ लिया तो कुदरत ने इंसान के न चाहने पर भी 'फ़ुरक़त' को ज़िंदगी का हिस्सा बना दिया। 'वस्ल' और 'फ़ुरक़त' की शायरी ही 'ग़ज़ल' है। हिंदी में श्रृंगार रस के दो रंग 'मिलन' और 'विरह' के बिना रसानंद की प्राप्ति नहीं हो सकती। यह श्रृंगार जब सूफियाना रंग में ढलता है तो भक्त और भगवान के मध्य संवाद बन जाता है और जब दुनियावी शक्ल अख्तियार करता है तो माशूक और माशूका के दरमियां बातचीत का वायस बनता है।
ग़ज़ल : दिल को दिल से जोड़ती
ग़ज़ल अरबी साहित्य की प्रसिद्ध काव्य विधा है जो बाद में फ़ारसी, उर्दू, हिंदी, बांगला, मराठी, अंग्रेजी सहित विश्व की कई भाषाओँ में कहीं-पढ़ी और सुनी जाती है। अरबी में ग़ज़ल की पैदाइश भारत में आम लोगों और संतों द्वारा गयी जाती दूहों, त्रिपदियों और चौपदियों और षट्पदीयों के परंपरा में थोड़ा बदलाव कर किया गया। चौपदी की तीसरी और चौथी पंक्ति की तरह समभारिक पंक्तियों को जोड़ने पर मुक्तक ने जो शक्ल पाई, उसे ही 'ग़ज़ल' कहा गया। भारत से अरब-फारस तक आम लोगों, संत-फकीरों और व्यापारियों का आना-जाना हमेशा से होता रहा है। उनके साथ अदबी किताबें और जुबान भी यहाँ से वहां जाती रही। पहले तो जुबानी (मौखिक) लेन-देन हुआ होगा , बाद में लिपि का विकास होने पर ताड़पत्र, भोजपत्र पर कलम से लिखकर किताबें और उनकी नकलें इधर से उधर और उधर से इधर होती रहीं। भारत पर मुगलों के हमलों और उनकी सल्तनत कायम होने के दौर में अरबी-फ़ारसी-तुर्की वगैरह का भारत के सरहदी सूबों की जुबानों के साथ घुलना-मिलना होता रहा। नतीजतन एक नई जुबान सिपाहियों, मजदूरों, किसानों, व्यापारियों और हुक्मरानों के काम-काज के दौरान शक्ल अखित्यार करती रही। लश्करों में बोले जाने की वजह से इसे लश्करी, बाजारू काम-काज की जुबान होने की वजह से 'उर्दू' और महलों में काम आने की वज़ह से 'रेख़्ता' कहा गया। बाद में दिल्ली, हैदराबाद और लखनऊ मुगलों की सत्ता के केंद्र बने तो उर्दू जुबान की तीन शैलियाँ (स्कूल्स) सामने आईं।
हिंदी - उर्दू
अरबी-फारसी की जो काव्य शैलियाँ भारत में पसंद की गईं, उनमें 'भारत की चौपदियों को बढ़ाकर सातवीं सदी में बनाई गई ग़ज़ल' अव्वल थी और है। भारत में अपभृंश, संस्कृत, हिंदी तथा अन्य भाषाओँ/बोलिओं में गीति काव्य का विकास उच्चार (सिलेबल्स) के आधार पर उपयोग किये जा रहे वर्णों और मात्राओं से विकसित लय खंड (रुक्न) और छंद (बह्र) से हुआ। बहुत बाद में इसी तरह अरबी-फ़ारसी में ग़ज़ल कही गई। इसी वजह से भारत के लोगों को ग़ज़ल अपनी सी लगी और हिंदी ही नहीं भारत की कई सी दीगर जुबानों में ग़ज़ल कही जाने लगी। भारत में ग़ज़ल की दो शैलियाँ सामने आईं - पहली जो अरबी-फारसी ग़ज़लों की नकल कर उनके भाष-नियमों और बह्रों को आधार बनाकर लिखी गईं और दूसरी जो भारत के छंदों और हिंदी भाषा के व्याकरण, छंदशास्त्र, षट्कोण, बिम्बों का उपयोग कर कही गईं। शुरुआत में उर्दूभाषियों ने हिंदी ग़ज़ल को खारिज करने की कोशिश की बावजूद इसके कि उनके घरों में चूल्हे हिन्दीवालों द्वारा देवनागरी लिपि में उनकी गज़लें पढ़ने की वजह से जल रहे थे। इस तंग नज़रिए ने हिंदी ग़ज़ल को अलहदा पहचान दिलाने के हालत बनाये और हिंदी ग़ज़ल या भारतीय ग़ज़ल मुक्तिका, गीतिका, पूर्णिका, सजल, तेवरी आदि कही जाने लगी।
हिंदी ग़ज़ल - उर्दू ग़ज़ल
एक बात और साफ़ तौर पर समझी जानी चाहिए कि हिंदी ग़ज़ल और उर्दू ग़ज़ल न तो एक ही चीज हैं, न उनको शब्दों (अलफ़ाज़) की बिना पर अलग-अलग किया जा सकता है। बकौल प्रेमचंद बोलचाल की हिंदी और उर्दू प्राय:एक सी हैं। दोनों जुबानों की निरस्त साझा है सिवाय इसके कि उर्दू की लिपि विदेशी है हिंदी की स्वदेशी। उर्दू ग़ज़ल को देवनागरी में लिखेजाने से यह फर्क भी खत्म होता जा रहा है। अब जो फर्क है वह है भाषाओं के भिन्न व्याकरण और पिंगल का। अरबी-फ़ारसी और हिंदी वर्णमाला का अंतर ही उर्दू-हिंदी ग़ज़ल को अलग-अलग करता है। अरबी-फ़ारसी के कुछ हर्फ़ हिंदी वर्णमाला में नहीं हैं, इसी तरह हिंदी वर्णमाला के कुछ अक्षर (वर्ण) अरबी-फारसी जुबान में नहीं हैं। तुकांत-पदांत (काफिया-रदीफ़) नियमों के अनुसार उनके उच्चार भिन्न नहीं समान होने चाहिए। हिंदी वर्णमाला की पंचम ध्वनिवाले शब्द तुकांत-पदांत में हों तो वे अरबी-फ़ारसी वर्णमाला में न होने के कारण उर्दू ग़ज़ल में नहीं लिखे जा सकते। इसी तरह कुछ ध्वनियों के लिए हिंदी वर्णमाला में एक वर्ण है किंतु अरबी-फ़ारसी वर्णमाला में एक से अधिक हर्फ़ हैं, इस वजह से हिंदी के शायर जिन शब्दों को ठीक समझ कर उपयोग करेगा कि उनमें सम ध्वनि है, अरबी-फ़ारसी के अनुसार उनमें भिन्न ध्वनि वाले हर्फ़ होने की वज़ह से उसे गलत कहा जाएगा। हिंदी के संयुक्ताक्षर भी उर्दू ग़ज़ल में स्थान नहीं पा सकते। अरबी-फ़ारसी के बिम्ब-प्रतीक हिंदी ग़ज़ल में अनुपयुक्त होंगे।
डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार 'हिंदी-उर्दू भाषियों की दो कौमें नहीं है, उनकी जाति एक है और बोलचाल की भाषा भी एक सी है।१ डॉ. शर्मा भूल जाते हैं कि जाती और भाषा एक होने पर भी आदमी-औरत, बच्चे-जवान-बूढ़े कुछ समानता रखते हुए भी पूरी तरह एक ही नहीं, भिन्न होते हैं। वे हिंदी-उर्दू के मुख्य अंतर वर्णमाला और विरासत या अतीत को भुला देते हैं। दुर्भाग्य से देवनागरी लिपि में हिंदी भाषियों द्वारा स्वीकारे जाने के बाद भी, अरबी-फ़ारसी से जुड़े रहने का अंधमोह उर्दू ग़ज़ल में भारतीय बिम्ब-प्रतीकों को दोयम दर्जा देता रहा है। खुद को अलग दिखाने की चाह सिर्फ ग़ज़ल में नहीं मुस्लिम संस्थाओं और लोगों के नामों में भी देखी जा सकती है।
हिंदी ग़ज़ल में तुकांत-पदांत का पालन किया जाता है किन्तु अंग्रेजी ग़ज़ल में ऐसा संभव नहीं हो पाता। अंग्रेजी ग़ज़ल में 'पेंशन' और 'अटेंशन' का पदांत स्वीकार्य है, जबकि हिंदी ग़ज़ल में 'होश' और 'कोष' का पदांत दोषपूर्ण कहा जाता है।
ग़ज़ल और संगीत
संगीत के क्षेत्र में ग़ज़ल गाने के लिए इरानी और भारतीय संगीत के मिश्रण से एक अलग शैली निर्मित हुई। भारतीय शास्त्रीय संगीत की ख्याल और ठुमरी शैली से शुरुआत कर अब ग़ज़ल को विविध सरल और मधुर रागों पर लिखा और गाया जाता है।
फ़ुरक़त की गज़लें
इस पृष्ठभूमि में फ़ुरक़त की ग़ज़लों में हिंदी ग़ज़ल और उर्दू ग़ज़ल की विरासत का सम्मिश्रण है। ग़ज़लों की गंगो-जमनी भाषा आँखों से दिमाग में नहीं, दिल में उतरती है। यह ख़ासियत इस ग़ज़लों को खास बनाती है। इन ग़ज़लों में 'कसीदे' से पैदा बताई जाती ग़ज़ल की तरह हुस्नों-इश्क़ के चर्चे नहीं हैं, न ही आशिको-माशूक की चिमगोइयाँ हैं। ये गज़लें वक़्त की आँखों में आँखें डालकर सवाल करती हैं -
मुझको आज़ादी से लेकर आज तक बतलाइए
आस क्या थी और क्या सरकार से हासिल हुआ?
आज़ादी के बाद से 'ब्रेन ड्रेन' (काबिल लोगों का विदेश जा बसना) की समस्या के शिकार इस मुल्क की तरफ से ऐसे खुदगर्ज़ लोगों को आईना दिखाती हैं विभा -
बहुत सोचा कि मैं जीवन गुजारूँ मुल्क के बाहर
मगर ग़ैरों के दर पर मौत भी अच्छी नहीं होती।।
विभा हिदायत देते समय मुल्क के बाशिंदों को भी नहीं बख्शतीं। वे हर उस जगह चोट करती हैं जहाँ बदलाव और सुधार की गुंजाइश देखती हैं।
गली हो या मोहल्ला हो 'विभा' ये ज़ह्न हो दिल हो
कहीं पे भी हो फ़ैली गंदगी अच्छी नहीं लगती।
ज़िन्दगी के मौजूदा हालात पर निगाह डालते हुए विभा देख पाती हैं कि घरों में जैसे-जैसे सहूलियात के सामन आते हैं, आपस में दूरियाँ बढ़ती जाती हैं। इस हक़ीक़त की तनक़ीद करती हुई वे कहती हैं -
फिर तमन्नाओं ने रक्खा है मेरे दिल में क़दम
चाँद मिट्टी के खिलौने मेरे घर में आ गए।।
बेसबब फिर बढ़ गयी हैं घर से अपनी दूरियाँ
हम भले बैठे-बिठाये क्यों सफर में आ गए।।
शहर जाकर गाँव को भूल जाने, शहर से आकर गाँव की फिज़ा बिगाड़ने, माँ की ममता को भूल जाने और अत्यधिक आधुनिकता के लिबास में इतराने की कुप्रवृत्ति पर शब्दाघात करते हुई विभा लिखती हैं -
फ़िज़ाएँ इस गाँव की कहती हैं उससे दूर रह
शह्र से लौटा है कितने पल्लुओं से खेलकर।।
मेरा भाई अब उसी माँ की कभी सुनाता नहीं
बन गया पापा वो जिसके पहलुओं में खेलकर।।
किस कदर लैलाएँ इतराने लगी हैं ऐ 'विभा'
आजकल के मनचले कुछ मजनूओं से खेलकर।।
सदियों पहले आदमी की आंख का पानी मरने की फ़िक्र करते हुए रहीं ने लिखा था 'बिन पानी सब सून', यह फ़िक्र तब से अब तक बरकरार है-
इस ज़माने में अब नहीं ग़ैरत
शर्म आँखों में मर गई साहिब।।
विभा का अंदाज़े-बयां, आम आदमी की जुबान में, उसी के हालात पर इस अंदाज़ में तब्सिरा करना है कि वह खुद ठिठककर सोचने लगे। शर्म ही नहीं साथ में ख़ुशी भी गायब हो गई-
आरज़ू दिल से हो गई रुख़सत
और ख़ुशी रूठकर गई साहिब।।
दुनिया-ए-फ़ानी में आना-जाना, एक दस्तूर की तरह है। विभा सूफियाना अंदाज़ में कहती हैं-
तेरी दुनिया सराय जैसी है
कोई आया अगर गया कोई।।
विभा बेहद सादगी से बात कहती हैं, वे पाठक को चौंकाती या डराती नहीं हैं। पूरी सादगी के बाद भी बात पुरअसर रहती हैं। 'इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ खुदा' -
यूँ तो सच्चाई की चिड़िया छटपटाई थी बहुत
आख़िरश फँस ही गई मक्कारियों के बीच में।।
एक माँ कई औलादों को पाल-पोसकर बड़ा और खड़ा कर देती है पर वे औलादें मिलकर भी माँ को नहीं सम्हाल पातीं। इस कड़वी सचाई को विभा एक शे'र में सामने रखती हैं -
बाँट के खाना ही जिस माँ ने सिखाया था कभी
आज वो खुद बँट गई दो भाइयों के बीच में।।
आज की भौतिकतावादी सोच और स्वार्थकेंद्रित जीवनदृष्टि बच्चों को बदजुबानी और बदगुमानी सिखा रही है -
निगल गई है शराफ़त को आज की तहज़ीब
है बदज़ुबान हुए बेज़ुबान से लड़के।।
कहते हैं 'मनुज बली नहीं होत है, समय होत बलवान'। विभा कहती हैं -
अपनी मर्जी से कोई कब काम होता है यहाँ
वक़्त के हाथों की कठपुतली रहा है आदमी।।
जीवन को समग्रता में देखती इन हिंदी ग़ज़लों में प्रेम भी है, पूरी शिद्दत के साथ है लेकिन वह खाम-ख़याली (कपोल कल्पना) नहीं जमीनी हक़ीक़त की तरह है।
इश्क़ में सोचना क्या है।
सोचने के लिए बचा क्या है?
लड़ गयी आँख हो गया जादू
गर नहीं ये तो हादसा क्या है?
बह्र छोटी हो या बड़ी विभा अपनी बैठत बहुत सफ़ाई और खूबसूरती से कहती हैं -
रात भर मुंतज़िर रहा कोई
छत पे आने से डर गया कोई।।
दिल था बेकार उसको तोड़ गया
ये भला काम कर गया कोई
इन ग़ज़लों में अनुपास अलंकार तो सर्वत्र है ही। यमक की छटा देखिए -
मेरी आँखों से तारे टपकते रहे
रात रोती रही रात भर देखिए।।
'व्यंजना' में बात कहने का सलीका और वक्रोक्ति अलंकार की झलक देखिए -
यह हुनर भी तुम्हीं से सीखा है
चार में दो मिलाके सात करूँ।।
सारत:, फ़ुरक़त की गज़लें वक़्त की नब्ज़ टटोलने की कामयाब कोशिश है। गज़लसरा का यह पहला दीवान पाठकों को पसंद आएगा, यह भरोसा है। विभा हालात की हालत पर नज़र रखते हुए ग़ज़ल कहने का सिलसिला न केवल जरी रखें अपना अगला दीवान जल्द से जल्द लाएँ 'अल्लाह करे जोरे कलम और जियादा'।
संदर्भ १, भाषा और समाज पृष्ठ ३५७।
१३.११.२०२१
संपर्क - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विशववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
ईमेल salil.sanjiv@gmail.com, चलभाष ९४२५१८३२४४
***
हाइकु गीत
*
ऊगे या डूबे
सूर्य कब थकता?
सदा चलता।
*
हमेशा रहे / गतिमान जो वह / है मतिमान।
सही हो दिशा / साथ हो मति-गति / चाहें सुजान।।
पास या दूर
न भूलता मंजिल
तभी वरता।
ऊगे या डूबे
सूर्य कब थकता?
सदा चलता।।
*
रजनी संग सो / उषा के साथ जागे / रंगे प्राची को।
सखी किरणें / गुइंया दोपहरी / वरे संध्या को।।
ताके धरा को
करता रंगरेली
छैला सजता।
ऊगे या डूबे
सूर्य कब थकता?
सदा चलता।।
*
आँखें दिखाता / कभी नहीं झुकाता / नैना लड़ाता।
तम हरता / किसी से न डरता / प्रकाशदाता।।
है खाली हाथ
जग झुकाए माथ
धैर्य धरता।
ऊगे या डूबे
सूर्य कब थकता?
सदा चलता।।
१३.११.२०२१
***
कृति चर्चा :
"गाँव देखता टुकुर-टुकुर" शहर कर रहा मौज
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण - गाँव देखता टुकुर-टुकुर, नवगीत संग्रह, नवगीतकार - प्रदीप कुमार शुक्ल, प्रथम संस्करण, वर्ष २०१८, आवरण - बहुरंगी, पेपरबैक, आकार - २१ से. x १४ से., पृष्ठ १०७, मूल्य ११०/-, प्रकाशक - रश्मि प्रकाशन लखनऊ, गीतकार संपर्क - एन.एच.१, सेक्टर डी, एलडीए कॉलोनी, कानपुर मार्ग, लखनऊ २२६०१२ चलभाष ९४१५०२९७१३ ]
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गाँव से शहरों की ओर निरंतर तथा दिन-ब-दिन बढ़ते पलायन के दुष्काल में, गाँव से आकर महानगर में बसे किन्तु यादों, संपर्कों और स्मृतियों के माध्यम से गाँव से निरन्तर जुड़े नवगीतकार डॉ. प्रदीप शुक्ल द्वारा अपने गाँव को समर्पित यह नवगीत कृति अपनी माटी में जमीं ही नहीं अपितु उससे जुडी हुई जड़ों का जीवंत दस्तावेज है। खड़ी बोली और अवधी के गंगो-जमुनी संगम को समेटे यह प्रति नवगीत पटल पर नवाचार का एक पृष्ठ जोड़ती है। पेशे से चिकित्सक डॉ. प्रदीप कुमार शुक्ल भली-भाँति जानते हैं कि दर्द की दवा किसी एक जीवन सत्व में नहीं, विविध जीवन सत्वों के सम्यक-समुचित समायोजन और सेवन में होती है। उनके नवगीत किसी एक तत्व को न तो अतिरेकी महत्व देते हैं, न ही किसी तत्व की अवहेलना करते हैं। मानवीय चेतना परिवेश, परंपरा और जीवन मूल्यों में विकसित होने के साथ उन्हें नवता प्रदान करती है। संवेदनशीलता नवगीत लेखन और रोग निदान दोनों के लिए उर्वरक का कार्य करती है। प्रदीप जी की बहुआयामी संवेदनशीलता "गुल्लू का गाँव" बाल गीत संग्रह में चांचल्य, "यहै बतकही" अवधी नवगीत संग्रह में पारिवारिक सारल्य तथा "अम्मा रहतीं गाँव में" एवं "गाँव देखता टुकुर-टुकुर" दोनों हिन्दी नवगीत संग्रहों में समरसता की सरस धार प्रवाहित करती है। प्रदीप जी वाचिक परंपरा में अमीर खुसरो प्रणीत कह मुकरियाँ रचने में भी निपुण हैं। यह पृष्ठभूमि उनके नवगीतों को रस, लय व् छंद से समृद्ध करती है। उनका 'रामदीन' रोजी मिलने - न मिलने के चक्रव्यूह में घिरा हगोने के बाद भी धुकुर पुकुर करते दिल से सुरसतिया की अनकही पीड़ा में साझेदार है। गाँवों से पलायन, आजीविका अवसरों का भाव, युवाओं के जाने से नष्ट होती खेती, कॉन्क्रीटी सड़कों से पशुओं के नष्ट होते खुर, गावों को निगलने के लिए तटपर शहर और अपने अस्तित्व खोने की आशंका से टुकुर-टुकुर तकते गाँव सब कुछ चंद शब्दों में बयां कर देना कवी की सामर्थ्य का परिचायक है -
यहाँ शहर में
सारा आलम
आँख खुली बस दौड़ रहा,
वहाँ गाँव में रामदीन
बस दिन उजास के जोड़ रहा
मनरेगा में काम मिलेगा?
दिल करता है धुकुर-पुकुर
सुरतिया के
दोनों लड़के
सूरत गए कमाने हैं
गेहूँ के खेतों में लेकिन
गिल्ली लगी घमाने हैं
लँगड़ाकर चलती है गैया
सड़कों ने खा डाले खुर
दीदा फाड़े शहर देखता
गाँव देखता टुकर-टुकर।
गीतज नवगीत विधा को सामाजिक विसंगति, समसामयिक विडंबना, पारिवारिक बिखराव, व्यक्तिगत दर्द, समष्टिगत पीड़ा, बेबस रुदन आदि का पर्याय माननकर शोकगीत, रुदाली या स्यापा बनाने की असफल कोशिश में निमग्न दुराग्रहियों को प्रदीप जी अपने नवगीतों में प्रकृति सौंदर्य के मनोरम शब्द चित्र अंकित कर सटीक और सशक्त उत्तर देते हैं -
जाड़े में धूप के बिछौने
गुड़हल की पत्ती से
लटक रहे मोती।
अलसाई सुबह बहुत
देर तलक सोती
खिड़की पर किरणों के
फुदक रहे छौने।
श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार निर्मल शुक्ल ठीक ही लिखते हैं - "जब व्यक्ति की अनुभूति, अपनी रागात्मक अवस्था में यथार्थ को छूती है तो गीत का जन्म होता है। यथर्थ की यह आतंरिक सच्चाई जब गहन अनुभूति से शब्द-रूप में परिवर्तित होती है तो उसकी लोक संवेदना सामाजिक सरोकारों से जुड़ जाती है।" व्यक्तिगत पीड़ा का यह सार्वजनीकरण डॉ. प्रदीप शुक्ल के गीतों में सहज दृष्टव्य है किन्तु यह एकाकी या अतिरेकी नहीं है। गीत-नवगीत को भारत-पाकिस्तान की तरह एक-दूसरे के लिए अश्पृश्य, सर्वथा भिन्न और अस्वीकार्य बनाने की जिद ठाने नासमझों को भारतीय परंपरा, संस्कृति और जीवन मूल्यों का समय सापेक्ष उल्लेख कर, प्रदीप जी अपनी रचनाओं में विद्रूपता से साथ सुरूपता का सम्यक सामंजस्य का नीर-क्षीर विवेक का परिचय देते हैं। 'गुलमुहर ने आज हमसे बात की' शीर्षक नवगीत की पंक्तियों में दिशाओं की महक महसूस कीजिए -
"प्यार से
पुचकार कर
उसने हमें विश्राम बोला
वहीं हमने देर तक
भटके हुए मन को टटोला
गुलमुहर ने फिर हमें
बातें कहीं उस रात की।
रात में उस रोज़
महकी थीं सभी चारों दिशाएँ
ओस भीगी रात में जब
खौल उठी थी शिराएँ
और फिर खामोशियाँ थीं
थम चुकी बरसात की
प्रदीप शुक्ल जी की अनेक रचनाएँ गीत-नवगीत दोनों के हाशियों या सीमा रेखाओं पर रची गई हैं। घर के आँगन में जाड़े की धूप का लजाना, कुहरे की चादर में शर्माना, गौरैया का उतरकर चूं-चूं-चूं बोलना, आहट सुनकर कुत्ते का आँखें खोलना और सन्नाटे का भागना जैसे छोटे-छोटे विवरण प्रदीप जी के नवगीतों का वैशिष्ट्य है। इस परिवेश में दर्द की झालं नकली, अतिरेकी या थोपी हुई नहीं लगती। जीवन में धूप-छाँव की तरह सुख-दुख आते-जाते रहते हैं, प्रदीप जी उनका सम्यक सम्मिश्रण करने की सामर्थ्य रखते है-
खड़ी हुई है धूप लजाई
घर के आँगन में
आलस बिखरा
हर कोने में
दुबकी पड़ी रजाई
भोर अभी कुहरे की चादर
में बैठी शरमाई....
.... उतरी है गौरैया
आकर
चूं चूं चूं बोली
आहट सुनकर सोये कुत्ते
ने आँखें खोलीं
दबे भागा
आनन-फानन में
रात रानी की महक से सुवासित 'साँझ का गीत' कको भी महका रहा है-
खिल-खिल कर
हँसते हैं दूर खड़े तारे
अभी और चमकेंगे
रात के दुलारे
उन से ही पूछेंगे
रात की कहानी
खुशबू से महकेगी
अभी रात रानी
चंदा उग आया है
बरगद की डाल
ओ अमलतास, कनेर की बात, गुलमुहर के फूल, देखो आगे मौलसिरी है, जैसे नवगीत पादप संसार, गर्मी का गीत, फागुन, फागुन है पसरा, बरखा, बारिश, मेघा आये रे, बारिश को आना था,अगहन, जाड़े की धूप, चैट, मई का गीत, आदि ऋतुचक्र , यह भारत देश है मेरा, सीमा पर चिट्ठी, याद आयीं अम्मा में संबंधों तथा कहाँ गए तुम पानी, प्यासा रहा शहर, अच्छे दिन अभी लौटे नहीं हैं आदि सामाजिक-राजनैतिक-पर्यावरणीय विसंगतियों पर केंद्रित हैं। प्रदीप जी के गीतों की वैषयिक विविधता उनकी सूक्ष्म अंतर्दृष्टि की परिचायक है। मुझे आश्चर्य नहीं होगा यदि आगामी संकलनों में रोगों पर केंद्रित दें। उनकी सृजन सामर्थ्य मौलिक और लीक से हटकर लिखने में विश्वास रखती है। 'कनेर की बात' बचपन की यादों से बाबस्ता है-
तुम कनेर की बात ना छेड़ो,
बचपन याद दिला जाता है,
हरी-भरी पतली डाली पर
एक नजर रक्खूँ माली पर
किसी तरह से मिल जाए वह
रख दूँ पूजा की थाली पर
बाबा कहते हैं ठाकुर को
पीला फूल बहुत भाता है
सामाजिक सौहार्द्र को क्षति पहुँचाते, मतभेदों को बढ़ाते नवगीतों की खरपतवार के बीच में प्रदीप शुक्ल के नवगीत पंकज पुष्पों की तरह अलग आनंदित करते हैं। इन गीतों की भाषा आक्रामक, तेवर विद्रोही, भाव मुद्रा टकराव प्रधान, भाषा पैनी, शब्द चुभते हुए नहीं हैं। रचनाकार विखंडन नहीं, सृजन और समन्वय का पक्षधर है। वह फिर से सूरज उगाने को गीत रचना का लक्ष्य मानता है। उसके गीतों में विसंगति सुसंगती स्थापित करने की पृष्ठभूमि का काम करती है। वह दर्द पर हर्ष की जय का गायक है। प्रदीप शुक्ल के नवगीत जीवन और जिजीविषा की जय गुँजाते हैं। 'मैं तो चलता हूँ' शीर्षक नवगीत प्रदीप जी के गीतों में नव हौसलों की बानगी पेश करता है। तुमको रुकना हो
रुक जाओ
मैं तो चलता हूँ.
माना बहुत कठिन है राहें
आगे बढ़ने की
मन में लेकिन है इच्छाएँ
सूरज चढ़ने की
तुम सूरज के किस्से गाओ
मैं बस चढ़ता हूँ
प्रदीप शुक्ल का चिकित्सक उन्हें सामाजिक परिवेश में नवगीतों के माध्यम से घाव लगाने या घावों को कुरेदने की मन:स्थिति से दूर है। वे गीतों के माध्यम से घावों की मरहम-पट्टी करते हैं या विसंगतियों से आहत-संत्रस्त मानों को राहत पहुँचाते हैं। सामाजिक विसंगतियों का अतिरेकी चित्रण कर, असंतोष की वृद्धि कर, जनक्रोश उत्पन्न करने के इच्छुक राजनैतिक प्रतिबद्धताओं से जुड़े तथाकथित नवगीतकारों के रुष्ट होने या उनके द्वारा अनदेखे किए जाने जोखिम उठाकर भी डॉ. प्रदीप शुक्ल गीत-नवगीत को रस-सलिला के दो किनारे मानते हुए सटीक भाव-बिम्बों और सम्यक प्रतीकों के द्वारा हैं जो कहा जाना सामाजिक समरसता के है। प्रसाद गुण संपन्न भाषिक शब्दावली और अमिधा में बात करते ये गीत-नवगीत अवध की सरजमीं को तरह-तरह से सजदा करते हैं। दादा, आम आये, पाठक को अपनी जड़ों से जोड़ते हैं। इन नवगीतों में आशावादिता का जो स्वर बार-बार उभरता है वह बहुमूल्य और दुर्लभ है। ऐसा नहीं है की समाज के अमांगलिक पक्ष की और से बंद कर ली गयी हैं। नए साल में क्या बदलेगा, यह भारत देश है मेरा आदि नवगीतों में दीपक अँधेरे की किन्तु अर्चा दीपक के प्रकाश की है। भावी नवगीत को के उन्नयन का साक्षी बनकर अपनी सामायिक-सामाजिक उपयोगिता सिद्ध करनी होगी, चिरजीवी होंगे। यह सृष्टि का सनातन सत्य है कि जो उपयोगी नहीं होता, मिटा जाता है। डॉ. प्रदीप शुक्ल के नवगीत अभिव्यक्ति विश्वम लखनऊ तथा विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर के नवगीत सृजन आयोजनों की सार्थकता प्रमाणित करते हैं। जवाहर लाल चौरसिया 'तरुण', यतीन्द्र नाथ 'राही', गिरि मोहन गुरु, दयाराम गुप्त 'पथिक', निर्मल शुक्ल, मधु प्रधान, अशोक गीते, पूर्णिमा बर्मन, संजीव 'सलिल', संध्या सिंह, जयप्रकाश श्रीवास्तव, डॉ. वीरेंद्र निर्झर, बसंत शर्मा, गोपालकृष्ण 'आकुल', कल्पना रामानी, शीला पांडे,, रामशंकर वर्मा, धीरज श्रीवास्तव, शुभम श्रीवास्तव ॐ, गरिमा सक्सेना, अवनीश त्रिपाठी, शशि पुरवार, रोहित रूसिया, छाया सक्सेना, मिथिलेश बड़गैया आदि का नवगीत सृजन नवगीतों में प्रकृति, परिवेश और समाज की विसंगतियों के साथ-साथ उल्लास, आशावादिता, पर्व, श्रृंगार, आदि के माध्यम सुसंगतियों को भी शब्दांकित किया गया है। डॉ. प्रदीप शुक्ल इसी गीत-गंगा महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। भविष्य में यह नवगीतीय भावधारा अधिकाधिक पुष्ट होना है।
'गाँव देखता टुकुर-टुकुर' के नवगीत विसंगतिवादियों को भले ही रुचें किन्तु सुसंगतिवादी इनका स्वागत करने के साथ ही आगामी संकलन की प्रतीक्षा करेंगे।
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कुण्डलिया
राजनीति आध्यात्म की, चेरी करें न दूर
हुई दूर तो देश पर राज करेंगे सूर
राज करेंगे सूर, लड़ेंगे हम आपस में
सृजन छोड़ आनंद गहेँगे, निंदा रस में
देरी करें न और, वरें राह परमात्म की
चेरी करें न दूर, राजनीति आध्यात्म की
संजीव, १३.११.२०१८
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मुक्तक : गहोई
कहो पर उपकार की क्या फसल बोई?
मलिनता क्या ज़िंदगी से तनिक धोई?
सत्य-शिव-सुन्दर 'सलिल' क्या तनिक पाया-
गहो ईश्वर की कृपा तब हो गहोई।।
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कहो किसका कब सदा होता है कोई?
कहो किसने कमाई अपनी न खोई?
कर्म का औचित्य सोचो फिर करो तुम-
कर गहो ईमान तब होगे गहोई।।
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सफलता कब कहो किसकी हुई गोई?
श्रम करो तो रहेगी किस्मत न सोई.
रास होगी श्वास की जब आस के संग-
गहो ईक्षा संतुलित तब हो गहोई।।
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कर्म माला जतन से क्या कभी पोई?
आस जाग्रत रख हताशा रखी सोई?
आपदा में धैर्य-संयम नहीं खोना-
गहो ईप्सा नियंत्रित तब हो गहोई।।
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सफलता अभिमान कर कर सदा रोई.
विफलता की नष्ट की क्या कभी चोई..
प्रयासों को हुलासों की भेंट दी क्या?
गहो ईर्ष्या 'सलिल' मत तब हो गहोई।
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(गोई = सखी, ईक्षा = दृष्टि, पोई = पिरोई / गूँथी,
ईप्सा = इच्छा,
१३.११.२०१७
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गीत
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पूछ रही पीपल से तुलसी
बोलो ऊँचा कौन?
जब भी मैंने प्रश्न किया
तब उत्तर पाया मौन
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मीठा कोई कितना खाये
तृप्तिं न होती
मिले अलोना तो जिव्हा
चखने में रोती
अदा करो या नहीं किन्तु क्या
नहीं जरूरी नौन?
जब भी मैंने प्रश्न किया है
तब उत्तर पाया मौन
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भुला स्वदेशी खुद को ठगते
फिर पछताते
अश्रु छिपाते नैन पर अधर
गाना गाते
टूथपेस्ट ने ठगा न लेकिन
क्यों चाहा दातौन?
जब भी मैंने प्रश्न किया है
तब उत्तर पाया मौन
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हाय-बाय लगती बलाय
पर नमन न करते
इसकी टोपी उसके सर पर
क्यों तुम धरते?
क्यों न सुहाता संयम मन को
क्यों रुचता है यौन?
जब भी मैंने प्रश्न किया है
तब उत्तर पाया मौन

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षट्पदी

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करे न नर पाणिग्रहण, यदि फैला निज हाथ
नारी-माँग न पा सके, प्रिय सिंदूरी साज?
प्रिय सिंदूरी साज, न सबला त्याग सकेगी
'अबला' 'बला' बने क्या यह वर-दान मँगेंगी ?
करता नर स्वीकार, फजीहत से न डरे
नारी कन्यादान, न दे- वरदान नर करे
१३.११.२०१६
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