झारखंड दिवस १५ नवंबर
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झारखंड का वनक्षेत्र आज़ादी के पूर्व कोल्हान कहलाता था। वर्तमान पश्चिम सिंहभूम में चक्रधरपुर के निकट एक गाँव में १५ नवम्बर १८७५ को बिरसा मुंडा का जन्म हुआ था। चाईबासा में प्रारंभिक पढ़ाई कर उन्होंने मुंडा समाज को एकत्रित किया और २० वर्ष की उम्र में ४०० लोगों की सेना बना अंग्रेजों से जा भिड़े। उनका मुख्य उद्देश्य अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत थी क्योंकि भयंकर अकाल के बाद भी अंग्रेज़ लगान माफ नहीं कर रहे थे। छापामारी युद्ध कला से इन्होंने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था इतिहास में यह आंदोलन 'उलगुलान' के नाम से जाना जाता है। चक्रधरपुर और राँची के बीच भयानक घाटियां हैं पहाड़ियाँ और सघन वन हैं। सोनुआ, करई केला इत्यादि स्थान बिरसा मुंडा के प्रमुख क्षेत्र थे। डोम्बारी घाटी में पैदल तीरधारी मुंडाओं और बंदूकधारी घुड़सवार अंग्रेज़के बीच हुए घमासान युद्ध मेंअंग्रेज़ी सेना के सैंकड़ों जवान हताहत हुए थे। वर्ष १८९७ से १९०० के मध्य बिरसा के नेतृत्व में मुँड़ाओं की अंग्रेजों से कई मुठभेड़ें हुईं। सन १९०० में उन्हें चक्रधरपुर से गिरफ्तार किया गया। कुछ दिनों बाद ही 25 वर्ष की अल्पायु में उनकी मृत्यु हैजा से हो गयी। झारखंड में बिरसा मुंडा को बिरसा भगवान के नाम से जाना जाता है। उन्होंने बिना किसी संसाधन के आज़ादी हेतु किए संघर्ष में अंग्रेजों को लोहे के चने चबवा दिए। उनकी यह कुर्बानी भारत के स्वतंत्रता संग्राम में स्वर्णाक्षरों से लिखी गयी है। आज उनके जन्म दिन पर उनको नमन। झारखंड पृथक राज्य की स्थापना भी इसी लिए बिरसा मुंडा दिवस पर १५ नवम्बर को ही की गई।
कालांतर में छोटा नागपुर और संथाल परगना के आदिवासियों के हित की रक्षा के लिए १९३८ में आदिवासी महासभा का गठन जयपाल सिंह मुंडा ने किया एवं अलग राज्य की माँग की। तब नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने कहा कि अगर यह माँगअभी की जाएगी तो स्वतंत्रता के आंदोलन में अड़चन आएगी। अतः, आज़ादी के बाद अलग राज्य की बात सुनेंगे। जब देश आजाद हुआ तो आदिवासी महासभा में गैर आदिवासी के समावेश के लिए निर्णय लिया गया। वर्ष १९५० नए दल का गठन कार उसकी कमान जयपाल सिंह ने अपने जिगरी दोस्त सीताराम जी जगतरामका को दी जिनका परिवार १८४० में कोल्हान के वनक्षेत्र चक्रधरपुर में आ बसा था और कराईकेला में उनकी रियासत थी। सीताराम जी स्थानीय भाषाओं के अच्छे जानकार थे और संथाली, मुंडारी कुशलता से बोलते थे। अच्छे संगठन कर्ता थे , झारखंड नाम भी उन्होंने सुझाया था। १९५० में झारखंड पार्टी का जन्म हुआ जयपाल सिंह सभापति और सीताराम जी उपसभापति बने। १९५२ के चुनाव में सीताराम जी ने संगठन का नेतृत्व किया और झारखंड क्षेत्र की ४८में से ३२ सीटों पर विजय प्राप्त की। विधान सभा में झारखंड पार्टी मुख्य विपक्षी दल बना। सीताराम जी को एमएलसी बना कर विधान परिषद में भेजा गया एवं वे विपक्ष के नेता बने। १९६१ में सर्व प्रथम विधान सभा के पटल पर उन्होंने अलग राज्य का प्रस्ताव रखा उस रेजोलुसन को बहस के लिए मंजूर किया गया। भारतीय संविधान में भाषा के अनुसार राज्य बनाने का नियम था और मुंडारी और संथाल भक्षियों की संख्या पर्याप्त न होने के कारण प्रस्ताव गिर गया। अपने व्यक्तव्य में सीताराम जी ने बहुत अच्छी तरह बताया कि झारखण्ड तो प्रकृति ने अलग बनाया है बिहार की प्राकृतिक संरचना से यह बिल्कुल अलग है।
१९६२ के चुनाव में झारखंड पार्टी को २० सीट मात्र मिली और वह मुख्य विपक्षी पार्टी नहीं रही। १९६३ में सीताराम जी के विरोध के बावजूद जयपाल सिंह जी ने पार्टी का विलय कांग्रेस में कर दिया । उन्हें केंद्र में मंत्रिपद मिला और सीतारामजी को राज्य में। पर वे ६ महीने भी कांग्रेस की कल्चर में एडजस्ट नहीं हो सके और राजनीति से सन्यास ले लिया। उनकी मित्रता जयपाल सिंह से बनी रही घनिष्ठता इतनी थी कि जब जयपाल सिंह जी का मतभेद उनकी पत्नी से होता तो दोनों सीताराम बाबू के पास ही सुलह के लिए आते। सीतारामजी राजनीति से सन्यास ले चुके थे और आदिवासी नहीं थे। धीरे धीरे उन्हें भुला दिया गया, आज कोई नहीं जानता कि झारखंड गठन में कौन मुख्य भूमिका में था। वर्ष २००० में जब झारखण्ड राज्य बना तब तत्कालीन मुख्यमंत्री ने उन्हें बुलाकर राज्यसभा में सम्मानित अवश्य किया था। उनका निधन २००४ में ९५ वर्ष की आयु में हुआ।
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