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बुधवार, 16 अगस्त 2023

लाल बहादुर शास्त्री

लाल बहादुर शास्त्री
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2 अक्टूबर को महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) के साथ पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री (Lal Bahadur Shastri) का भी जन्मदिन होता है. लेकिन लोग गांधी जयंती (Gandhi Jayanti) के सामने शास्त्री जयंती (Shastri Jayanti) अक्सर भूल जाते हैं. एक सच ये भी है कि भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने अपना प्रोफाइल हमेशा लो रखा. वो ईमानदार, विनम्र और हमेशा धीमे बोलने वाले नेता रहे. उन्होंने बिना शोर शराबा किए देश के निर्माण में योगदान दिया. लो प्रोफाइल व्यक्तित्व रखने की वजह से भी लोग उनकी जयंती याद नहीं रख पाते.

लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर 1904 को उत्तर प्रदेश के मुगलसराय शहर में हुआ. शास्त्री जी का जन्म एक कायस्थ परिवार में हुआ था. उनके पिता का नाम शारदा प्रसाद श्रीवास्तव था. वो एक स्कूल में टीचर थे, बाद में उन्होंने इलाहाबाद के राजस्व विभाग में क्लर्क की नौकरी कर ली.

लाल बहादुर वर्मा को कैसे मिला शास्त्री का टाइटल?

लाल बहादुर शास्त्री के बचपन का नाम लाल बहादुर वर्मा था. कायस्थ परिवार में श्रीवास्तव और वर्मा सरनेम लगाने की परंपरा रही है. इसी के चलते मां-बाप ने उनका नाम लाल बहादुर वर्मा रखा. लाल बहादुर वर्मा के लाल बहादुर शास्त्री बनने की दिलचस्प कहानी है.

लाल बहादुर बचपन से ही पढ़ने-लिखने में काफी तेज थे. 1906 में जब लाल बहादुर की उम्र सिर्फ एक साल और 6 महीने थी, उनके सिर से पिता का साया उठ गया. वो अपनी मां रामदुलारी देवी के साथ अपने ननिहाल मुगलसराय आ गए. शास्त्री जी पढ़ाई लिखाई अपने ननिहाल में हुई.

उनके नाना मुंशी हजारी लाल मुगलसराय के एक सरकारी स्कूल में अंग्रेजी के टीचर थे. 1908 में लाल बहादुर के नाना हजारी लाल का भी निधन हो गया. इसके बाद उनके परिवार की देखभाल हजारीलाल के भाई दरबारी लाल और उनके बेटे बिंदेश्वरी प्रसाद ने की. बिंदेश्वरी प्रसाद भी मुगलसराय के एक स्कूल में टीचर थे.

बचपन में एक मौलवी से ली उर्दू की तालीम

लाल बहादुर की पढ़ाई लिखाई 4 साल की उम्र से शुरू हुई. उस वक्त कायस्थ परिवारों में अंग्रेजी से ज्यादा उर्दू भाषा की शिक्षा देने की परंपरा थी. ऐसा इसलिए था क्योंकि मुगलकाल से भारत में राजकाज की भाषा उर्दू ही हुआ करती थी. जमींदारी के सारे काम-काज उर्दू में होते थे. लाल बहादुर को बुड्ढन मियां नाम के एक मौलवी ने उर्दू की तालीम देनी शुरू की.

छठी क्लास तक उनकी पढाई-लिखाई मुगलसराय में ही हुई. उसके बाद बिंदेश्वरी प्रसाद का ट्रांसफर वाराणसी हो गया. लाल बहादुर को अपनी मां और भाइयों के साथ वाराणसी जाना पड़ा. वाराणसी के हरीश चंद्र हाईस्कूल में सातवीं क्लास में उनका दाखिला हुआ. यही वो वक्त था जब लाल बहादुर ने अपना सरनेम वर्मा छोड़ने का फैसला लिया.

लाल बहादुर के परिवार का स्वतंत्रता आंदोलन से कोई लेना-देना नहीं था. लेकिन हरीश चंद्र हाई स्कूल का माहौल बड़ा देशभक्तिपूर्ण था. वहां के टीचर निष्कामेश्वर मिश्रा बच्चों को देशभक्ति का पाठ पढ़ाते. लाल बहादुर पर इन सबका बड़ा असर पड़ा. वो स्वामी विवेकानंद और महात्मा गांधी के विचारों से प्रभावित हुए.

10वीं क्लास में स्कूल छोड़कर स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े

जनवरी 1921 में जब लाल बहादुर 10वीं क्लास में थे, उन्होंने वाराणसी में महात्मा गांधी और मदन मोहन मालवीय के एक कार्यक्रम में हिस्सा लिया. वो गांधीजी से इतने प्रभावित हुए कि दूसरे ही दिन स्कूल छोड़कर स्थानीय कांग्रेस दफ्तर में जाकर पार्टी की सदस्यता ले ली. इस तरह लाल बहादुर स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े. जल्द ही अंग्रेजी हुकूमत ने गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया. बाद में उनकी कम उम्र को देखते हुए उन्हें रिहा कर दिया गया.

विदेश दौरे पर लाल बहादुर शास्त्री की तस्वीर

उस वक्त लाल बहादुर को गाइड करने वाले जेबी कृपलानी हुआ करते थे. जेबी कृपलानी महात्मा गांधी के करीबी नेताओं में से थे. वाराणसी में युवाओं की पढ़ाई-लिखाई को ध्यान में रखते हुए कृपलानी ने अपने मित्र वीएन शर्मा की मदद से राष्ट्रवादी शिक्षा देने की तैयारी शुरू की. स्वतंत्रता आंदोलन में कांग्रेस पार्टी की आर्थिक मदद देने के लिए मशहूर धनाढ्य शिव प्रसाद गुप्ता ने इस दिशा में काफी मदद की.

उनकी मदद से महात्मा गांधी ने वाराणसी में 10 फरवरी 1921 को काशी विद्यापीठ की स्थापना की. इसका मकसद स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े युवाओं को राष्ट्रवादी शिक्षा देना था. लाल बहादुर ने काशी विद्यापीठ में एडमिशन लिया. यहां से उन्होंने नैतिक और दर्शन शास्त्र में 1925 में ग्रैजुएशन की डिग्री ली.

लाल बहादुर को 'शास्त्री' का टाइटल मिला. काशी विद्यापीठ में ग्रैजुएट डिग्री के बतौर शास्त्री टाइटल मिलता था. इसी के बाद लाल बहादुर ने अपने नाम से लगा वर्मा टाइटल हटाकर शास्त्री टाइटल जोड़ लिया. इसके बाद लाल बहादुर वर्मा, लाल बहादुर शास्त्री के नाम से मशहूर हुए.


जब शास्त्रीजी ने अपने बेटे का प्रमोशन रुकवाया

लाल बहादुर शास्त्री की वजह से भारत में सफेद और हरित क्रांति आई. वो हरित आंदोलन से इस कदर जुड़े हुए थे कि अपने आवास के लॉन में उन्होंने खेती-बाड़ी शुरू कर दी थी. वो देश के सामने एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करना चाहते थे. इसलिए वो किसानों को हरित क्रांति से जोड़ने के लिए खुद अपने लॉन में कृषि कार्य किया करते थे.
लाल बहादुर शास्त्री अपनी ईमानदारी के लिए मशहूर थे. उन्होंने अपने कार्यकाल में भ्रष्टाचार से निपटने के लिए एक कमिटी बनाई थी. करप्शन से जुड़े सवाल पर उन्होंने अपने बेटे तक को नहीं बख्शा. एक बार उन्हें पता चला कि उनके बेटे को गलत तरीके से प्रमोशन मिल रहा है. उन्होंने अपने बेटे की प्रमोशन रुकवा दी.

शास्त्रीजी की विनम्रता के कायल थे लोग

लाल बहादुर शास्त्री की विनम्रता के लोग कायल थे. उनके साथ प्रेस एडवाइजर के तौर पर काम करने वाले मशहूर पत्रकार कुलदीप नैय्यर ने उनके बारे में एक दिलचस्प किस्सा सुनाया. कुलदीप नैय्यर ने बताया कि शास्त्री जी इतने विनम्र थे कि जब भी उनके खाते में तनख्वाह आती, वो उन्हें लेकर गन्ने का जूस बेचने वाले के पास जाते. शास्त्री जी शान से कहते- आज जेब भरी हुई है. फिर दोनों गन्ने का जूस पीते.

शास्त्री जी अपनी तनख्वाह का अच्छा खासा हिस्सा सामाजिक भलाई और गांधीवादी विचारधारा को आगे बढ़ाने में खर्च किया करते थे. इसलिए अक्सर उन्हें घर की जरूरतों के लिए मुश्किलों का सामना करना पड़ता था. घर का बजट बड़ा संतुलित रखना पड़ता था.

जब शास्त्रीजी ने पीएनबी बैंक से लिया कार लोन

शास्त्री जी के लोन लेकर कार खरीदने का किस्सा बड़ा मशहूर है. लाल बहादुर ईमानदारी और सादगीभरा जीवन व्यतीत करते थे. दूसरे सामाजिक कार्यों में पैसे खर्च करने के वजह से अक्सर उनके घर पैसों की किल्लत रहा करती थी. उनके प्रधानमंत्री बनने तक उनके पास खुद का घर तो क्या एक कार भी नहीं थी. ऐसे में उनके बच्चे उन्हें कहते थे कि प्रधानमंत्री बनने के बाद आपके पास एक कार तो होनी चाहिए. घरवालों के कहने पर शास्त्रीजी ने कार खरीदने की सोची.

उन्होंने बैंक से अपने एकाउंट का डिटेल मंगवाया. पता चला कि उनके बैंक खाते में सिर्फ 7 हजार रुपए पड़े थे. उस वक्त कार की कीमत 12000 रुपए थी. कार खरीदने के लिए उन्होंने बिल्कुल आम लोगों की तरह पंजाब नेशनल बैंक से लोन लिया. 5 हजार का लोन लेते वक्त शास्त्रीजी ने बैंक से कहा कि उन्हें उतनों ही सुविधा मिलनी चाहिए जितनी आम नागरिक को मिलती है.

हालांकि शास्त्रीजी कार का लोन चुका पाते उसके एक साल पहले ही उनका निधन हो गया. उनके निधन के बाद प्रधानमंत्री बनी इंदिरा गांधी ने लोन माफ करने की पेशकश की. लेकिन शास्त्री जी की पत्नी ललिता शास्त्री नहीं मानी और शास्त्री जी की मौत के चार साल बाद तक कार की ईएमआई देती रहीं. उन्होंने कार लोन का पूरा भुगतान किया. वह कार हमेशा लाल बहादुर शास्त्री जी के साथ रही. शास्त्रीजी की कार अभी भी दिल्ली लाल बहादुर शास्त्री मेमोरियल में रखी हुई है.


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