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बुधवार, 4 अगस्त 2021

समीक्षा श्रीधर प्रसाद द्विवेदी

कृति चर्चा:
''पाखी खोले पंख'' : गुंजित दोहा शंख
[कृति विवरण: पाखी खोले शंख, दोहा संकलन, श्रीधर प्रसाद द्विवेदी, प्रथम संस्करण, २०१७, आकार २२ से.मी. x १४ से.मी., पृष्ठ १०४, मूल्य ३००/-, आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, प्रगतिशील प्रकाशन दिल्ली, दोहाकार संपर्क अमरावती। गायत्री मंदिर रोड, सुदना, पलामू, ८२२१०२ झारखंड, चलभाष ९४३१५५४४२८, ९९३९२३३९९३, ०७३५२९१८०४४, ईमेल sp.dwivedi7@gmail.com]
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दोहा चेतन छंद है, जीवन का पर्याय
दोहा में ही छिपा है, रसानंद-अध्याय
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रस लय भाव प्रतीक हैं, दोहा के पुरुषार्थ
अमिधा व्यंजन लक्षणा, प्रगट करें निहितार्थ
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कत्था कथ्य समान है, चूना अर्थ सदृश्य
शब्द सुपारी भाव है, पान मान सादृश्य
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अलंकार-त्रै शक्तियाँ, इलायची-गुलकंद
जल गुलाब का बिम्ब है, रसानंद दे छंद
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श्री-श्रीधर नित अधर धर, पान करें गुणगान
चिंता हर हर जीव की, करते तुरत निदान
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दोहा गति-यति संतुलन, नर-नारी का मेल
पंक्ति-चरण मग-पग सदृश, रचना विधि का खेल
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कवि पाखी पर खोलकर, भरता भाव उड़ान
पूर्व करे प्रभु वंदना, दोहा भजन समान
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अन्तस् कलुष मिटाइए, हरिए तमस अशेष।
उर भासित होता रहे, अक्षर ब्रम्ह विशेष।। पृष्ठ २१
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दोहानुज है सोरठा, चित-पट सा संबंध
विषम बने सम, सम-विषम, है अटूट अनुबंध
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बरबस आते ध्यान, किया निमीलित नैन जब।
हरि करते कल्याण, वापस आता श्वास तब।। पृष्ठ २४
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दोहा पर दोहा रचे, परिभाषा दी ठीक
उल्लाला-छप्पय सिखा, भली बनाई लीक
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उस प्रवाह में शब्द जो, आ जाएँ 'अनयास'। पृष्ठ २७
शब्द विरूपित हो नहीं, तब ही सफल प्रयास
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ऋतु-मौसम पर रचे हैं, दोहे सरस विशेष
रूप प्रकृति का समाहित, इनमें हुआ अशेष
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शरद रुपहली चाँदनी, अवनि प्रफुल्लित गात।
खिली कुमुदिनी ताल में, गगन मगन मुस्कात।। पृष्ठ २९
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दिवा-निशा कर एक सा, आया शिशिर कमाल।
बूढ़े-बच्चे, विहग, पशु, भये विकल बेहाल।। पृष्ठ २१
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मन फागुन फागुन हुआ, आँखें सावन मास।
नमक छिड़कते जले पर, कहें लोग मधुमास।। पृष्ठ ३१
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शरद-घाम का सम्मिलन, कुपित बनाता पित्त।
झरते सुमन पलाश वन, सेमल व्याकुल चित्त।। पृष्ठ ३३
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बादल सूरज खेलते, आँख-मिचौली खेल।
पहुँची नहीं पड़ाव तक, आसमान की रेल।। पृष्ठ ३५
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बरस रहा सावन सरस्, साजन भीगे द्वार।
घर आगतपतिका सरस, भीतर छुटा फुहार।। पृष्ठ ३६
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उपमा रूपक यमक की, जहँ-तहँ छटा विशेष
रसिक चित्त को मोहता, अनुप्रास अरु श्लेष
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जेठ सुबह सूरज उगा, पूर्ण कला के साथ।
ज्यों बारह आदित्य मिल, निकले नभ के माथ।। पृष्ठ ३९
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मटर 'मसुर' कटने लगे, रवि 'उष्मा' सा तप्त पृष्ठ ४३ / ४५
शब्द विरूपित यदि न हों, अर्थ करें विज्ञप्त
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कवि-कौशल है मुहावरे, बन दोहा का अंग
वृद्धि करें चारुत्व की, अगिन बिखेरें रंग
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उनकी दृष्टि कपोल पर, इनकी कंचुकि कोर।
'नयन हुए दो-चार' जब, बँधे प्रेम की डोर।। पृष्ठ ४६
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'आँखों-आँखों कट गई', करवट लेते रैन।
कान भोर से खा रही, कर्कश कोकिल बैन।। पृष्ठ ४७ २४
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बना घुमौआ चटपटा, अद्भुत रहता स्वाद।
'मुँह में पानी आ गया', जब भी आती याद।। पृष्ठ ४९
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दल का भेद रहा नहीं, लक्ष्य सभी का एक।
'बहते जल में हाथ धो', 'अपनी रोटी सेंक'।। पृष्ठ ५४
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बाबा व्यापारी हुए, बेचें आटा-तेल।
कोतवाल सैंया बना, खूब जमेगा खेल।। पृष्ठ ७७
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कई देश पर मर मिटे, हिन्दू-तुर्क न भेद।
कई स्वदेशी खा यहाँ, पत्तल-करते छेद।। पृष्ठ ७४
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अरे! पवन 'कहँ से मिला', यह सौरभ सौगात। पृष्ठ ४७
शब्द लिंग के दोष दो, सहज मिट सकें भ्रात।।
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'अरे पवन पाई कहाँ, यह सौरभ सौगात'
कर त्रुटि कर लें दूर तो, बाधा कहीं न तात
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झूमर कजरी की कहीं, सुनी न मीठी बोल। पृष्ठ ४८
लिंग दोष दृष्टव्य है, देखें किंचित झोल
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'झूमर-कजरी का कहीं, सुना न मीठा बोल
पता नहीं खोया कहाँ, शादीवाला ढोल
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पर्यावरण बिगड़ गया, जीव हो गए लुप्त
श्रीधर को चिंता बहुत, मनुज रहा क्यों सुप्त?
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पता नहीं किस राह से, गिद्ध गए सुर-धाम।
बिगड़ा अब पर्यावरण, गौरैया गुमनाम।। पृष्ठ ५८
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पौधा रोपें तरु बना, रक्षा करिए मीत
पंछी आ कलरव करें, सुनें मधुर संगीत
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आँगन में तुलसी लगा, बाहर पीपल-नीम।
स्वच्छ वायु मिलती रहे, घर से दूर हकीम।। पृष्ठ ५८
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देख विसंगति आज की, कवि कहता युग-सत्य
नाकाबिल अफसर बनें, काबिल बनते भृत्य
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कौआ काजू चुग रहा, चना-चबेना हंस।
टीका उसे नसीब हो, जो राजा का वंश।। पृष्ठ ६१ / ३६
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मानव बदले आचरण, स्वार्थ साध हो दूर
कवि-मन आहत हो कहे, आँखें रहते सूर
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खेला खाया साथ में, था लँगोटिया यार।
अब दर्शन दुर्लभ हुआ, लेकर गया उधार।। पृष्ठ ६४
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'पर सब कहाँ प्रत्यक्ष हैँ, मीडिया पैना दर्भ पृष्ठ ७०/६१
चौदह बारह कलाएँ, कहते हैं संदर्भ
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अलंकार की छवि-छटा, करे चारुता-वृद्धि
रूपक उपमा यमक से, हो सौंदर्य समृद्धि
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पानी देने में हुई, बेपानी सरकार।
बिन पानी होने लगे, जीव-जंतु लाचार।। पृष्ठ ७९
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चुन-चुन लाए शाख से, माली विविध प्रसून। पृष्ठ ७७
बहु अर्थी है श्लेष ज्यों, मोती मानुस चून
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आँख खुले सब मिल करें, साथ विसंगति दूर
कवि की इतनी चाह है, शीश न बैठे धूर
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अमिधा कवि को प्रिय अधिक, सरस-सहज हो कथ्य
पाठक-श्रोता समझ ले, अर्थ न चूके तथ्य
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दर्शन दोहों में निहित, सहित लोक आचार
पढ़ सुन समझे जो इन्हें, करे श्रेष्ठ व्यवहार
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युग विसंगति-चित्र हैं, शब्द-शब्द साकार
जैसे दर्पण में दिखे, सारा सच साकार
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श्रेष्ठ-ज्येष्ठ श्रीधर लिखें, दोहे आत्म उड़ेल
मिले साथ परमात्म भी, डीप-ज्योति का खेल
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चर्चाकार : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
विश्व वाणी हिंदी संस्थान,
४०१ विजय अपार्टमेंट नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१
चलभाष: ९४२५१ ८३२४४। ईमेल salil.sanjiv@gmail.com

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