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गुरुवार, 26 अगस्त 2021

लघुकथा , राष्ट्र और राष्ट्रीयता

लघुकथा , राष्ट्र और राष्ट्रीयता
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
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भारत की स्वतंत्रता के ७५ वर्ष पूर्ण हो गए हैं। साहित्य की विविध विधाओं में स्वतंत्रता के अभिनन्दन हेतु सारस्वत अनुष्ठान किये जा रहे हैं। लघुकथाप्रेमी होने के नाते विचार आया कि राष्ट्रीयभावधारा परक ७५ -७५ लघुकथाओं के संकलन पीडीएफ बनाकर अंतरजाल पर साझा किया जाए । इस विचार को साझा किये कई माह हो गए। संध्या गोयल 'सुगम्या' जी ने संपादन सहयोग की अभिलाषा प्रगट की, उनका स्वागत है। सतत प्रयास के बाद भी पर्याप्त संख्या और गुणवत्तापूर्ण लघुकथाएँ न मिलना विस्मय ही नहीं दुःख का विषय भी है। 
क्या लघुकथा या लघुकथाकार राष्ट्र के गौरव, विकास या स्वतंत्रता से विमुख हैं? यदि ऐसा है तो यह शर्म की स्थिति है, यदि नहीं तो मौन क्यों? राष्ट्र और राष्ट्रीयता से मुँह मोड़नेवाली विधा का औचित्य और उपादेयता सदैव संदिग्ध होता है। क्या लघुकथाकार का राष्ट्रीयता से बैर है? यदि नहीं तो राष्ट्र और राष्ट्रीयता से संबंधित कथानक को लेकर लघुकथा क्यों नहीं लिखी जा रहीं? 
क्या लघुकथाकारों की दृष्टि कौए की तरह उच्छिष्ट (विसंगति, टकराव, बिखराव) पर ही केंद्रित है? क्या लघुकथाकार शूकर की तरह पंक में लोटकर संतुष्ट है? यदि नहीं तो जीवन के उदात्त भावों, आदर्शों, राष्ट्रीय गौरव आदि की अभिव्यक्ति करनेवाली लघुकथाएँ क्यों नहीं लिखी जा रहीं? 
राष्ट्र क्या है?
राष्ट्र सांस्कृतिक अवधारणा, राष्ट्रीयता मानसिक अवधारणा। वर्तमान में राष्ट्र का प्रयोग राज्य के अर्थ में किया जाता है। राष्ट्रीयता से राज्य का ज्ञान नहीं होता । राष्ट्र का आधार राष्ट्रीयता है परंतु राष्ट्रीयता का आधार राष्ट्र नहीं है।
राष्ट्र ऐसा जनसमूह है जो एक भौगोलिक सीमा में, एक निश्चित स्थान पर रहता है, समान परम्परा, समान हितों तथा समान भावनाओं से बँधारहता है और जिसमें एकता के सूत्र में बाँधने की उत्सुकता तथा समान राजनैतिक महत्त्वाकांक्षाएँ पाई जाती हों। राष्ट्रवाद के निर्णायक तत्वों मे राष्ट्रीयता की भावना अर्थात राष्ट्र के सदस्यों (नागरिकों) में उपलब्ध सामुदायिक भावना है जो उनका संगठन सुदृढ़ करती है।
भारत के लम्बे इतिहास में, आधुनिक काल में, भारत में अंग्रेजों के शासनकाल में राष्ट्रीयता की भावना का विशेष रूप से विकास हुआ। भारत में अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार से एक ऐसे विशिष्ट वर्ग का निर्माण हुआ जो स्वतन्त्रता को मूल अधिकार समझता था और जिसमें अपने देश को अन्य पाश्चात्य देशों के समकक्ष लाने की प्रेरणा थी। पाश्चात्य देशों का इतिहास पढ़कर उसमें राष्ट्रवादी भावना का विकास हुआ। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि भारत के प्राचीन इतिहास से नई पीढ़ी को राष्ट्रवादी प्रेरणा नहीं मिली है।
भारत की राष्ट्रीय चेतना वेदकाल से अस्तित्वमान है। अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में धरती माता का यशोगान किया गया हैं। माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः (भूमि माता है और मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ)। विष्णुपुराण में तो राष्ट्र के प्रति का श्रद्धाभाव अपने चरमोत्कर्ष पर दिखाई देता है। इस में भारत का यशोगान 'पृथ्वी पर स्वर्ग' के रूप में किया गया है।अत्रापि भारतं श्रेष्ठं जम्बूद्वीपे महागने।यतोहि कर्म भूरेषा ह्यतोऽन्या भोग भूमयः॥गायन्ति देवाः किल गीतकानि धन्यास्तु ते भारत-भूमि भागे।स्वर्गापस्वर्गास्पदमार्गे भूते भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात् ॥
वायुपुराण में भारत को अद्वितीय कर्मभूमि बताया है। भागवतपुराण में तो भारतभूमि को सम्पूर्ण विश्व में 'सबसे पवित्र भूमि' कहा है। इस पवित्र भारतभूमि पर तो देवता भी जन्म धारण करने की अभिलाषा रखते हैं, ताकि सत्कर्म करके वैकुण्ठधाम प्राप्त कर सकें।कदा वयं हि लप्स्यामो जन्म भारत-भूतले।कदा पुण्येन महता प्राप्यस्यामः परमं पदम्।
महाभारत के भीष्मपर्व में भारतवर्ष की महिमा का गान इस प्रकार किया गया है;अत्र ते कीर्तिष्यामि वर्ष भारत भारतम्प्रियमिन्द्रस्य देवस्य मनोवैवस्वतस्य।अन्येषां च महाराजक्षत्रियारणां बलीयसाम्।सर्वेषामेव राजेन्द्र प्रियं भारत भारताम्॥
गरुड पुराण में राष्ट्रीय स्वतन्त्रता की अभिलाषा कुछ इस प्रकार व्यक्त हुई है-स्वाधीन वृत्तः साफल्यं न पराधीनवृत्तिता।ये पराधीनकर्माणो जीवन्तोऽपि ते मृताः॥
रामायण में रावणवध के पश्चात राम, लक्ष्मण से कहते हैं-अपि स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचते ।जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥
(अर्थ : हे लक्ष्मण! यद्यपि यह लंका स्वर्णमयी है, तथापि मुझे इसमें रुचि नहीं है। (क्योंकि) जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान हैं। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी देखें)
राष्ट्रवाद 
राष्ट्रवाद के उदय की प्रक्रिया अत्यन्त जटिल और बहुमुखी होती है। पराधीनता के पूर्व भारत में ऐसी सामाजिक संरचना थी जो संसार में  कहीं कहीं और नहीं थी। वह पूर्व मध्यकालीन यूरोपीय समाजों से आर्थिक दृष्टि से भिन्न थी। भारत विविध भाषा-भाषी और अनेक धर्मों के अनुयायियों वाले विशाल जनसंख्या का देश है। सामाजिक दृष्टि से हिन्दू समाज जो कि देश की जनसंख्या का सबसे बड़ा भाग है, विभिन्न जातियों और उपजातियों में विभाजित रहा है। हिन्दू पन्थ किसी विशिष्ट पूजा-पद्धति का नाम नहीं है। उसमें अनेक दर्शन और पूजा पद्धतियाँ सम्मिलित है, वह अनेक सामाजिक और धार्मिक विभागों में बँटा हुआ है। भारत की सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक संरचना तथा विशाल आकार के कारण यहाँ पर आधुनिक राष्ट्रीयता का उदय अन्य देशों की तुलना में विलंब तथा कठिनाई से हुआ। 
सर जॉन स्ट्रेची के अनुसार "भारतवर्ष के विषय में सर्वप्रथम महत्त्वपूर्ण जानने योग्य बात यह है कि भारतवर्ष न कभी राष्ट्र था, और न है, और न उसमें यूरोपीय विचारों के अनुसार किसी प्रकार की भौगोलिक, राजनैतिक, सामाजिक अथवा धार्मिक एकता थी, न कोई भारतीय राष्ट्र और न कोई भारतीय ही था जिसके विषय में हम बहुत अधिक सुनते हैं।" 
सर जॉन शिले का कहना है कि "यह विचार कि भारतवर्ष एक राष्ट्र है, उस मूल पर आधारित है जिसको राजनीति शास्त्र स्वीकार नहीं करता और दूर करने का प्रयत्न करता है। भारतवर्ष एक राजनीतिक नाम नही हैं, वरन एक भौगोलिक नाम है जिस प्रकार यूरोप या अफ़्रीका।"
भारत में राष्ट्रवाद का उदय और विकास उन परिस्थितियों में हुआ जो राष्ट्रवाद के मार्ग में सहायता प्रदान करने के स्थान पर बाधाएँ पैदा करती है। भारतीय समाज की विभिन्नताओं में मौलिक एकता सदैव विद्यमान रही है और समय-समय पर राजनीतिक एकता की भावना भी उदय होती रही है। वी॰ए॰ स्मिथ के शब्दों में "भारतवर्ष की एकता उसकी विभिन्नताओं में ही निहित है।" ब्रिटिश शासन की स्थापना से भारतीय समाज में नये विचारों तथा नई व्यवस्थाओं को जन्म मिला है इन विचारों तथा व्यवस्थाओं के बीच हुई क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं के परिणामस्वरूप भारत में राष्ट्रीय विचारों को जन्म दिया।
राष्ट्रीयता 
राष्ट्रीयता का अर्थ किसी व्यक्ति और किसी संप्रभु राज्य (देश) के बीच के क़ानूनी संबंध है। राष्ट्रीयता उस राज्य को उस व्यक्ति के ऊपर कुछ अधिकार देती है और बदले में उस व्यक्ति को राज्य सुरक्षा व अन्य सुविधाएँ लेने का अधिकार देता है। इन लिये व दिये जाने वाले अधिकारों की परिभाषा अलग-अलग राज्यों में भिन्न होती है। आम तौर पर परम्परा व अंतरराष्ट्रीय समझौते हर राज्य को यह तय करने का अधिकार देते हैं कि कौन व्यक्ति उस राज्य की राष्ट्रीयता रखता है और कौन नहीं। साधारणतया राष्ट्रीयता निर्धारित करने के नियम राष्ट्रीयता क़ानून में लिखे जाते हैं। राष्ट्रीयता एक निश्चित, भू-भाग में रहने वाले, जातीयता के बंधन में बंधे, एकता की भावना से युक्त, समान संस्कृति, धर्म, भाषा, साहित्य, कला, परम्परा, रीति-रिवाज, आचार-विचार, अतीत के प्रति गौरव-अगौरव और सुख-दु:ख की समान अनुभूति वाले विशाल जनसमुदाय में पायी जाने वाली एक ऐसी अनुभूति है जो विषयीगत होने के साथ-साथ स्वत: प्रेरित भी है। यह आध्यात्मिकता से युक्त एक मनोवैज्ञानिक निर्मित है जो उस जनसमुदाय को ऊँच-नीच और आर्थिक भेदभाव से ऊपर उठाकर एकता के सूत्र में बाँधती है। प्रामाणिक हिन्दी कोश के अनुसार  ‘राष्ट्रीयता, किसी राष्ट्र के विशेष गुण, अपने देश या राष्ट्र के प्रति उत्कट प्रेम है।’
इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के अनुसार - ‘राष्ट्रीयता मस्तिष्क की स्थिति विशेष है, जिसमें मनुष्य को सर्वोत्तम निष्ठा राष्ट्र के प्रति होती है।” ‘राष्ट्रीयता मनुष्यों के समूह का एक गुण अथवा विभिन्न गुणों का एक संश्लिष्ट रूप है, जो उसे एक राष्ट्र के रूप में संगठित करता है। इस प्रकार संगठित व्यक्तियों में यह गुण विभिन्न मात्राओं में परिलक्षित होता है’।श्री अरविन्द के अनुसार - “राष्ट्र में भागवत एकता के साक्षात्कार की भावनापूर्ण आकांक्षा की राष्ट्रीयता है। यह एक ऐसी एकता है जिसमें सभी अवयवभूत व्यक्ति, चाहे उनके कार्य राजनीतिक, सामाजिक या आर्थिक तत्त्वों के कारण कितने ही विभिन्न और आपतत: असमान प्रतीत होते हों, वस्तुत: तथा आधारभूत रूप से एक और समान है।”
डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी - ‘राष्ट्रीयता का अर्थ यह है कि प्रत्येक व्यक्ति राष्ट्र का एक अंश है और उस राष्ट्र की सेवा के लिए उसे धन-धान्य से समृद्ध बनाने के लिए उसके प्रत्येक नागरिक को सुखी और सम्पन्न बनाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को सब प्रकार के त्याग और कष्ट को स्वीकार करना चाहिए।’
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के अनुसार- ‘उत्तर को आर्यो का देश और दक्षिण को द्रविड़ का देश समझने का भाव यहाँ कभी नहीं पनपा, क्योंकि आर्य और द्रविड़ नाम से दो जातियों का विभेद हुआ ही नहीं था। समुद्र से उत्तर और हिमालय से दक्षिण वाला भाग हमेशा एक देश रहा  है।’
बाबू गुलाबराय के मतानुसार - ‘एक सम्मिलित राजनीतिक ध्येय में बँधे हुए किसी विशिष्ट भौगोलिक इकाई के जन समुदाय के पारस्परिक सहयोग और उन्नति की अभिलाषा से प्रेरित उस भू-भाग के लिए प्रेम और गर्व की भावना को राष्ट्रीयता कहते हैं।
डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार ‘राष्ट्रीयता विषयीगत होने के कारण एक ऐसी मनोवैज्ञानिक स्थिति है जो अधिकार कर्तव्य अनुभूति और विचार की दृष्टि से जीवन की एक पद्धति बन जाती है यह जन के भीतर के भेदभाव को दबाकर एकता की भावना के रूप में अभिव्यक्ति पाती है। राष्ट्र की यह एकता इतिहास के दीर्घकालीन उतार-चढ़ाव के भीतर पिरोई हुई मिलती है।’
गिलक्राइस्ट के शब्दों में - ‘राष्ट्रीयता एक आध्यात्मिक भावना अथवा सिद्धान्त है जिसकी उत्पत्ति उन लोगों में होती है जो साधारणतया एक जाति के होते हैं जो एक भू-खण्ड पर रहते हैं, जिनकी एक भाषा, एक धर्म, एक सा इतिहास, एक-सी परम्पराएँ एवं सामान्य हित होते हैं तथा जिनके एक से राजनीतिक समुदाय राजनीतिक एकता के एक से आदर्श होते हैं।”
हैराल्ड लास्की ने ‘राष्ट्रीयता को मूलत: भावनात्मक माना है उनके अनुसार जिसके द्वारा उन सभी में विशिष्ट एकता सम्पन्न हो जाती है, जो अपने को अन्य मानवों से उस समानता का परिणाय होती हैं, जिसकी प्राप्ति संसृष्ट प्रयत्नों के फलस्वरूप हुई है।”
गैंटल ने राष्ट्रीयता के बारे में कहा हैं - ‘राष्ट्रीयता मुख्य रूप से वह मनोवैज्ञानिक भावना है जो उन लोगों में ही उत्पन्न होती है जिनके सामान्य गौरव विपत्तियाँ हो। जिनको सामान्य परम्परा हो तथा पैतृक सम्पत्तियाँ एक ही हो।’ इनके अनुसार जिनमें एक-सी प्रवृत्तियाँ हो व उनके प्रति गौरव की भावना हो।
वी जोजफ का कहना है कि “राष्ट्रीयता का अर्थ उस एक सार्वलौकिक उन्नत भावना के प्रति भक्ति तथा स्थिरता है जो भूतकाल के गौरव व निराशा की अपेक्षा स्वतंत्रता, समानता की भावना से युक्त व्यापक भविष्य की ओर उन्मुख होती है।” राष्ट्रीय एक आध्यात्मिक भावना है यह मन की वह स्थिति है जिसमें राष्ट्र के प्रति व्यक्ति की परमनिष्ठा का पता लगता है। सामान्य भाषा, व्यवहार, धर्म आदि के संयोग से राष्ट्रीयता की भावना विकसित होती है। बर्गस के अनुसार “राष्ट्रीयता किसी राज्य में रहने वाली सम्पूर्ण जनसंख्या का एक विशेष अल्पसंख्यक समुदाय है जोकि सामाजिक एवं नस्ल के आधार पर संगठित है।”
राष्ट्रीयतापरक लघुकथा
राष्ट्रीय भावधारा की लघुकथा राष्ट्र के प्रति प्रेम, गौरव, त्याग, बलिदान, निरमन और विकास को केंद्र में रखकर लिखी जा सकती है। ऐसी लघुकथा सामान्यत: सामाजिक विसंगति को केंद्र में रखकर लिखी जाती लघुकथा से भिन्न होगी। वह बनी बनाई लीक को तोड़कर लिखी जाएगी। ऐसी लघुकथा पाठक के मन में राष्ट्र के प्रति गौरव, संतोष और त्याग की भावना उत्पन्न करेगी। समर्थ लघुकथाकारों के लिए स्वर्णिम अवसर है अपने लेखन को प्रकाश में लाने का, अपनी राह खुद बनाने का, अपनी भिन्न पहचान स्थापित करने का। 
इस संकलन हेतु लघुकथाएँ भेजने की अंतिम तिथि १५ सितंबर है। तत्पश्चात मैं और संध्या जी मिलकर ७५ लघुकथाएँ लिखकर संकलन प्रकाशित कर लेंगे। 
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