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बुधवार, 18 अगस्त 2021

कहमुकरी, द्विपदी, मुक्तक

कहमुकरी
*
काम करे निष्काम रात-दिन
रक्षा कर, सुख भी दे अनगिन
फिर भी रहती सदा विनीता
सजनी?, ना ना नदी पुनीता
*
इसको उससे जोड़ मिलाए
शीत-घाम हँस सहता जाए
सब पग धरते निज हित हेतु
क्या सखि धरती?, ना सखि सेतु
*
वह आए रौनक आ जाती
जाए ज्यों जीवन ले जाती
आँख मिचौली खेले उजली
क्या प्रिय सजनी?, ना सखि बिजली
*
भर देता मन में आनंद
फूल खिला बिखरा मकरंद
सबको सुखकर जैसे संत
क्या सखि!साजन? नहीं बसंत

*
दैया! लगता सबको भय
कोई रह न सके निर्भय
कैद करे मानो कर टोना
सखी! सिपैया, नहिं कोरोना
*
जो पाता सो सुख से सोता
हाय हाय कर चैन न खोता
जिसे न मिलता करता रोष
है सखि रुपया, नहिं संतोष
*
माया पाती तनिक न मोह
पास न फटके गुस्सा-द्रोह
राजा है या संत विशेष
सुन सखि! सूरज, ना मिथिलेश
*
जन प्रिय मोह न पाता काम
अभिवादन है जिसका नाम
भक्तों का भय पल में लें हर
प्रिय! मधुसूदन?, नहिं शिवशंकर
*
पल में सखि री! चित्त चुराता
अनजाने मन में बस जाता
नयन बंद तो भी दे दर्शन
सखि! साजन?, नहिं कृष्ण सुदर्शन
*
अंतर्मन में चित्र गुप्त है
अभी दिख रहा, अभी लुप्त है
कुछ पहचाना, कुछ अनजान
क्या सखि साजन?, नहिं भगवान
*
मन मंदिर में बैठा आकर
कहीं नहीं जाता वह जाकर
उसकी दम से रहे बहार
क्या सखि ईश्वर?, ना सखि प्यार
*
है समर्थ पर कष्ट न हरती
पल में निर्भय, पल में डरती
मनमानी करती हर बार
मितवा सजनी?, नहिं सरकार
*
जब आता तब आग लगाता
इसे लड़ाता, उसे भिड़ाता
होने देता नहीं निभाई
भाग्यविधाता?, नहीं चुनाव
*
देख आप हर कर जुड़ जाता
बिना कहे मस्तक झुक जाता
भूल व्यथा, हो हर मन चंगा
देव?, नहीं है ध्वजा तिरंगा
*

मुक्तक
ढाले- दिल को छेदकर तीरे-नज़र जब चुभ गयी,
सांस तो चलती रही पर ज़िन्दगी ही रुक गयी।
तरकशे-अरमान में शर-हौसले भी कम न थे -
मिल गयी ज्यों ही नज़र से नज़र त्यों ही झुक गयी।।
*१८-८-२०२०


हो चुका अवतार, अब हम याद करते हैं मगर
अनुकरण करते नहीं, क्यों यह विरोधाभास है
१८-८-२०१४

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