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मंगलवार, 3 अगस्त 2021

सुशील श्रीवास्तव

विशेष लेख:
धुनी पत्रकार सुशील श्रीवास्तव 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
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संस्कारधानी जबलपुर में समर्पित कलमकारों और पत्रकारों की सुदीर्घ परंपरा है। मासिक जबलपुर समाचार (१७७३), साप्ताहिक शुभचिंतक (१८६३), जबलपुर न्यूज़ पेपर (१८८३,अंग्रेजी), साहित्यिकी प्रेमा (१९३०, रामानुजलाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी'), दैनिक जयहिंद (१९४६-१९५४, संचालक सेठ गोविंददास, संपादक विद्याभास्कर), साप्ताहिक युगारंभ (१९४७-१९४८, संचालक ब्योहार राजेंद्र सिंह, संपादक पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, इंद्रबहादुर खरे), प्रहरी (१९४७-१९६६, संचालक भवानीप्रसाद तिवारी, संपादक रामेश्वर प्रसाद गुरु, कालांतर में प्रकाशक-संपादक नर्मदाप्रसाद खरे), दैनिक नवभारत (१९५०, संचालक रामगोपाल माहेश्वरी, व्यवस्थापक मायाराम सुरजन, संपादक  कुंजबिहारी पाठक), सांध्य दैनिक जबलपुर समाचार (१९५६ नित्यगोपाल तिवारी), युगधर्म (१९५६, भगवतीधार बाजपेई), साहित्यिकी वसुधा (१९५६, हरिशनकार परसाई, रामेश्वर प्रसाद गुरु), नर्मदा हेराल्ड (१९७६, संचालक श्रवण भाई पटेल, संपादक हनुमान प्रसाद वर्मा), जयलोक (संचालक अजीत वर्मा) आदि के क्रम में अग्रदूत (१९९६, संचालक-संपादक सुशील श्रीवास्तव) का नाम उल्लेखनीय है। 
अग्रदूत ऐतिहासिक विरासत 
अग्रदूत शीर्षक से समाचार पत्र पहली बार रामपुर से प्रकाशित हुआ जिसे अंगरेजों ने १९४२ में बंद करा दिया।  रायपुर के पहले साप्ताहिक समाचार पत्र ‘अग्रदूत’ की नींव वर्ष १९४२ में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी केशव प्रसाद वर्मा रखी। ‘अग्रदूत’ के सहयोगी संपादक स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी थे।  तब भारत छोड़ो आंदोलन चल रहा था और ‘अग्रदूत’ के तेवर काफ़ी तीखे थे।१९४२ की अगस्त क्रांति के समय अंग्रेज़ी हुकूमत उन हर स्थानों पर छापे डलवा रही थी जहाँ से विरोध की आवाज़ें उठती रही थीं। ‘अग्रदूत’ के दफ़्तर के साथ त्रिवेदी जी के नयापारा स्थित निवास पर भी छापा पड़ा। त्रिवेदी उस समय भूमिगत होकर सागर चले गए। इस तरह भारत छोड़ो आंदोलन में ‘अग्रदूत’ का विशेष योगदान रहा।  १९३६-३७ में पंडित रविशंकर शुक्ल ने नागपुर से साप्ताहिक समाचार पत्र महाकोशल शुरु किया, जिसके सीताचरण दीक्षित संपादक थे। 1१९४६ में पंडित रविशंकर शुक्ल ने रायपुर से साप्ताहिक ‘महाकोशल’ का प्रकाशन शुरु किया, पंडित स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी संपादक बने। दिलचस्प संयोग है कि ‘अग्रदूत’ एवं ‘महाकोशल’ दोनों समाचार पत्र आगे जाकर साप्ताहिक से दैनिक हुए। पंडित स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी दोनों दैनिक में भी संपादक रहे। रायपुर (अब छत्तीसगढ़ की राजधानी) से १९४२ में स्वराज्य प्रसाद द्विवेदी ने साप्ताहिक अग्रदूत आरंभ किया जो १९८२ तक इसी रूप में प्रकाशित हुआ, तत्पश्चात सांध्य दैनिक के रूप में प्रकाशित हो रहा है। असमिया भाषा के प्रमुख समाचार पत्र  का नाम भी अग्रदूत है। 
अग्रदूत जबलपुर 
१९९६ में पत्रकार प्रवर सुशील श्रीवास्तव ने ऐतिहासिक पृष्ठभूमि संपन्न 'अग्रदूत' का जबलपुर संस्करण आरंभ किया। दुर्योगवश २०-१०-१९९९ को सुशील जी दिवंगत हो गए। तत्पश्चात उनके सुपुत्र अरुण श्रीवास्तव ने 'अग्रदूत' को निरंतर प्रकाशित कर नई ऊंचाइयों तक पहुँचाया। ८ अगस्त २०२१ को सांध्य दैनिक अग्रदूत अपनी २५ वीं वर्षगाँठ मना रहा है। चार पृष्ठीय अग्रदूत के हर पृष्ठ में ६ कॉलम हैं जिनमें वैश्विक, राष्ट्रीय, प्रादेशिक तथा स्थानीय समाचारों की निष्पक्ष रिपोर्टिंग की जाती है। शब्द सामर्थ्य के माध्यम से राष्ट्रभाषा हिंदी का प्रसार और नई पीढ़ी  के शब्द सामर्थ्य में वृद्धि की ओर पत्र का रुझान है। अग्रदूत के विशेषता संतुलित भाषा तथा तथ्यपरक रिपोर्टिंग है। साहित्यिक समाचारों को पत्र में यथोचित स्थान  व सम्मान प्राप्त है। 
समाजसेवी सुशील जी की विरासत 
साठिया कुआँ जबलपुर निवासी सुशील श्रीवास्तव पर श्रद्धेय कक्का जी (ब्योहार राजेंद्र सिंह जी) का वरद हस्त रहा है। कक्का जी की बखरी (हवेली) में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का प्रवास हुआ था। कक्का जी के पास दुर्लभ पुस्तकों और पत्रों आदि का संकलन भी भी था। कक्का जी सुबह-शाम बखरी से टहलने निकलते तो मुख्य द्वार के बाहर ही सुशील जी के पास रुकते हुए ही जाते थे। सुशील जी के निवास के समीप ही युगधर्म के संपादक भगवतीधर जी बाजपेई और अधिवक्ता प्रभाकर रूसिया के निवास थे। मुझे इन सबका नैकट्य पाने का सौभाग्य मिला। प्रायः ये सभी किसी एक के निवास पर बैठक जमाते और फिर 'बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी' को मूर्त रूप देते हुए गली-मोहल्ले से लेकर देस-विदेश तक की चर्चाएँ होतीं। हम युवाओं के सामने ज्ञान की सलिला बहती रहती, जिसकी जितनी सामर्थ्य पान करते रहो। हमारी जिज्ञासाओं का समाधान विविध दृष्टिकोणों से सामने आता। ये सब अलग-अलग विचारधाराओं और संगठनों के जुड़े होने के बाद भी पारिवारिक स्नेहसूत्र में आबद्ध रहते थे। कक्का जी कांग्रेस, बाजपेई जी जनसंघ, रूसिया जी समाजवादी दल से थे किन्तु उनकी पारस्परिक निकटता में वैचारिक मतभिन्नता तनिक भी बाधक नहीं हो पाती थी। 
सुशील जी तब 'जगध्वनि' प्रकाशित करते थे। जब मस्ती का मूड होता तो तो उनका पत्रकार किसी चर्चित विषय पर कुछ कह देता और फिर घंटों चर्चा चलती। चर्चा के साथ-साथ चाय-पानी ही नहीं, मौसम के अनुसार स्वल्पाहार की प्लेटें भी आती-जाती रहतीं। जब बैठक समाप्त होती तो बार-बार चाय-पानी लाने के लिए दौड़ते बच्चे चैन की सांस ले पाते। इन बैठों में जो सम्मिलित हुआ, वह इनका दीवाना हो जाता। कक्का जी सहज-सरल मृदुभाषी, बाजपेई जी राष्ट्रीयता के पक्षधर, रूसिया जी लोहियावादी विचारधारा की बौद्धिकता में डूबे और सुशील दादा की खोजपरक पत्रकार दृष्टि। कभी कभी वीरेंद्र श्रीवास्तव अधिवक्ता, शेखर वर्मा आदि जुटते तो कायस्थ समाज में संगठन के अभाव, युवाओं की कमी, सरकारी नौकरियों में घटते स्थान, खर्चीले विवाह, दहेज़ की कुरीति आदि प्रसंग छिड़ते। वर्ष १९७३ में मैं लोक निर्माण विभाग में अभियंता हो गया। कक्का जी और सुशील दादा के कहे अनुसार जिला कायस्थ सभा का गठन किया गया। ब्योहार बाग़ में राम निवास पर बैठें होतीं। गिरीश वर्मा (निदेशक आकाशवाणी) अध्यक्ष, जागेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव जी (महर्षि महेश योगी के भाई) और वर्मा जी (अनूप वर्मा के पिताजी) उपाध्यक्ष, मैं सचिव चुने गए। सुशील दादा परदे के पीछे से सहयोग करते रहे। 
बेटों से बढ़कर सुशील जी 
एक घटना का उल्लेख कर इस लेख को विराम देना ठीक होगा। फरवरी १९८८ में कक्का जी बीमार हुए, उन्हें विक्टोरिया अस्पताल के प्राइवेट वार्ड में भर्ती कराया गया। मुझे सूचना मिली तो कक्का जी के समाचार लेने यदा-कदा अस्पताल चला जाता था। २७ फरवरी को सवेरे लगभग १० बजे कक्का जी के पास गया तो काफी व्यथित दिखे। मैंने कारण पूछा तो बोले लावारिस सा पड़ा हूँ, कोई देखने-भालने वाला नहीं है। मैंने पूछा मेरे योग्य सेवा बताइये तो बोले 'तुम्हारी यहाँ कोई नहीं सुनेगा, तुम सुशील के पास जाकर उसे मेरे पास भेज दो। वह आएगा तभी डॉक्टर और नर्सें  दवाई-इलाज ठीक से करेंगे। मुझे कार्यालय जाना था पर रास्ता बदलकर सठिया कुआ गया, सुशील दादा को बताया तो बल 'मैं दस मिनिट में जाता हूँ। तुम चिंता न करो।' कहना न होगा की कक्का जी के दो पुत्र जबलपुर में थे। एक उच्चन्यायालय में अधिवक्ता और दूसरे कलानिकेतन में प्राचार्य पर कक्का जी ने कष्ट के पलों में याद किया तो सुशील दादा को। एक दिन बाद मैं कुछ काम से नागपुर चला गया लौटा तो पता चला कि २ मार्च को कक्का जी नहीं रहे। ऐसे थे सुशील जी, यह विरासत प्रिय अरुण को मिली है। 
अग्रदूत अख़बार ही नहीं जीवन शैली है। सामाजिक संबंधों, वैयक्तिक अनुबंधों और स्वैच्छिक प्रतिबंधों की त्रिवेणी के बीच पत्रकारिता के आदर्शों और व्यवहार में समन्वय और सामाजिक-राष्ट्रीय-वैयक्तिक कर्त्व्याधिकारों के मध्य सामंजस्य बैठते समाचार इस तरह देना कि नकारात्मकता को रोका जा सके। वर्तमान संक्रमणकाल में सतत बढ़ती मूल्यहीनता, संकीर्णता, असहिष्णुता और राजनैतिक उद्दंडता के परिवेश में स्वस्थ्य पत्रकारिता तलवार की धार पर चलने की तरह है। प्रिय अरुण इस कसौटी पर अब तक खरा सिद्ध हुआ है, आगे भी हो यही कामना है। 
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संपर्क - संयोजक विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४ 
   

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