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सोमवार, 2 अगस्त 2021

गीता अध्याय १२-१३-१४ यथावत हिंदी काव्यान्तरण


गीता अध्याय १२
यथावत हिंदी काव्यान्तरण
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
अर्जुन बोला- ऐसे तत्पर, भक्त पूजते हैं तुमको।
जो अक्षर अव्यक्त को पूजें, उनमें योगवेत्ता कौन?१।
*
प्रभु बोले- मुझमें स्थिर करके, मन जो युक्त मुझे पूजें।
श्रद्धा पूर्वक दिव्य भाव से मुझे, योग में सिद्ध वही।२।
*
जो इंद्रिय से परे अनिश्चित, ईश अव्यक्त पूजते हैं।
सर्वव्याप्त चिंतनातीत जो, बिन परिवर्तन स्थिर ध्रुव भी।३।
*
वश में कर सारी इन्द्रिय को, सब जगहों में समदर्शी।
वे पाते मुझको निश्चय ही, सर्व भूत हित जो रत हैं।४।
*
कष्ट अत्यधिक उस अव्यक्त प्रति, जो अनुरक्त उन्हें होता।
जो अव्यक्त; प्रगति उसके प्रति, दुखदा देहधारियों को।५।
*
जो सब कर्म मुझे अर्पित कर, मुझमें ही आसक्त रहें।
वे अनन्य जो भक्ति योग से, ध्याते मुझे पूजते हैं।६।
*
उनका मैं उद्धार कालमय, भव-सागर से करता हूँ।
दीर्घ काल के बाद न हो भय, मुझमें स्थिर मन वालों को।७।
*
मुझमें ही मन को स्थिर कर तू, मुझमें ही तू बुद्धि लगा।
कर निवास मुझमें निश्चय ही, तत्पश्चात नहीं संशय।८।
*
यदि मन को केंद्रित करने में, नहीं समर्थ मुझी में तू!
कर अभ्यास योग का; इच्छा कर पाने की तब अर्जुन।९।
*
यदि अभ्यास न कर सकता तो, मुझ प्रति कर्म परायण हो।
मेरे लिए कर्म करता चल, सिद्धि प्राप्त तुझको होगी।१०।
*
यदि यह भी कर सके न तू तो, मेरे योगाश्रित हो जा।
सब कर्मों का फल तज कर तू, आत्मस्थित मेरे हो जा।११।
*
ज्ञान श्रेष्ठ अभ्यास से सदा, ज्ञान से ध्यान विशिष्ट है।
श्रेष्ठ ध्यान से कर्म फलों का त्याग, त्याग से शांति मिले।१२।
*
ईर्ष्याहीन सभी जीवों प्रति, मैत्रीयुक्त दयालु तथा।
निरभिमान निर्मम समभावी, सुख में दुःख में करे क्षमा।१३।
*
रहे प्रसन्न निरंतर योगी, आत्मसंयमी दृढ़ निश्चय।
मुझमें अर्पित मन अरु मति से, जो मम भक्त वही प्रिय है।१४।
*
जिससे हो उद्विग्न न कोई, लोक से जो विचलित मत हो।
जो सुख-दुख से, भय चिंता से, मुक्त वही मुझको प्रिय है।१५।
*
इच्छारहित शुद्ध पटु है जो, उदासीन कष्ट से मुक्त।
सब प्रयत्न का परित्यागी जो, मेरा भक्त परम प्रिय वह।१६।
*
जो न कभी हर्षित होता है, करे न शोक शोच इच्छा।
शुभ अरु अशुभ त्याग देता जो, भक्त वही मेरा प्रिय है।१७।
*
सम हैं शत्रु-मित्र जिसको अरु, हैं समान मान-अपमान। 
शीत-ऊष्ण, सुख-दुःख में सम, सब संगति से रहे अनजान।१८। 
*
सम निंदा-यश मौन सहे जो, हो संतुष्ट बिना घर भी। 
दृढ़ संकल्प भक्ति में रत हो, मुझको प्रिय है मनुज वही।१९। 
*
धर्म रूप अमृत पीते जो, उक्त प्रकार रहें तत्पर। 
श्रद्धा सहित मान मुझको प्रभु, भक्त अत्यधिक प्रिय मुझको।२०। 
***  

गीता अध्याय १३ 
यथावत हिंदी काव्यान्तरण 
*
पार्थ कहे- प्रकृति-पुरुष व क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ क्या निश्चय कहें?
जानना है मुझे ज्ञान व ज्ञेय, इच्छुक हूँ केशव कहें।१। 
*
बोले प्रभु- यह काया है जो, कुन्तीसुत! है क्षेत्र यही।
जो यह जाने उसको कहते, हैं क्षेत्रज्ञ इसे जानो।२। 
*
हूँ क्षेत्रज्ञ सभी क्षेत्रों में, मैं मुझको जानो भारत!
क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ ज्ञान जो, वह जानो मेरा मत है।३। 
*
कर्मक्षेत्र जो जैसा भी है, परिवर्तन जिससे भी जो। 
वह भी उसका जो प्रभाव भी, वह सारांश सुनो मुझसे।४। 
*
ऋषिगण बहु प्रकार से गाते, छंद कई कह समझाते। 
ब्रह्मसूत्र पद भी निश्चय ही, कार्य व कारण बतलाते।५। 
*
महाभूत अरु अहंकार सह, बुद्धि अव्यक्त सुनिश्चित ही। 
कर्म-ज्ञान दस इंद्रिय अरु मन, पाँचइन्द्रियों के गोचर।६। 
*
इच्छा द्वेष व सुख दुख के सँग, धीरज अरु चेतना को भी। 
क्षेत्र कर्म का कहा गया है, विकार सहित संक्षेप में। ७। 
*
बिन अभिमान-दंभ बिन हिंसा, सहनशीलता सह सारल्य। 
गुरु सानिंध्य शौच अरु शुचिता, दृढ़ता और आत्मसंयम।८। 
*
इन्द्रिय संयम अरु विराग सह, अहंकार से रहित रहे। 
जन्म-मृत्यु; वार्धक्य-व्याधियाँ, दुःख-दोष देखते रहे।९। 
*
बिन आसक्ति; बिना संगति के, सुत-वनिता एवं घर में। 
रहे निरंतर शांत भाव से, इष्ट-अनिष्ट प्राप्त करके।१०। 
*
मुझमें रमे अनन्य योग से, अव्यभिचारी भक्ति सहित। 
कर एकांतवास-आकांक्षा, बिन आसक्ति आम जन में।११। 
*
आत्म ज्ञान में नित्य विचरना, तत्व ज्ञान दर्शन करना। 
यही ज्ञान; जो अन्य वह सभी, है अज्ञान इतर इससे।१२। 
*        
ज्ञेय ज्ञान जो वही कहूँगा, सुनकर लगे अमृत पाया। 
आदि रहित आधीन ब्रह्म जो, उसको सत न असत कहते।१३। 
*
उसके हैं सर्वत्र हाथ-पग, आँख सिर मुख सब जगह हैं।
सब जगह हैं कान भी उसके, व्याप्त सारी वस्तुओं में।१४। 
*
मूल सब इंद्रिय-गुणों का वह, रहित सारी इन्द्रियों से है। 
निरासक्त करे भरण-पोषण, निर्गुण है पर गुण भोगे।१५। 
*


गीता अध्याय १४
यथावत हिंदी काव्यान्तरण 
*
श्री भगवान कहें : 'फिर कहता, परम समस्त ज्ञान उत्तम।
जिसे जानकर सब मुनियों ने, परम सिद्धि को प्राप्त किया।१। 
*
इसी ज्ञान को बना सहारा, मुझ सा धर्म प्राप्त करके। 
नहीं सृष्टि में कभी उपजते, नहीं प्रलय में विचलित हों।२। 
*
मेरी प्रकृति महत ब्रह्म है,  उसमें गर्भ करूँ उत्पन्न।
संभव तभी सभी जीवों का, होता जन्म हे भरतर्षभ!३। 
*
सकल योनियों में कुंतीसुत!, हों जो मूर्त उन सभी का।
ब्रह्म जन्म का मूल बीज मैं, मैं ही मात्र पिता सबका।४। 
*
सत-रज-तम इन तीन गुणों से, भौतिक प्रकृति है उत्पन्न। 
बाहुबली! बंधन में रहते, तन में जीव न व्यय होते।५। 
*
वहाँ सतोगुण निर्मल पावन, करे प्रकाशित पाप बिना। 
सुख की संगति द्वारा बाँधे, ज्ञान संग भी हे निष्पाप!६। 
*
रज गुण उपज राग से जानो, तृष्णा से होता उत्पन्न।
वह भी बाँधे हे कुन्तीसुत!, कर्म से तनधारियों को।७। 
*
तमगुण उपजे ज्ञान के बिना, जानो मोह देहियों में। 
है प्रमाद आलस निद्रा वह, बंधन में बाँधे भारत!८। 
*
सतगुण सुख में बाँधे, रजगुण बाँधे कर्मों में भारत!
किंतु ज्ञान को ढँककर तमगुण, नित प्रमाद में बाँध रखे।९। 
*
रज-तम को भी परे छोड़कर,सत प्रधान बनता भारत!
रज सत-तम को; तम सत-रज को, सतत हराता रहता है। १०। 
*
सब दरवाजों से शरीर में, जब प्रकाश होता पैदा।
ज्ञान उस समय बढ़ा हुआ है, सतगुण ऐसा कहा गया। ११। 
*
लोभ वृत्ति पैदा होती जब, कर्मों में तब अनियंत्रित। 
इच्छा रजगुण में प्रगटे तब, बढ़े अत्यधिक हे भारत!१२। 
*
तम निष्क्रियता अरु प्रमाद भी, प्रमाद व  मोह निश्चय ही।
तम गुण से ही सदा उपजते, बढ़ जाने पर कुरुनंदन!।१३। 
*   
जब सतगुण बढ़ जाता है तब, हो समाप्त यदि तनधारी।
तब उत्तम ऋषिलोकों को हो, शुद्ध प्राप्त कर पाता है।१४।  
*
रज गुण में यदि अंत हो सके, सकाम कर्मी के सँग में।
तभी जन्म ले वह विलीन हो, तम में मूढ़ योनियों में।१५। 
*
पुण्य कर्म का कहा गया है, सात्विक और शुद्ध परिणाम। 
रज का लेकिन फल तम होता, है अज्ञान तमस अज्ञान।१६। 
*
सत से ज्ञान हो सके पैदा, रज से लालच हो निश्चय। 
हो प्रमाद; मोह भी तम से; हो अज्ञान नहीं संदेह।१७। 
*
ऊर्ध्व मिले गति सत्वगुणी को, मध्य में रहे रजोगुणी। 
गर्हित वृत्ति ग्रसित पाते हैं, अध गति सारे तमोगुणी।१८। 
*
नहीं अलावा गुण के दूजा कर्ता, दृष्टा देख सके। 
दिव्य गुणों से युक्त जान मम, दिव्य स्वभाव प्राप्त करता।१९।
*
इन त्रिगुणों को लाँघ सके तो, देही देह न कर धारण। 
 जन्म मृत्यु वृद्धावस्था के, दुःख से मुक्त अमिय भोहे।२०। 
*
अर्जुन पूछे: 'तीन गुणों से, परे जो हुए प्रभु! उनका।
कैसा है आचरण बताएँ, कैसे परे गुणों के हो'।२१। 
*
श्री बोले: 'प्रकाश-आसक्ति, तथा मोह से जो पांडव। 
घृणा न करता यदि विकसित हो, हो समाप्त मत चाह करे।२२। 
*
हो निरपेक्ष गुणों के प्रति जो, कभी नहीं विचलित होता। 
गुण ही गुण में रहें बरतते, समझ न होता विचलित जो।२३। 
*
सम सुख-दुःख हो आत्मभाव में, हो समान मिट्टी-सोना।
तुल्य प्रिय-अप्रिय दोनों; धीरज रखे प्रशंसा-निंदा में।२४। 
*
मान-अपमान सम हो जिसको, मित्र और अरि के दल भी।
सब प्रयत्न तज देता है जो, गुणातीत उसको कहते।२५। 
*
अव्यभिचारी भक्ति योग से; जो मेरी सेवा करता। 
परे प्रकृति के गुण से हो वह, परमब्रह्म तक। २६। 
*
ब्रह्म-ज्योति का आश्रय मैं ही, हूँ अमर्त्य अविनाशी भी। 
शाश्वत हूँ मैं और धर्म का, एकांतिक सुख भी हूँ मैं।२७। 
***      
                  
     
 

 








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