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मंगलवार, 23 अक्तूबर 2012

कृति चर्चा: 'उत्तरकथा' -संजीव 'सलिल'

नव दुर्गा पर्व समापन पर विशेष कृति चर्चा : 
राम कथा के अछूते आयामों को स्पर्श करती 'उत्तरकथा'
संजीव 'सलिल'
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(कृति परिचय: उत्तर कथा, महाकाव्य, महाकवि डॉ. प्रतिभा सक्सेना, आकार डिमाई, पृष्ठ 208, सजिल्द-बहुरंगी लेमिनेटेड आवरण, मूल्य 260 रु. / 15$, अयन प्रकाशन नै दिल्ली रचनाकार संपर्क: "Pratibha Saksena" <pratibha_saksena@yahoo.com> )

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विश्व वाणी हिंदी को संस्कृत, प्राकृत से प्राप्त उदात्त विरासतों में ध्वनि विज्ञान आधृत शब्दोच्चारण, स्पष्ट व्याकरणिक नियम, प्रचुर पिंगलीय (छान्दस) सम्पदा तथा समृद्ध महाकाव्यात्मक आख्यान हैं। विश्व की किसी भी नया भाषा में महाकाव्य लेखन की इतनी उदात्त, व्यापक, मौलिक, आध्यात्मिकता संपन्न और गहन शोधपरक दृष्टियुक्त परंपरा नहीं है। अंगरेजी साहित्य के वार-काव्य महाकाव्य के समकक्ष नहीं ठहर पाते। राम-कथा तथा कृष्ण-कथा क्रमशः राम्मायण तथा महाभारत काल से आज तक असंख्य साहित्यिक कृतियों के विषय बने हैं। हर रचनाकार अपनी-अपनी क्षमता के अनुरूप विषय-वास्तु के अन्य-नए आयाम खोजता है। महाकाव्य, खंडकाव्य, चम्पूकाव्य, उपन्यास, कहानी, दृष्टान्त कथा, बोध कथा, प्रवचन, लोकगीत, कवितायेँ, मंचन (नाटक, नृत्य, चलचित्र), अर्थात संप्रेषण के हर माध्यम के माध्यम से असंख्य बार संप्रेषित किये जाने और पढ़ी-सुने-देखी जाने के बाद भी इन कथाओं में नवीनता के तत्व मिलना इनके चरित नायकों के जीवन और घटनाओं की विलक्षणता के प्रतीक तो हैं ही, इन कथाओं के अध्येताओं के विलक्षण मानस के भी प्रमाण हैं जो असंख्य बार वर्णित की जा चुकी कथा में कुछ नहीं बहुत कुछ अनसुना-अनदेखा-अचिंतित अन्वेषित कर चमत्कृत करने की सामर्थ्य रखती है।

इन कथाओं के कालजयी तथा सर्वप्रिय होने का कारण इनमें मानव  अब तक विकसित सभ्यताओं तथा जातियों (सुर, असुर, मनुज, दनुज, गन्धर्व, किन्नर, वानर, रिक्ष, नाग, गृद्ध, उलूक) के उच्चतम तथा निकृष्टतममूल्यों को जीते हुए शक्तिवान तथा शक्तिहीन पात्र तो हैं ही सामान्य प्रतीत होते नायकों के महामानवटीवी ही नहीं दैवत्व प्राप्त करते दीप्तिमान चरित्र भी हैं। सर्वाधिक विस्मयजनक तथ्य यह कि रचनाकार विविध घटनाओं तथा चरित्रों को इस तरह तराश और निखार पाते हैं कि आम पाठक, श्रोता और दर्शक मंत्रमुग्ध रह जाते हैं की यह तो ज्ञात ही नहीं था। यहाँ तक की संभवतः वे चरित्र स्वयं भी अपने बारे में इतने विविधतापूर्ण आयामों की कल्पना न कर पाते। वैविध्य इतना की जो मात्र एक कृति में महामानव ही नहीं भगवन वर्णित है, वही अन्य कृति में अनाचारी वर्णित है, जो एक कृति में अधमाधम है वही अन्य कृति में महामानव है। राम कथा को केंद्र में रखकर रची गयी जिन कृतियों में मौलिक उद्भावना, नीर-क्षीर विवेचन तथा सामयिक व भावी आवश्यकतानुरूप चरित्र-चित्रण कर भावातिरेक से बचने में रचनाकार समर्थ हुआ है, उनमें से एक इस चर्चा के केंद्र में है।

हिंदी की समर्पित अध्येता, निष्णात प्राध्यापिका, प्रवीण कवयित्री तथा सुधी समीक्षक डॉ.प्रतिभा सक्सेना रचित महाकाव्य 'उत्तर कथा' में राम-कथा के सर्वमान्य तथ्यों का ताना-बाना कुछ इस तरह बुना गया है कि सकल कथा से पूर्व परिचित होने पर भी न केवल पिष्ट-पेशण या दुहराव की अनुभूति नहीं होती अपितु निरंतर औत्सुक्य तथा नूतनता की प्रतीति होती है। भूमिजा भगवती सीता को केंद्र में रखकर रचा गया यह महाकाव्य वाल्मीकि, पृष्ठभूमि, प्रस्तावना, आगमन, मन्दोदरी, घटनाक्रम, अशोक वन में, प्रश्न, रावण, युद्ध के बाद, वैदेही, सहस्त्रमुख पर विजय, अवधपुरी में, निर्वासिता, मातृत्व, स्मृतियाँ: रावण का पौरोहित्य, कौशल्या, स्मृतियाँ : सीता, रात्रियाँ, आक्रोश, क्या धरती में ही समा गयी, अयोध्या में, वाल्मीकि, जल समाधि, अंतिम प्रणाम, वाल्मीकि, जल-समाधि, अंतिम प्रणाम, वाल्मीकि  तथा उपसंहार शीर्षक 27 सर्गों में विभाजित है।

प्राच्य काव्याचार्यों ने बाह्य प्रकृति (दृश्य, घटना, परिस्थिति, अवस्था आदि), अन्य व्यक्ति (गुरु, आश्रयदाता, मित्र, शत्रु आदि), विचार (उपदेश, दर्शन, देश-प्रेम, आदर्श-रक्षा, क्रांति, त्याग आदि), तथा जिज्ञासा को काव्य-प्रेरणा कहा है। पाश्चात्य साहित्यविदों की दृष्टि में दैवी-प्रेरणा, अनुकरण वृत्ति, सौंदर्य-प्रेम, आत्माभिव्यक्ति, आत्म-विस्तार तथा मनोविश्लेषकों के अनुसार अतृप्त कामना, हीनता आदि काव्य-प्रेरणा हैं। विवेच्य कृति में प्राच्य-पाश्चात्य कव्याचार्यों द्वारा मान्य काव्य-तत्वों में से अधिकांश की सम्यक उपस्थिति उल्लेख्य है।

काव्यालंकार में आचार्य भामह महाकाव्य के लक्षण निर्धारित करते हुए कहते हैं:

'' सर्गबद्धो महाकाव्यं महतां च महच्चयत।
अग्राम्यशब्दमर्थ च अलंकारं सदाश्रयं।।
मन्त्रदूत प्रयाणाजिन नायकाभ्युदयन्चवत।
पञ्चभिःसंधिभिर्युक्तं नाति व्याख्येयमृद्धियं।।''

भामह सर्गबद्धता, वृहदाकार, उत्कृष्ट अप्रस्तुतविधान, शिष्ट-नागर शब्द-विधान, आलंकारिक भाषा, महान चरित्रवान दिग्विजयी नायक (केन्द्रीय चरित्र), जीवन के विविध रूपो; दशाओं व् घटनाओं का चित्रण, संघटित कथानक, न्यून व्याख्या तथा प्रभाव की अन्विति को महाकाव्य का लक्षण मानते हैं। धनञ्जय के अनुसार ''अतरैकार्थ संबंध संधिरेकान्वयेसति'' अर्थात संधि का लक्षण एक प्रयोजन से संबद्ध अनेक कथांशों का प्रयोजन विशेष से संबद्ध किया जाना है। 'उत्तरकथा' में महाकाव्य के उक्त तत्वों की सम्यक तथा व्यापक उपस्थति सहज दृष्टव्य है।

पाश्चात्य साहित्य में मूल घटना की व्याख्या (एक्स्पोजीशन ऑफ़ इनीशिअल इंसिडेंट), विकास (ग्रोथ), चरम सीमा (क्लाइमैक्स), निर्गति (डेनौमेंट) तथा परिणति (कैटोस्ट्रोफ्री) को महाकाव्य का लक्षण बताया गया है। इस निकष पर भी 'उत्तरकथा' महाकव्य की श्रेणी में परिगणित की जाएगी। विदुषी कवयित्री ने स्वयं कृति को महाकाव्य नहीं कहा यह उनकी विनम्रता है। भूमुका में उनहोंने पूरी ईमानदारी से रामकथा के बहुभाषी वांग्मय के कृतिकारों, प्रस्तोताओं, आलोचकों, लोक-कथाओं, लोक-गीतों आदि का संकेत कर उनका ऋण स्वीकारा है।

रुद्रट ने महाकाव्य के लक्षण लंबी पद्यबद्ध कथा, प्रसंगानुकूल अवांतर कथाएं, सर्गबद्धता, नाटकीयता, समग्र जीवन चित्रण, अलंकार वर्णन, प्रकृति चित्रण, धीरोद्दात्त नायक, प्रतिनायक, नायक की जय, रसात्मकता, सोद्देश्यता तथा अलौकिकता मने हैं। उत्तर कथा में सामान्य के विपरीत नायक सीता हैं। ऐसे कथानक में सामायतः प्रतिनायक रावण होता है किन्तु यहाँ राम की दुर्बलता उन्हें प्रतिनायकत्व के निकट ले जाती है। यह एक दुस्साहसिक और मौलिक अवधारणा है। राम और रावण में से कौन एक या दोनों प्रतिनायक हैं? यह विचारणीय है। इसी तरह सीता को छोड़कर शेष सभी उनके साथ हो रहे अन्याय में मुखर या मौन सहभागिता का निर्वहन करते दिखते हैं। रचनाकार ने समग्र जीवन चित्रण के स्थान पर प्रमुख घटनाओं को वरीयता देने का औचित्य प्रतिपादित करते हुए भूमिका में कहा है- 'लोक-मानस में राम कथा इतनी सुपरिचित है की बीच की घटनाएँ या कड़ियाँ न भी हों तो कथा-क्रम में बाधा नहीं आती। वैसे भी कथा कहना या चरित गान करना मेरा उद्देश्य नहीं है।' अतः, घटनाओं के मध्य कथा-विकास का अनुमान लगाने का दायित्व पाठक को कथा-विकास के विविध आयामों के प्रति सजग रखता है। प्रकृति चित्रण अपेक्षाकृत न्यून है। यत्र-तत्र अलंकारों की शोभा काठ-प्रवाह या चरित्रों के निखर में सहायक है किन्तु कहीं भी रीतिकालीन रचनाकारों की तरह आवश्यक होने पर भी अलंकार ठूंसने से बचा गया है। नायक की विजय का तत्व अनुपस्थित है। प्रमुख चरित्रों सीता, राम तथा रावण तीनों में से किसी को भी विजयी नहीं कहा जा सकता। सीता का ओजस्वी, धीर-वीर-उदात्त केन्द्रीय चरित्र अपने साथ हुए अन्याय के कारन पाठकीय सहानुभूति अर्जित करने के बाद भी दिग्विजयी तो नहीं ही कहा जा सकता। घटनाओं तथा चरितों के विश्लेषण को विश्वसनीयता के निकष पर प्रमाणिक तथा खरा सिद्ध करने के उद्देश्य से असाधारणता, चमत्कारिकता या अलौकिकता को दूर रखा जाना उचित ही है। आचार्य हेमचन्द्र ने शब्द-वैचित्र्य, अर्थ-वैचित्र्य तथा उभय-वैचित्र्य (रसानुरूप सन्दर्भ-अर्थानुरूप छंद) को आवश्यक माना है किन्तु प्रतिभा जी ने सरलता, सहजता, सरसता की त्रिवेणी को अधिक महत्वपूर्ण माना है। वे परम्परागत मानकों का न तो अन्धानुकरण करती हैं, न ही उनकी उपेक्षा करती हैं अपितु कथानक की आवश्यकतानुसार यथा समय यथायोग्य मानकों का अनुपालन अथवा अनदेखी कर अपना पथ स्वयं प्रशस्त कर पाठक को बांधे रखती हैं। डॉ। नागेन्द्र द्वारा स्थापित उदात्तता मत (उदात्त चरित्र, उदात्त कार्य, उदात्त भाव, उदात्त कथानक व उदात्त शैली) इस कृति से पुष्ट होता है।

महाकाव्यत्व के भारतीय मानकों में प्रसंगानुकूल तथा रसानुकूल छंद वैविध्य की अनिवार्यता प्रतिपादित है जबकि अरस्तू आद्योपरांत एक ही छन्द आवश्यक मानते हैं। प्रतिभा जी की यह महती कृति मुक्त छंद में है किन्तु सर्वत्र निर्झर की तरह प्रवाहमयी भाषा, सम्यक शब्द-चयन, लय की प्रतीति, आलंकारिक सौष्ठव, रम्य लालित्य तथा अन्तर्निहित अर्थवत्ता कहीं भी बोझिल न होकर रसमयी नर्मदा तथा शांत क्षिप्रा की जल-तरंगों से मानव-मूल्यों के महाकाल का भावाभिषेक करती प्रती होता है।

यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने त्रासदी (ट्रेजेडी) को महाकाव्य (एपिक) का अनिवार्य व केन्द्रीय लक्षण कहा है। सीता के जीवन में हुई त्रासदियों से अधिक त्रासदी और क्या हो सकती है- जन्म के पूर्व ही पिता से वंचित, जन्म के साथ ही  माता द्वारा परित्यक्त, पिता द्वारा शिव-धनुष भंग के प्रण के कारण विवाह में बाधा, विवाह के मध्य परशुराम प्रसंग से अवरोध, विवाह-पश्चात् राम वनवास, रावण द्वारा हरण, मुक्ति पश्चात् राम का संदेह, आग्नि परीक्षा, अयोध्या में लांछन, निष्कासन, वन में युगल पुत्रों का पालन और अंत में निज-त्रासदियों के महानायक राम के आश्रय में पुत्रों को ह्बेजने की विवशता और अनंत अज्ञातवास...। अरस्तु के इस निकष पर महाकाव्य रचना के लिए सीता से बेहतर और कोई चरित्र नहीं हो सकता।

महाकाव्य के मानकों में सर्ग, प्रसंग तथा रसानुकूल छंद-चयन की परंपरा है। छंद-वैविध्य को महाकाव्य का वैशिष्ट्य माना गया है। प्रतिभा जी ने इस रूढ़ि के विपरीत असीमित आयाम युक्त मुक्त-छंद का चयन किया है जिसे बहुधा छंद-मुक्त ता छंद हीन मानने की भूल की जाती है। मानक छंदों के न होने तथा गति-यति के निश्चित विधान का अनुपालन न किये जाने के बावजूद समूची कृति में भाषिक लय-प्रवाह, आलंकारिक वैभव, अर्थ गाम्भीर्य, कथा विकास, रसात्मकता, सरलता, सहजता, घटनाक्रम की निरंतरता, नव मूल्य स्थापना, जन सामान्य हेतु सन्देश, रूढ़ि-खंडन तथा मौलिक उद्भावनाओं का होना कवयित्री के असाधारण सामर्थ्य का परिचायक है।

सामान्यतः छंद पिंगल का ज्ञान न होने या छंद सिद्ध न हो पाने के कारण कवि छंद रहित रचना करते हैं किन्तु प्रतिभा जी अपवाद हैं। उनहोंने छन्द शास्त्र से सुपरिचित तथा छन्द लेखन में समर्थ होते हुए भी छंद का वरण संभवतः सामान्य पाठकों की छंद को समझने में असुविधा के कारण नहीं किया। अधिकतर प्रयुक्त चतुष्पदियों में कहीं-कहीं  प्रथम-द्वितीय तथा तृतीय-चतुर्थ पंक्तियों में तुकांत साम्य है, कहीं प्रथम-तृतीय, द्वितीय-चतुर्थ पंक्ति में पदभार समान है, कहीं असमान... सारतः किसी पहाडी निर्झरिणी की सलिल-तरंगों की तरह काव्यधारा उछलती-कूदती, शांत होती-मुड़ती, टकराती-चक्रित होती,  गिरती-चढ़ती डराती-छकाती, मोहती-बुलाती प्रतीत होती है।

कृतिकार ने शैल्पिक स्तर पर ही नहीं अपितु कथा तत्वों व तथ्यों के स्तर पर भी स्वतंत्र दृष्टिकोण, मौलिक चिंतन और अन्वेषणपूर्ण तार्किक परिणति का पथ चुना है। आमुख में कंब रामायण, विलंका रामायण, आनंद रामायण, वाल्मीकि रामायण आदि कृतियों से कथा-सूत्र जुटाने का संकेत कर पाठकीय जिज्ञासा का समाधान कर दिया है। स्वतंत्र चिन्तन तथा चरित्र-चित्रण हेतु संभवत: राजतरंगिणीकार कल्हण का मत कवयित्री को मन्य है, तदनुसार 'वही श्रेष्ठ कवि प्रशंसा का अधिकारी है जिसके शब्द एक न्यायाधीश के पादक्य की भांति अतीत का चेत्र्ण करने में घृणा अथवा प्रेम की भवना से मुक्त होते हैं।' कवयित्री ने रचना के केन्द्रीय पात्र सीता के प्रति पूर्ण सहानुभूति होते हुए भी पक्षधरता का पूत कहीं भी नहीं आने दिया- यह असाधारण संतुलित अभिव्यक्ति सामर्थ्य उनमें है।

कृतिकार ने सफलता तथा साहसपूर्वक श्री राम पर अन्य कवियों द्वारा आरोपित मर्यादा पुरुषोत्तम, अवतार, भगवान् तथा लंकेश रावण पर आरोपित राक्षसत्व, तानाशाही, अनाचारी आदि दुर्गुणों से अप्रभावित रहकर राम की तुलना में रावण को श्रेष्ठ तथा सीता को श्रेष्ठतम निरूपित किया है। वे श्री इलयावुलूरि राव के इस मत से सहमत प्रतीत होती हैं- 'यह विडंबना की बात है की सारा संसार सीता और राम को आदर्श दम्पति मानकर उनकी पूजा करता है किन्तु उनका जैसा दाम्पत्य किसी को स्वीकार नहीं होगा।'

उत्तरकथा का रावन अपनी लंबी अनुपस्थिति में मन्दोदरी द्वारा कन्या को जन्म देने, उससे यह सत्य छिपाए जाने तथा उसे बताये बिना पुत्री को त्यागे जाने के बाद भी पत्नी पर पूर्ण विशवास करता है जबकि राम रावण द्वारा बलपूर्वक ले जाकर राखी गयी सीता के निष्कलंकित होने पर भी उन पर बार-बार संदेह कर मर्यादा के विपरीत न केवल कटु वचन कहते हैं अपितु अग्निपरीक्षा लेने के बाद भी एक अविवेकी के निराधार लांछन की आड़ में सीता को निष्कासित कर देते हैं। इतना ही नहीं सीता-पुत्रों द्वारा पराजित किये जाने पर राम अपने पितृत्व (जिसे वे खुद संदेह के घेरे में खड़ा कर चुके थे) का वास्ता देकर उन्हें पुत्र देने को विवश करते हैं। फलतः, सीता अपनी गरिमा और आत्म सम्मान की रक्षा के लिए रामाश्रय निकृष्टतम मानकर किसी से कुछ कहे बिना अग्यात्वास अज्ञातवास अंगीकार कर लेती हैं, आत्मग्लानिवश सीता-वनवास में सहयोगी रहे रामानुज लक्ष्मण तथा राम दोनों आत्महत्या करने के लिए विवश होते हैं।

विविध रामकथाओं में से कथा सूत्रों का चयन करते समय प्रतिभा जी को राम की बड़ी बहिन शांता के अस्तिस्व, पुत्रेष्टि यज्ञ के पौरोहित्य की दक्षिणा में ऋषि श्रृंगी से विवाह, लंका विजय पश्चात् बार-बार उकसाकर सीता से रावण का चित्र बनवाने-राम को दिखाकर संदेह जगाने, की कथा भी ज्ञात हुई होगी किन्तु यह प्रसंग संभवतः अप्रासंगिक मानकर छोड़ दिया गया। यक्ष-रक्ष, सुर-असुर सभ्यताओं के संकेत कृति में हैं किन्तु उन्नत नाग सभ्यता (एक केंद्र उज्जयिनी, वंशज कायस्थ) का उल्लेख न होना विस्मित करता है, संभवतः उन्होंने नागों को रामोत्तर माना हो। राम-कथा पर लिखनेवालों ने प्रायः घटना-स्थल की भौगोलिक-पर्यावरणीय परिस्थितियों की अनदेखी की है। प्रतिभा जी ने लीक से हटकर मय सभ्यता तथा मायन कल्चर का साम्य इंगित किया है, यहप्रशंसनीय है।

इस कृति का मूलोद्देश्य तथा सशक्त पक्ष सीता, मन्दोदरी तथा रावण के व्यक्तित्वों को लोक-धारणा से हटकर तथ्यों के आधार पर मूल्यांकित करना तथा जनमानस में सप्रयास भगवतस्वरुप विराजित किये गए राम-लक्ष्मण के चरित्रों के अपेक्षाकृत अल्पज्ञात पक्षों को सामने लाकर समाज पर पड़े दुष्प्रभावों को इंगित करना है। कृतिकार इस उद्देश्य में सफल तथा साधुवाद का पात्र है।
_________________________________
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
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0761- 2411131 / 094251 83244


6 टिप्‍पणियां:

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

'नव-दुर्गा' पर्व समापन पर विशेष-कृति-चर्चा के रूप में 'उत्तर-कथा' की समीक्षा पढ़ कर चकित हो गई .साधारणतया लोग इन पात्रों का जैसा निरूपण गो. तुलसीदास कर गये ,भक्ति के आवेश में ,उसी को अंतिम मान कर थोड़ी भी भिन्नता स्वीकार नहीं कर पाते .जबकि अन्य अनेक कथाओं में कथ्य के रूपों में पर्याप्त अंतर है .आपने मेरी उद्भावनाओं को संगत और सामयिक मान कर सतत व्यापक दृष्टिकोण रखा है जो आपकी विचारशीलता का द्योतक है .
इतनी गंभीरता से 'उत्तर-कथा' का अध्ययन तथा व्यापक और गहन विश्लेषण कर आपने जो श्रेय मुझे दिया , गौरवान्वित हूँ .इस समीक्षा में आपका शास्त्रीय ज्ञान और पांडित्य बहुत मुखर होकर ,आपके आचार्यत्व का परिचायक बन कर सामने आया ,साधुवाद !
पृष्ठभूमि में ,उद्देश्य केवल तत्कालीन जातिगत विभिन्नताओं को सूचित करना था इसलिये जिन का कोई भी प्रत्यक्ष योगदान नहीं रहा उनका वर्णन ,करना मैंने उचित नहीं समझा (जैसे नाग आदि).
समीक्षाकार की दृष्टि से किसी कृति को सामने रखना पाठकों के लिये भी बहुत सहायक होता है .रचनाकार तो उपकृत होता ही है .
मैं आपके प्रति कृतज्ञता का अनुभव करती हूँ .
विजयदशमी की हार्दिक शुभकामनाएँ स्वीकारें!

www.navincchaturvedi.blogspot.com ने कहा…

सत्कर्म हेतु बधाई

NAVIN C. CHATURVEDI ने कहा…

NAVIN C. CHATURVEDI


सत्कर्म हेतु बधाई

bhupal sood ने कहा…

bhupal sood

bahut badhiya samiksha hai.. dhanyavad salil ji
bhupal sood
ayan prakashan
9818988613

- shishirsarabhai@yahoo.com ने कहा…

- shishirsarabhai@yahoo.com

संजीव जी ,
क्षमा सहित और खेद सहित कहना चाहूँगा कि आपके द्वारा लिखित इस ' कृति चर्चा' को पढ कर मेरा ज़ायका खराब हो गया.
कारण निम्नलिखित है -
१) आप इतने बड़े भाषा ज्ञानी, आचार्य की उपाधि से विभूषित, फिर भी आपके आलेख में इतनी त्रुटियाँ ?????? इस तरह के समीक्षात्मक या विवेचनात्मक आलेख में विद्वानों के अनुसार भाषागत एक भी त्रुटि अर्थ का अनर्थ करने वाली एवं आलोच्य 'कृति' की अवमानना करने वाली मानी जाती है.

२) जिन शब्दों को मैंने लाल रंग से दर्शित (हाईलाईट) किया है, उन्हें आप मशीनी गलती कह कर अपना बचाव कर सकते हैं . परन्तु विवेचनात्मक लेख में इस तरह की मशीनी त्रुटियाँ भी क्षम्य नहीं होती. फिर या तो एक जगह हो, इसमें तो अनेक स्थानों पर गलतियाँ हैं, जो बहुत खटकती हैं. समूह पर भेजने से पहले, इसे आपको दुबारा-तिबारा पढ कर संशोधित करना चाहिए था. हम जैसे असाहित्यिक लोग इस तरह की गलतियाँ करें, तो एकबारगी हम क्षमा के पात्र हो सकते हैं, किन्तु दोबारा हमें भी कोई क्षमा नहीं करेगा, परन्तु आप तो पिंगल शास्त्र के ज्ञाता, भाषाविद, प्रकांड विद्वान, आपकी कलम से इस तरह की गलतियाँ हज़म नहीं होती . आपने मेरे ख्याल से टाइप करके दोबारा पढाने का कष्ट ही नहीं किया, इस पर मेहनत करते तो यह हास्यास्पद स्थिति न होती.

३) बहुत खेद के साथ अगली बात यह कहने के लिए विवश हूँ कि आपने सिर्फ शाब्दिक त्रुटियाँ ही नहीं की हैं अपितु वाक्य-विन्यास की भी गलतियाँ भरी हुई है. जिससे आलेख और समीक्षक दोनों की छवि खराब होती है.

४) आपकी भाषा इतनी क्लिष्ट और दुरूह है कि पढने का मज़ा चला जाता है . आप प्रतिष्ठित विवेचकों की विवेचनाएँ पढ़िए तो पायेगें कि उनकी भाषा शुद्ध और प्रांजल होती है किन्तु क्लिष्ट नहीं. सहज, सुबोध, प्रवाहपूर्ण भाषा को ही विद्वानों ने सर्वश्रेष्ठ भाषा माना है. मैंने दिल्ली, अलीगढ़ आदि विश्वविद्यालयों में इस विषय पर खूब सेमिनारों में भागीदारी की है. कोई भी उलझी हुई शब्दावली ,संस्कृत के बोझिल शब्दों से लदी भाषा को नही सराहता. आप प्रेमचंद, गुलेरी जी, महावीर प्रसाद आदि की भाषा देखिए, सीधे दिल में उतरती है. कही भी पाठक को माथा पच्ची नहीं करनी पडती.

५) आपको कि और की में किसी तरह का भ्रम है क्या ? अनेक स्थानों पर जहाँ छोटी 'कि ' होनी चाहिए आपने 'की' लिखा है,. इस तरह की त्रुटियाँ साहित्य में 'अशोभनीय' कही गई है .

६) कुछ आम पाठक के लिए अपरिचित शब्दों और प्रसंगों का उल्लेख है, उन्हें आलेख के अंत में अलग से आप 'टिप्पणी' शीर्षक देकर स्पष्ट करते तो बेहतर रहता.

मेरी सच्ची और ईमानदार अभिव्यक्ति को अन्यथा न लेकर , सहजता से लीजिएगा. क्योंकि हम इतने अच्छे साहित्यिक समूह से मात्र एक दूसरे की प्रशंसा करने के लिए नहीं जुड़े हैं वरन एक दूसरे की कमियों को दूर कर, अपने में निखार लाना भी हमारा उद्देश्य है. आप तो वैसे भी कई बार लिखते देखे गए हैं कि - 'मैं तो आजीवन विद्यार्थी बना रहना चाहता हूँ' . सो अपने इन शब्दों को याद रखते हुए मेरे द्वारा इंगित बातों पर अपने इस गंभीर आलेख की भलाई के लिए ध्यान दें और अपेक्षित सुधार करें .
शुभकामनाओं के साथ,
शिशिर

sn Sharma yahoogroups.com ने कहा…

sn Sharma yahoogroups.com

vicharvimarsh


आ0 शिशिर जी ,
आदरणीय आचार्य संजीव द्वारा प्रतिष्ठित रचनाकार कवियित्री प्रतिभा सक्सेना की चर्चित कृति ' उत्तरकथा ' पर की गई समीक्षा
के सन्दर्भ में आपकी प्रतिक्रिया और आपत्तियां पढ़ कर मैं स्तब्ध और विस्मित हूँ । मैं ऐसी आपत्तियों से सहमत नहीं क्योंकि -

1- टंकण त्रुटियों से रहित कितने लेख और कविताएं समूह पर आते हैं ? मेरे आलेखों और समूह पर प्रकाशित रचनाओं में आप
ढूंढें तो टंकण आदि की कितनी त्रुटियाँ आपको मिलेंगी पर आपने कभी आपत्ति नहीं की । मेरा translitaration कि को पहली
वरीयता ' की ' देता है और अक्सर यह अशुद्धि छूटती है । अन्य ( यह भी वरीयता में एनी मिलता है ) शब्द भी इसी प्रकार त्रुटी
के शिकार हो जाते हैं । प्रतिष्ठित और व्यस्त कलाकार समयाभाव के कारण अपने आलेख का सम्पादन नहीं कर पाता । हमारे
पाठक प्रबुद्ध हैं और शब्द को सही सन्दर्भ में आसानी से समझ लेते हैं । इसी विश्वास से हम समूह पर लिखते हैं और कोई
पाठक इसके लिए हमारे कान नहीं उमेठता ।

2- हास्यास्पादकता की बात वहाँ उठती जहां टंकण त्रुटि से शब्द या वाक्य हास्यास्पद हो जाय । मुझे ऐसी स्थिति उनके आलेख
में कहीं नहीं दिखी । आपको दिखी हो तो उसे इंगित करके बताएं कि वह क्यों हस्यास्पद लगा ।

3- वाक्य विन्यास की गलतियां भरी हुई हैं । आश्चर्य ! कृपया उन वाक्य-विन्यासों को स्पष्ट करें जहां विन्यास त्रुटियाँ हो ।
आपत्ति मढने के साथ साथ आपको ऐसी गंभीर गलती को सोदाहरण बताना चाहिए था । अब बता दीजिये तो हम भी
सीखें की विन्यास क्या होता है ।

4- भाषा क्लिष्ट और दुरूह है । अपनी अपनी शैली होती है । कोई विशुद्ध हिंदी में लिखता है जो आजकल हम जैसे खिचडी
भाषा के शिकार को समझने के लिए थोडा दिमाग खपाना पड़ता है । हिंदी में अंगरेजी के पुट की अपेक्षा अगर संस्कृत
का पुट मिलाया जाय तो क्या बुरा है । हिंदी उसी से पैदा हुई । कुछ साहित्यकार अगर विशुद्ध हिंदी की मशाल जलाए हैं तो
उनका सम्मान कर हमें उनसे सीखना चाहिए । भाषा की क्लिष्टता के लिए क्या हम सुमित्रानंदन पन्त, अज्ञेय और दिनकर
आदि को नकार देंगे ? यह समीक्षा प्रतिभा जी की कृति पर है जो स्वयम विशुद्ध हिंदी की प्रबल पक्षधर हैं । इसके लिए तो
मैं भी उनका सम्मान करता हूँ ।

5- अपरिचित शब्दों व प्रसंगों का उल्लेख । कहाँ क्या अपरिचित शब्द या प्रसंग है आप भी तो उसका उल्लेख कर उन्हें
अपरिचित साबित करें । जिन प्रसंगों पर उन्होंने विभिन्न रामायणों का सन्दर्भ दिया है उन्हें पढने के बाद ही किसी
प्रसंग पर उंगली उठाना उचित होता है । यूं हवा में गाँठ लगाना शोभनीय नहीं ।
6- शिशिर जी, इस प्रकार की समीक्षा पुस्तक परिचय रूप में होती है और समीक्षक के कथन की सत्यता उस पुस्तक को
पढने के बाद ही ठीक से समझ आती है । आपने क्या उत्तर कथा पढी है ? मैंने पढी है और कह सकता हूँ की संजीव जी
की समीक्षा बहुत स्पष्ट, निष्पक्ष और पुस्तक के गुण दोषों का विचारपूर्ण और तथ्यात्मक होने के साथ भाषा की दृष्टि से भी
सर्वथा उपयुक्त और उत्कृष्ट है । कृपया पुनर्विचार कीजिये की क्या आचार्य जी सरीखा भाषाविद शब्द-कार सचमुच आप द्वारा
प्रयुक्त शब्दों से अपमानित किये जाने के काबिल है । थोडा आत्म-मंथन कीजिये अगर संतुष्ट न हों तो पूरे उदहारण और
सबूतों के साथ अपना पक्ष नम्रता पूर्वक रखिये । किसी को अपराधी ठहराने वाली भाषा उन जैसे विद्वान् के लिए प्रयोग करना
शायद समूह पर किसी को अच्छा न लगेगा । शायद दीप्ति जी को भी नहीं !
सादर
कमल