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मंगलवार, 21 अगस्त 2012

ग़ज़लें: प्राण शर्मा

ग़ज़लें

 प्राण शर्मा 

प्राण शर्मा
जन्म : १३ जून १९३७ को वजीराबाद (अब पाकिस्तान) में।
शिक्षा : दिल्ली विश्वविद्यालय से एम ए बी एड
कार्यक्षेत्र :
प्राण शर्मा जी १९६५ से लंदन-प्रवास कर रहे हैं। वे यू.के. के लोकप्रिय शायर और लेखक है। यू.के. से निकलने वाली हिन्दी की एकमात्र पत्रिका 'पुरवाई' में गज़ल के विषय में आपने महत्वपूर्ण लेख लिखे हैं। आपने लंदन में पनपे नए शायरों को कलम माजने की कला सिखाई है। आपकी रचनाएँ युवा अवस्था से ही पंजाब के दैनिक पत्र, 'वीर अर्जुन' एवं 'हिन्दी मिलाप' में प्रकाशित होती रही हैं। वे देश-विदेश के कवि सम्मेलनों, मुशायरों तथा आकाशवाणी कार्यक्रमों में भी भाग ले चुके हैं। वे अपने लेखन के लिये अनेक पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं तथा उनकी लेखनी आज भी निरंतर चल रही है।
प्रकाशित रचनाएँ :'सुराही' (कविता संग्रह)

 
(1)

सोच की भट्टी में सौ-सौ बार दहता है
तब कहीं जाकर कोई इक शेर कहता है
हर किसी में होता है नफ़रत का पागलपन
कौन है जो इस बला से दूर रहता है
बात का तेरी करे विश्वास क्यों कोई
तू कभी कुछ और कभी कुछ और कहता है
टूट जाता है किसी बच्चे का दिल अक्सर
ताश के पत्तों का घर जिस पल भी ढहता है
यूँ तो सुनता है सभी की बातें वो लेकिन
अच्छा करता है जो अक्सर मौन रहता है
हाय री मजबूरियाँ उसकी गरीबी की
वो अमीरों की जली हर बात सहता है
धूप से तपते हुए ए `प्राण`मौसम में
सूख जाता है समंदर कौन कहता है

 
(2)

हर चलन तेरा कि जैसे राज़ ही है
ज़िन्दगी तू ज़िन्दगी या अजनबी है
कुछ न कुछ तो हाथ है तकदीर का भी
आदमी की कब सदा अपनी चली है
टूटते रिश्ते, बदलती फ़ितरतें हैं
क्या करे कोई, हवा ऐसी चली है
क्यों न हो अलगाव अब हमसे तुम्हारा
दुश्मनों की चाल तुम पर चल गयी है
आदमी दुश्मन है माना आदमी का
आदमी का दोस्त फिर भी आदमी है
कुछ तो अच्छा भी दिखे उसको किसीमें
आँख वो क्या जो बुरा ही देखती है
`प्राण` औरों की कभी सुनता नहीं वो
सिर्फ़ अपनी कहता है मुश्किल यही है

 
(3)

मेरे दुखों में मुझ पे ये एहसान कर गये
कुछ लोग मशवरों से मेरी झोली भर गये
पुरवाइयों में कुछ इधर और कुछ उधर गये
पेड़ों से टूट कर कई पत्ते बिखर गये
वो प्यार के ए दोस्त उजाले किधर गये
हर ओर नफरतों के अँधेरे पसर गये
अपनों घरों को जाने के काबिल नहीं थे जो
मैं सोचता हूँ कैसे वो औरों के घर गये
हर बार उनका शक़ की निगाहों से देखना
इक ये भी वज़ह थी कि वो दिलसे उतर गये
तारीफ़ उनकी कीजिये औरों के वास्ते
जो लोग चुपके - चुपके सभी काम कर गये
यूँ तो किसी भी बात का डर था नहीं हमें
डरने लगे तो अपने ही साये से डर गये

 
(4)

तुझसे दिल में रोशनी है
ए खुशी तू शमा सी है
आपकी संगत है प्यारी
गोया गुड़ की चाशनी है
बारिशों की नेमतें हैं
सूखी नदिया भी बही है
मिट्टी के घर हों सलामत
कब से बारिश हो रही है
नाज़ क्योंकर हो किसीको
कुछ न कुछ सबमें कमी है
कौन अब ढूँढे किसी को
गुमशुदा हर आदमी है
बाँट दे खुशियाँ खुदाया
तुझको कोई क्या कमी है
***
आभार:  आखर कलश 

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