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मंगलवार, 21 अगस्त 2012

विशेष लेख: भोजपुरी संस्कार गीतों में पर्यावरण चेतना -- जितेन्द्र कुमार "देव"

  विशेष लेख:
भोजपुरी संस्कार गीतों में पर्यावरण चेतना 
                                                                                               -- जितेन्द्र कुमार "देव" 
                                                                                                              


              भारतीय संस्कृति में प्राकृतिक अनुराग एवं प्रकृति संरक्षण की चिरंतर धारा प्रवाहित है| प्रकृति अनुराग हमारी पुरातन संस्कृति में इस कदर रचा-बसा है कि हम प्रकृति से अपने को पृथक अस्तित्व की कल्पना ही नहीं  कर सकते| इस तरह हम प्रकृति के हम अविभाज्यअंग है| हम प्रकृति से एवं प्रकृति हम से अलग हो ही नहीं सकती| 

             यही कारण है कि भारतीय मनीषियों ने सम्पूर्ण प्राकृतिक शक्तियों को देव-देवी स्वरुप माना है| देव पूजा, देवी पूजा, वृक्ष पूजा एवं पशु-पक्षियों की पूजा भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग बन गया और हमारे जीवन में रच-बस गया| हमारे मनीषियों को यह भली-भांति मालूम था कि जड़-जगत अर्थात पृथ्वी, नदी, पर्वत, वन आदि का चेतन जगत से पारस्परिक संबंध, उसका परिणाम चक्र पूरी पर्यावरण प्रणाली को प्रभावित करती है, इसलिए उन्होंने चराचर जगत के प्रति सदाशयता, दया एवं प्रेम की भावना अर्थात 'जियो और जीने दो' पर बल दिया|

               भारतीय मनीषियों द्वारा स्थापित पर्यावरण चेतना की यह धारा युग-युग से हमारे समाज में संचालित होती रही और हमारे जीवन का अंग बन गई| यही कारण है कि लोकगीतों, लोकोक्तियों एवं कहावतों में भी पर्यावरण चेतना की स्पष्ट झलक दिखाई देती है जो जन-जन के जीवन से जुड़ी है|
  
               भोजपुरी संस्कार गीतों में पर्यावरण चेतना पर विशेष रूप से प्रकाश डाला गया है|ऊर्जा के अपरिमित स्रोत सूर्य को देवता माना गया है और यह यथार्थ भी है, सूर्य हमारा अर्थात इस ग्रह का जीवन दाता है| सूर्य के बिना वनस्पतियों का और परोक्ष रूप से अन्य जीवों का अस्तित्व असम्भव है| इसीलिए भोजपुरी संस्कार गीतों में सूर्य पूजा ( सूर्यषष्ठी ) का महत्वपूर्ण स्थान है-

केरवा जे मंगनी शहर से ,बालक दिहले जुठियाई |
रोवेले तिरिया झनक के, नैना ढरे हो बहु लोर   |
हमरा सुरुजमल के अर्घिया ,बालक दिहले जुठियाई |              

  पुत्र प्राप्ति के लिए भी सूर्य पूजन का विधान भोजपुरी लोक गीतों में मिलता है | जैसे :-                
   
    फाड़ बान्हि नेहू तिल चाउर, हथवा गेडउ पानी हो |
    भउजी अंगना में आदित्य मनाव,होरिला होई हेंन  हो |
    .....................................................
    आदित्य मनावही ना पवली, सुरुज गोड़ लगेली हो |
    भुइया गिरेले नन्दलाल , महल उठे सोहर हो .......|

               वस्तुतः सूर्य हम में, सभी प्राणियो में, वनस्पतियों  में जीवन का संचार करता है और आदि काल से सूर्य रश्मियाँ जीवन को संचालित करती आ रही है| ऐसे जीवन दाता के रूप में किसी दैविक शक्ति के प्रतीक रूप की कल्पना यदि  की गई है तो यह सर्वथा समाचीन है| यही नहीं सूर्य के अतिरिक्त अन्य देवी, देवताओं का भी वर्णन संस्कार गीतों में आया है| 
    
             यदि हम प्रकृति की सत्ता को स्वीकार करते हैं और वह सत्ता अगर किसी एक शक्ति द्वारा संचालित होती है तो उस शक्ति का वर्णन भी संस्कार गीतों में 'देवी' रूप में मिलता है  |
  
      निमिया के  डाढ मइया लावेली हिंडोलवा की झूली-झूली ना ,
     मइया मोरी गावेली गितिया की  झूली-झूली ना ................२ 
    .................................................................
    मल्होरिया अवासवा की चली भइली ना  

             इस गीत में शक्ति की प्रतीक शीतला माता नीम की डाल पर झूला झूल रही है और झूलते-झूलते उन्हें प्यास लगती है तो वह मालिन के घर जाती हैं| प्रश्न यह उठता है कि देवी माँ मालिन के घर ही क्यों जाती हैं अन्यत्र क्यों नहीं? माली के घर पुष्प-पौधों की अधिकता होती है, अनेक तरह के पुष्पों की सुगंध से उसका आंगन भरा होता है| माता स्वयं प्रकृति का ही रूप हैं| इसलिए उन्हें प्राकृतिक सौन्दर्य की जगह जाना अच्छा लगता है| इसलिए इस गीत में न केवल शक्ति की आराधना की बात है बल्कि यह भी स्पष्ट है कि हमें पेड़-पौधों को लगाकर उनका संरक्षण करना चाहिए| तभी देवी प्रसन्न होंगी| वायु में भी दैवीय शक्ति की कल्पना की गयी है, क्योंकि वायु ही प्राण बन कर शरीर में वास करती है| वायु-पूजन का वर्णन भी संस्कार गीतों में मिलता है|   

     निमिया के छाह करुवैनी , शीतल बतास बहे ए |
     ए बतासवा  में माई जी  बइठली,   एही से पूरा उजियार हे ......|

             भगवान शिव को प्रकृति का रक्षक माना जाता है|सभी विषैले जीव-जन्तु उनके गण हैं| भगवान शिव उनकी रक्षा करते हैं, माँ गंगा को अपनी जटा में धारण करते हैं| भारतीय संस्कृति में जल को भी देवता माना गया है, ताकि जल स्रोतों को देवता मानकर हम उनकी रक्षा करें और जल को प्रदूषित न करें| नदियों को जीवनदायिनी भी कहा गया है| हमारी पुरातन संस्कृति में नदियों, तालाबों और पोखरों में मल-मूत्र बिसर्जन की कल्पना भी नहीं की जा सकती अपितु नदियों को माता मानकर उनकी पूजा की परम्परा कायम रही है, जिसकी झलक भोजपुरी संस्कार गीतों में मिलती है|

   गंगा त हइ हमार माई , हम उनकर बेतवा नदान |
   हमार माई आपन लहर सिकोर , हम जेब ओही हो पार |
   गंगा माई हमके पुतवा  जे देइहन, शिर नवैब बार-बार   |
  बबुवा के .........................................भुत होई उपकार | 

               माता गंगा पर अनेक लोकगीत भोजपुरी में मिलते हैं| भोजपुरी संस्कार गीतों में कुआँ खुदवाने का भी वर्णन मिलता है| 

    अंगना में कुअवा खनावल पियर माटी हो |
    अहो माई रे जगावहु सब देवता लोग ,
               रउरा घरे ललना भाईले हो ...................|        

               पोखरों एवं तालाबों का वर्णन भोजपुरी संस्कार गीतों में प्रचुरता से हुआ है| सरोवर को घर का बुनियाद माना गया है| सरोवर को दामाद दहेज के रूप में मांगता है और सरोवर न मिलने पर रूठ जाता है| बेटी भी अपने पिता से कहती है कि जब इतना धन-दौलत, गाय आदि आप दहेज में दे रहे हैं तो एक सरोवर में क्या रखा है? बेटी का पिता यह सुनकर कहता है 'बेटी! सरोवर हमारी बुनियाद है|' फिर बेटी के आग्रह पर पिता कुछ हिदायतों के साथ सरोवर भी दे देता है| तात्पर्य यह है कि सरोवर के प्रति लोगों का कितना लगाव है| सरोवर जल का एक स्थाई स्रोत होता है, इसलिए इसके प्रति सबकी चाह होती है -  
 
एकली आगिन , एकली गाभिन , एकली दिहली किलोर जी |
अतना दहेज हम बेटी के देहली , सरवर लागी रुसले दमाद जी ||
सभा अलोते होई बेटी अरज करे बाबा से , सुन बाबा अरज हमार जी |
अतना दहेज बाबा बेटी के दिहल , सरवर कवन बुनियाद जी   ||
सरवर - सरवर जनि कर बेटी , सरवर कवन मोर बुनियाद जी |
ओही सरवर बेटी चकवा - चकइया , गइया पियेले जुड़ पानी जी ||
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दह जनि लनघिय , पुरइन जनि धंगीयह , बिरइन  जनि उठ्वास जी |
एकही घटवे नहइय ए बेटी , अररा सुखइय लागी केस जी ||

                इन लोकगीतों को पढ़ने पर पता चलता है की कैसी समझ भोजपुरी संस्कार गीतों में छिपी हुई है| भोजपुरी संस्कार गीतों में वृक्ष की महत्ता का भी वर्णन है|

           निमिया के दाढ़ मइया लावेली---------------|
           
               भोजपुरी संस्कार गीतों में इस बात का भी चिंतन किया गया है कि जब तक कोई फूल पूर्णतः विकसित न हो तब तक उसे तोडना नही चाहिए|
  
         बनवा में फुले ला ब्येलिया  त मन रीति भावन रे  |
         मालिन जे हाथ पसरे ली की, कब फुलवा लोड्हब हे||
         धीर धरु  हे मालिन , धीर धरु हो, अभी त कोढ़ी फूल हे |
         जब फूल होइहे कचनार त फूल तू लोध लिय हो |            

                                                       
                                                                              समाप्त

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