कविता:
तुम, मेरी देवी
खिलखिला उठती,
विमल नाम अधर पर,
तुम धरती पर उतर आयी हो ।
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तुम, मेरी देवी
-- विजय निकोर
भोर की अप्रतिम ओस में धुली
निर्मल, निष्पाप
प्रभात की हँसी-सी
कभी दोपहर की ऊष्मा ओढ़े
फिर पीली शाम-सी सरकती
तुम्हारी याद
रात के अँधेरे में घुल जाती है ।
निद्राविही न कँटीले पहरों में
अपने सारे रंग
मुझमें निचोड़ जाती है,
और एक और भोर के आते ही
कुंकुम किरणों का घूँघट ओढ़े
शर्मीली-सी लौट आती है फिर ।
कन्हैया की वंशी-धुन में समायी
वसन्त पंचमी की पूजा में सरस्वती बनी,
शंभुगिरि के शिख़र पर पार्वती-सी,
मेरे लिये
तुम वीणा में अंतर्निहित स्वर मधुर हो ।
हर आराधना में तुम्हारा
मेरी अंतर्भावना में मुझे तो लगता है
पिघलते हिमालय के शोभान्वित शिख़र से
पावन गंगा बनी
११ जुलाई, २०१०
7 टिप्पणियां:
sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.com
प्रिय विजय जी,
आपकी रचनाएं भावुकतम, और वह गहराई लिये होती है कि
तीक्षण बुद्धि और समझ की परीक्षा ले लेती है | माँ शारदा के
कविता स्वरुप की स्तुति के यह शब्द-चित्र अति सराहनीय है |
साधुवाद
कमल
Santosh Bhauwala ✆ द्वारा yahoogroups.com
आदरणीय विजय जी,
बहुत ही सादगी लिये पावन रचना!!
मंत्रमुग्ध सी खो गई कविता में !!!
संतोष भाऊवाला
- sosimadhu@gmail.com
आ. विजय जी
कोमल भावों में पिरी कविता के लिए बधाई
मधु
deepti gupta ✆ द्वारा yahoogroups.com
आदरणीय विजय जी
क्या तह कविता गंगा पर लिखी है ? अगर ऐसा तो आपकी लेखनी को प्रणाम !
सादर,
दीप्ति
"vijay"
आ० दीप्ति जी,
आपने सही देखा । इस कविता की अवधारणा हरिद्वार में गंगा जी मैं तैरती दीप-माला के ख़याल से आरम्भ हुई थी । तत्पश्चात हमारी स्मृति बेलुर-मठ मेंगंगा के तीर पर गई , जहाँ हम कविता लिखने से कोई ६ मास पहलेएक सप्ताह रामकृष्ण आश्रम में ठहरे थे । कविता में सुबह और शामबेलुर-मठ गंगा जी की है । लिखते हुए किसी की याद भी आई, और लगाकि वह भी तो गंगा-सी थी । कवि की मानसिक स्थिति कुछ ऐसी होती है कि जैसे पल भर में उड़ान कहाँ से कहाँ ले जाती है । यह सब कुछ ऐसा हुआ जैसे
पिकासो, सालवेडोर डाली या मतीस की पेन्टिंग में एक संग बहुरूप बिम्ब आ जाते हैं और देखते ही हम सोचते रह जाते हैं । जैसा कि हमने आपसे पहले कहा था, आपकी कई पेन्टिगज़ में भी हमें ऐसे बाहुशाख़ित अनूठे बिम्ब दिखाई दिए हैं।
सादर और सस्नेह ।
विजय
विजय जी
यह रचना विलम्ब से आज पढ़ सका.
इसे अपने ब्लॉग दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.इन में भी लगा रहा हूँ. देखिएगा.
रचना मनोहारी है. आपकी अनुभूतिप्रवण कलम और उससे निःसृत कलाम को प्रणाम.
प्रिय मित्रगण,
"तुम मेरी देवी" कविता की सराहना के लिए अतिशय आभार । सस्नेह ।
विजय निकोर
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