छंद सलिला:
बुंदेलखंड के लोक मानस में प्रतिष्ठित आल्हा या वीर छंद
-- संजीव 'सलिल'

*
आल्हा या वीर छन्द अर्ध सम मात्रिक छंद है जिसके हर
पद (पंक्ति) में क्रमशः १६-१६ मात्राएँ, चरणान्त क्रमशः दीर्घ-लघु होता
है. यह छंद वीर रस से ओत-प्रोत होता है. इस छंद में अतिशयोक्ति अलंकार का
प्रचुरता से प्रयोग होता है.
आल्हा मात्रिक छंद सवैया, सोलह-पन्द्रह यति अनिवार्य.
गुरु-लघु चरण अंत में रखिये, शौर्य-वीरता हो स्वीकार्य..
अलंकार अतिशयताकारक, करे राई को तुरत पहाड़.
ज्यों मिमयाती बकरी सोचे, गुँजा रही वन लगा दहाड़..


महाकवि जगनिक द्वारा १२ वीं सदी में रचित आल्हा-खण्ड इस छंद का कालजयी
ग्रन्थ है जिसका गायन समूचे बुंदेलखंड, बघेलखंड, रूहेलखंड में वर्ष काल
में गाँव-गाँव में चौपालों पर होता है. प्राचीन समय में युद्धादि के समय
इस छंद का नगाड़ों के साथ गायन होता था जिसे सुनकर योद्धा जोश में भरकर
जान हथेली पर रखकर प्राण-प्रण से जूझ जाते थे.
पराक्रमी बनाफरी राजपूत योद्धा बंधु आल्हा और ऊदल इस वीरगाथा काव्य के नायक हैं. यह काव्य सदियों तक श्रुति-स्मृति परंपरा में गा-सुन-गाकर एक से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचा. विविध क्षेत्रों में इसके पथ में अंतर इसी कारण है. प्रतिभावान अल्हैतों को स्वनिर्मित छंद जोड़ने से भी आपत्ति न थी दल्तः कथा की अंतर्वस्तु भी संदेह के घेरे में आ गयी. बुंदेली, बघेली, रूहेली, बनाफरी, अवधी, भोजपुरी, कन्नौजी भाषियों ने चंद बरदाई के समकालिक, महोबा के चंदेल शासक परमर्दिदेव के राजकवि महाकवि जगनिक रचित इस महाकाव्य को घर-घर तक पहुँचाया. इसे 'परमाल रासो' भी कहा जाता है.

आज भी सावन आते ही घिरती घटाओं, गरजते मेघों के साथ बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड, बघेलखंड, रूहेलखंड आदि अंचलों में अल्हैत (आल्हा गायक) चौपालों पर इस तरह तान छेड़ते हैं मानो गरजते बादलों और तड़कती बिजली से होड़ ले रहे हों. १८६५ तक इस महाकाव्य का कोई प्रामाणिक पथ उपलब्ध नहीं था. १८७१ में चार्ल्स ईलिअट (Charles Elliott) ने अल्हैतों से सुन-सुनकर २३ पदों का संग्रह किया जो १८७१ में पहली बार मुद्रित हुआ. तत्पश्चात जोर्ज अब्राहम ग्रिअर्सन ने इसका परिवर्धित संस्करण प्रकाशित कराया. १८७६ में विलियम वाटरफील्ड ने इसका कुछ अंश अंग्रेजी युद्ध काव्य छन्द बैलेड (ballad) के छन्द विधान के अनुसार 'नौलखा हार या जागीर हेतु युद्ध' (The Nine-Lakh Chain or the maro Feud) शीर्षक से अनुवाद किया. कालांतर में इस तथा अंअनुवादित हिस्से का ग्रिअर्सन लिखित भूमिका सहित सारांश १९२३ में 'आल्हा गीत: उत्तर भारत के चारणों द्वारा गया राजपूती पराक्रम का आख्यान' (The Lay of Alha: A Saga of Rajput Chivalry as Sung by Minstrels of Northern India) शीर्षक से प्रकाशित हुआ.
महाकाव्य आल्हा-खण्ड में दो महावीर बुन्देल युवाओं आल्हा-ऊदल के पराक्रम की गाथा है. विविध प्रसंगों में विविध रसों की कुछ पंक्तियाँ देखें:
पहिल बचनियां है माता की, बेटा बाघ मारि घर लाउ.
आजु बाघ कल बैरी मारउ, मोर छतिया कै डाह बुझाउ..
बिन अहेर के हम ना जावैं, चाहे कोटिन करो उपाय.
जिसका बेटा कायर निकले, माता बैठि-बैठि मर जाय..
('मोर' का उच्चारण 'मुर' की तरह)
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बिन अहेर के हम ना जावैं, चाहे कोटिन करो उपाय.
जिसका बेटा कायर निकले, माता बैठि-बैठि मर जाय..
('मोर' का उच्चारण 'मुर' की तरह)
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टँगी खुपड़िया बाप-चचा की, मांडौगढ़ बरगद की डार.
आधी रतिया की बेला में, खोपड़ी कहे पुकार-पुकार..
कहवाँ आल्हा कहवाँ मलखे, कहवाँ ऊदल लडैते लाल.
बचि कै आना मांडौगढ़ में, राज बघेल जिए कै काल..
('खोपड़ी' का उच्चारण 'खुपड़ी'), ('ऊदल' का उच्चारण 'उदल')
*
अभी उमर है बारी भोरी, बेटा खाउ दूध औ भात.
चढ़ै जवानी जब बाँहन पै, तब के दैहै तोके मात..
*
एक तो सूघर लड़कैंयां कै, दूसर देवी कै वरदान.
नैन सनीचर है ऊदल के, औ बेह्फैया बसे लिलार..
महुवरि बाजि रही आँगन मां, जुबती देखि-देखि ठगि जाँय.
राग-रागिनी ऊदल गावैं, पक्के महल दरारा खाँय..
('सूघर' का उच्चारण 'सुघर')
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आधी रतिया की बेला में, खोपड़ी कहे पुकार-पुकार..
कहवाँ आल्हा कहवाँ मलखे, कहवाँ ऊदल लडैते लाल.
बचि कै आना मांडौगढ़ में, राज बघेल जिए कै काल..
('खोपड़ी' का उच्चारण 'खुपड़ी'), ('ऊदल' का उच्चारण 'उदल')
अभी उमर है बारी भोरी, बेटा खाउ दूध औ भात.
चढ़ै जवानी जब बाँहन पै, तब के दैहै तोके मात..
एक तो सूघर लड़कैंयां कै, दूसर देवी कै वरदान.
नैन सनीचर है ऊदल के, औ बेह्फैया बसे लिलार..
महुवरि बाजि रही आँगन मां, जुबती देखि-देखि ठगि जाँय.
राग-रागिनी ऊदल गावैं, पक्के महल दरारा खाँय..
('सूघर' का उच्चारण 'सुघर')
अभिनव प्रयोग :
आल्हा में हास्य रस: बुंदेली के नीके बोल...
आल्हा में हास्य रस: बुंदेली के नीके बोल...
संजीव 'सलिल'
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तनक न चिंता करो दाऊ जू, बुंदेली के नीके बोल.
जो बोलत हैं बेई जानैं, मिसरी जात कान मैं घोल..
कबऊ-कबऊ ऐसों लागत ज्यौं, अमराई मां फिररै डोल.
आल्हा सुनत लगत हैं ऐसो, जैसें बाज रए रे ढोल..
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अंग्रेजी खों मोह ब्याप गौ, जासें मोड़ें जानत नांय.
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अंग्रेजी खों मोह ब्याप गौ, जासें मोड़ें जानत नांय.
छींकें-खांसें अंग्रेजी मां, जैंसें सोउत मां बर्रांय..
नीकी भासा कहें गँवारू, माँ खों ममी कहत इतरांय.
पाँव बुजुर्गों खें पड़ने हौं, तो बिनकी नानी मर जांय..
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फ़िल्मी धुन में टर्राउट हैं, आँय-बाँय फिर कमर हिलांय.
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फ़िल्मी धुन में टर्राउट हैं, आँय-बाँय फिर कमर हिलांय.
बन्ना-बन्नी, सोहर, फागें, आल्हा, होरी समझत नांय..
बाटी-भर्ता, मठा-महेरी, छोड़ केक बिस्कुट बें खांय.
अमराई चौपाल पनघटा, भूल सहर मां फिरें भुलांय.
*डेट कर रए जिन-तिन कै सँग, रहें न कौनऊ कौनऊ साथ.
मजा लूट लें चार दिना फिर, न्यारे-सांझे झारें हाथ..
सात जनम की बात न करियो, सात दिना मां फोरें माथ.
तोड़ भरोसा एक-दूजे का, दोउऊ पल मां भए अनाथ..
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Acharya Sanjiv verma 'Salil'
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9 टिप्पणियां:
ACHCHHEE JAANKAAREE KE LIYE AAPKO
BADHAAEE AUR SHUBH KAMNA .
kusumsinha2000@yahoo.com ekavita
priy sanjiv ji
aap jaise vidwan kam hi hote hain lekh padhakar bahut achha laga bhagwan kare aap khub swasth rahen aur khub likhen
kusum
आ. सलिल जी,
प्रणाम:
आपको और आपकी कलम को नमन | आप हम सब पर बहुत बड़ा परोपकार कर रहे हैं | एक शिक्षक की भूमिका भी निभा रहे हैं | और आशा है कि भविष्य में भी निभाते रहेंगे | आपको इस इतिहास के लिखने और उसे चित्रित करके हम तक पहुंचाने के लिए धन्यवाद और हार्दिक बधाई स्वीकार हो |
इस समय गरमी के मौसम में फिर बरसात में, शायद ही कोई उत्तर भारत का गाँव हो जो इस आल्हा स्वर- संगीत से परिचित न हो | आज भी आल्हा- छंद का महत्व लोक -संगीत में महत्वपूर्ण है | वैसे गाँव में टेलीविजन और सी.
डी. प्लेयर आ जाने से कुछ असर आया है | साथ में बिजली के कारण भी | पहले ये आल्हा दिया(दीपक) - लालटेन के प्रकाश में पढी जाती थी | समाज में शिक्षा का भी अभाव था | आज गाँव में भी लोग अंग्रेजी बोलने लगे हैं | और
अलग तरह के साहित्य की भी उपलब्धी उपयुक्त मात्रा में मिल जाती है | समाज में भाषा के कारण भी परिवर्तन आ गया है | आज के पढ़े -लिखे आल्हा को पढने की जगह टी.वी. देखते हैं | इसके साथ ही इंटरनेट की सुविधाएँ भी
गाँव तक पहुँच रहीं हैं | इंटरनेट वाले आज अंग्रेजी को महत्व दे रहे हैं | दूसरे- शब्दों में वे कह देते हैं कि हिन्दी तो दलितों की भाषा है |
आल्हा- ऊदल के इतिहास को प्रसिद्ध साहित्यकार, कहानीकार मुंशी प्रेमचंद ने उर्दू में- कानपुर से छपने- प्रकाशित उर्दू पत्रिका में लिखा जिसका हिन्दी में अनुवाद हुआ | मैंने पहली बार इस इतिहास को हिन्दी में पढ़ा | आल्हा- ऊदल ने लगभग ४० लडाइयां लडीं और सभी लडाइयों को जीता | इन बहुत सारी लड़ाइयों का कारण, उनके उरई- कालपीवाले माहिल मामा ही थे जो इधर की उधर लगाते थे | इसी के कारण उनको एक बार महोबा छोड़कर कन्नौज, राजा जयचंद के पास जाना पड़ा था | महाकवि जगनिक के वारे में सुना था किन्तु ये पता नहीं था कि वे एक महाकवि भी थे |
आल्हा पढ़ते समय, गाँव में अक्सर लोग पूछ लेते हैं कि किसकी लिखी है महाकवि जगनिक की लिखी को असली मानते थे | राजा "परमाल रासो" के वारे में भी हमने सुना था किन्तु अधिक जानकारी नहीं थी | आज हमें दिल्ली के राजा प्रथ्वीराज चौहान, कन्नौज के राजा जयचंद, तथा महोबे के राजा परमाल के इतिहास के वारे में भारत के इतिहास में पढने को मिल जाता है | इन राजाओं के आपस के झगड़ों के कारण ही भारत पर मुसलामानों का आक्रमण और शासन
हुआ | आज पुनः वही स्थिति है कि २०५० तक मुसलमानों का भारत में बड़ी भूमिका के साथ उदय होगा | भारत के ६ हजार जातियों में बंटे हिन्दू एक न होने की भूमिका में पीछे रह जायेंगे | उनका ऊंच-नींच का घमंड उन्हें ही नींचा
दिखाएगा | उत्तर- प्रदेश की राजनीति को कौन समझ रहा है |? जहां हिन्दू अलग- थगल पड़ गये हैं | कानपुर, आगरा, अलीगढ, लखनऊ, तथा आजमगढ़ मुसलमानों के जाने पहिचाने शहर हैं | जहां भाषा और लेखन भी बदल रहा है | हिन्दी का क्षेत्र और साहित्य सिमट रहा है | सरकारें अपनी राजनीति ही कर रहीं हैं |
मैनपुरी के आ. सुरजन (आधार) चैतन्य ने इसे हारमोनियम- ढोलक के साज के साथ स्वर में गाया है | जिसकी पहले कैसेट थीं अब सी. डी. में उपलब्ध है | नदी- नर्वदा का द्रश्य जब हम "मांडोंगढ़ की लड़ाई" में देखते हैं वह द्रश्य, बहुत ही प्राकृतिक और मन को मोह लेता है | मेरे पास पूरी लड़ाई की; दो सी. डी. है; कभी-कभी सुनने का मन करता है तो पूरी लडाई सुन
लेता हूँ |
आल्हा- ऊदल की ४० लड़ाइयों में निम्न मुझे याद हैं- १. इंदल हरण, २. ढेबा का ब्याह, ३. मलिखे का ब्याह, ४. मोतिनी का ब्याह, ५. ऊदल का ब्याह, ६. आल्हा का ब्याह, ७. भुजरियों की लडाई, ८. मांडोंगढ़ की लडाई, ९. नदी वेतबा क़ी लडाई, १०. महोबे की लडाई ११. बिठूर की लडाई, १२. मल्हना का ब्याह
आचार्य जी आपका बहुत- बहुत धन्यवाद और शत- शत नमन |
सादर आभार के साथ- गौतम
आत्मीय!
मैनपुरी मेरी ननिहाल है. माँ से काव्य संस्कार मिले. उनके लिखे भजन यदा-कदा यहाँ प्रस्तुत किये हैं. बचपन में सुने लोकगीत अब लापता हैं, भावी पीढ़ी के लिये हम लोग कुछ तो रख जायें. यही सोच अंतरजाल में सामग्री परेशान की प्रेरणा है. अपने बहुत उपयोगी सामग्री जोड़ी. आभार.
इतिहास में मामा त्रयी कंस, शकुनी और माहिल की करनी कौन भूल सकता है.
आपको यह प्रयास रुचा तो मेरा श्रम सार्थक हो गया. हास्य आल्हा पर आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा है.
drdeepti25@yahoo.co.in द्वारा yahoogroups.com kavyadhara
आदरणीय संजीव जी,
अद्भुत प्रस्तुति! 'आल्हा खंड' ऊर्जा, वीर रस, और अंत में पाठक को भावुक बनाने वाला एक उत्कृष्ट काव्य है! मैंने पढ़ा है और पढ़ाया भी है! जितनी बार पढ़ो, उतना ही अच्छा लगता है! वीर रस का होते हुए भी इसका कोमल भावनात्मक पक्ष भी बहुत प्रबल है! आपने
सराहना के साथ,
सादर,
दीप्ति
- kanuvankoti@yahoo.com
अति सराहनीय कार्य संजीव जी !
सादर,
कनु
- pindira77@yahoo.co.in
sanjiiv ji
aalha chhand kii jankari ke lie
bahut bahut dhanyavad. bhavishya men
bhi isi prakar jankari bdhaten
rahen.
indira
Mukesh Srivastava ✆ kavyadhara
आचार्य जी,
आल्हा परिचय के साथ साथ आल्हा रूप में ही
हास्य रस का सुन्दर संचार किया है - अच्छा लगा
सच आप हिंदी साहित्य के लिए आभूषण हो -
ढेर सी बधाइयों के साथ
मुकेश इलाहाबादी
Rajput nhi ahir the alha udal thoda acche se itihas aur archeological report padho
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