रचना - प्रति रचना:
ग़ज़ल
मैत्रेयी अनुरूपा
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बदल दें वक्त को ऐसे जियाले ही नहीं होते
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Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
salil.sanjiv@gmail.com
ग़ज़ल
मैत्रेयी अनुरूपा
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बदल दें वक्त को ऐसे जियाले ही नहीं होते
वगरना हम दिलासों ने उछाले ही नहीं होते
उठा कर रख दिया था ताक पर उसने चरागों को
तभी से इस शहर में अब उजाले ही नहीं होते
कहानी रोज लाती हैं हवायें उसकी गलियों से
उन्हें पर छापने वाले रिसाले ही नहीं होते
पहन ली रामनामी जब किया इसरार था तुमने
कहीं रामेश्वरम के पर शिवाले ही नहीं होते
तरक्की वायदों की तो फ़सल हर रोज बोती है
तड़पती भूख के हक में निवाले ही नहीं होते
रखा होता अगरचे डोरियों को खींच कर हमने
यकीनन पंख फ़िर उसने निकाले ही नहीं होते
न जाने किसलिये लिखती रही हर रोज अनुरूपा
ये फ़ुटकर शेर गज़लों के हवाले ही नहीं होते
maitreyee anuroopa <maitreyi_anuroopa@yahoo.com>
मुक्तिका:
सम्हलता कौन...
संजीव 'सलिल'
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सम्हलता कौन...
संजीव 'सलिल'
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सम्हलता कौन गिरकर ख्वाब गर पाले नहीं होते.
न पीते, गम हसीं मय में अगर ढाले नहीं होते..
न सच को झूठ लिखते, रात को दिन गर नहीं लिखते.
किसी के हाथ में कोई रिसाले ही नहीं होते..
सियासत की रसोई में न जाता एक भी बन्दा.
जो ताज़ा स्वार्थ-सब्जी के मसाले ही नहीं होते..
न पचता सुब्ह का खाना, न रुचता रात का भोजन.
हमारी जिंदगी में गर घोटाले ही नहीं होते..
कदम रखने का हमको हौसला होता नहीं यारों.
'सलिल' राहों में काँटे, पगों में छाले नहीं होते..
सम्हलता कौन गिरकर ख्वाब गर पाले नहीं होते.
न पीते, गम हसीं मय में अगर ढाले नहीं होते..
न सच को झूठ लिखते, रात को दिन गर नहीं लिखते.
किसी के हाथ में कोई रिसाले ही नहीं होते..
सियासत की रसोई में न जाता एक भी बन्दा.
जो ताज़ा स्वार्थ-सब्जी के मसाले ही नहीं होते..
न पचता सुब्ह का खाना, न रुचता रात का भोजन.
हमारी जिंदगी में गर घोटाले ही नहीं होते..
कदम रखने का हमको हौसला होता नहीं यारों.
'सलिल' राहों में काँटे, पगों में छाले नहीं होते..
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Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
salil.sanjiv@gmail.com
1 टिप्पणी:
kusum sinha ✆ ekavita
priy meitrey ji
aapke gazal to lajwab hote hain bahut sundar likhti hain aap bhagwan kare aap hamesha swasth rahen aur khub likhen
kusum
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