चिन्ता कापि न कार्या निवेदितात्मभिः कदापीति।
भगवानपि पुष्टिस्थो न करिष्यति लौकिकीं च गतिम् ॥१॥
करें समर्पित आत्म निज, ग्रहण करें परमात्म
चिंता करें न जगत की, रक्षेंगे सर्वात्म॥१॥
चिंता करें न जगत की, रक्षेंगे सर्वात्म॥१॥
स्वयं को श्रीकृष्ण को समर्पण करते समय कभी भी किसी प्रकार की भी चिंता न करें, भगवान प्रेम और लोक व्यवहार दोनों का संरक्षण करेंगे ॥१॥
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निवेदनं तु स्मर्तव्यं सर्वथा ताह्शैर्जनैः।
सर्वेश्चरश्च सर्वात्मा निजेच्छातः करिष्यति ॥२॥
आत्म समर्पण का रखें, सदा भक्तगण ध्यान
उचित करें सर्वात्म प्रभु, हरि इच्छा बलवान ॥२॥
उचित करें सर्वात्म प्रभु, हरि इच्छा बलवान ॥२॥
इस प्रकार के भक्त केवल अपने समर्पण को स्मरण रखें, शेष सब कुछ, सबमें आत्मा रूप विद्यमान सर्वेश्वर, अपनी इच्छा के अनुसार करेंगे ॥२॥
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सर्वेषां प्रभु संबंधो न प्रत्येकमिति स्थितिः ।
अतोsन्यविनियोगेsपि चिन्ता का स्वस्य सोsपिचेत् ॥३॥
सभी आत्म परमात्म के, अंश- न उनमें लीन
आप न चिंता कीजिए, प्रभु-रक्षित सब दीन॥३॥
आप न चिंता कीजिए, प्रभु-रक्षित सब दीन॥३॥
ईश्वर के साथ सबका सम्बन्ध है पर सबकी उनमें निरंतर स्थिति नहीं है, अतः दूसरों की उनमें स्थिति न होने पर चिंता न करें, वे स्वयं ही जानेंगे॥३॥
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अज्ञानादथ वा ज्ञानात् कृतमात्मनिवेदनम् ।
यैः कृष्णसात्कृतप्राणैस्तेषां का परिदेवना ॥४॥
अनजाने या जानकर, प्रभु अर्पित कर आत्म
जिन्होंने अज्ञान या ज्ञान पूर्वक श्रीकृष्ण को आत्म समर्पण कर दिया है, अपने प्राणों को उनके अधीन(कृष्ण को समर्पित // क) कर दिया है, उनको क्या दुःख हो सकता है ॥४॥
शेष न कुछ दुःख-दर्द हो, ग्रहण करें परमात्म॥४॥
जिन्होंने अज्ञान या ज्ञान पूर्वक श्रीकृष्ण को आत्म समर्पण कर दिया है, अपने प्राणों को उनके अधीन(कृष्ण को समर्पित // क) कर दिया है, उनको क्या दुःख हो सकता है ॥४॥
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तथा निवेदने चिन्ता त्याज्या श्रीपुरुषोत्तमे ।
विनियोगेsपि सा त्याज्या समर्थो हि हरिः स्वतः ॥५॥
तजकर चिंता-फ़िक्र सब, हरि पग में रख माथ
पूर्ण समर्पण हो- न हो, हरि थामेंगे हाथ ॥५॥
पूर्ण समर्पण हो- न हो, हरि थामेंगे हाथ ॥५॥
लोके स्वास्थ्यं तथा वेदे हरिस्तु न करिष्यति ।
पुष्टिमार्गस्थितो यस्मात्साक्षिणो भवताsखिलाः ॥६॥
लोक-स्वास्थ्य-वेदादि कर, हरि-अर्पित हों धन्य.
पुष्टिमार्ग में भक्त- हों, साक्षी ईश अनन्य॥६॥
पुष्टि मार्ग में स्थित, जिससे यह अखिल जगत प्रत्यक्ष हुआ है यानी अस्तित्व में आकर दृश्यमान हुआ है, उस (अपने) लोक के स्वास्थ्य और दुःख-सुख का ध्यान स्वयम श्री हरि करेगें !
पुष्टिमार्ग में भक्त- हों, साक्षी ईश अनन्य॥६॥
पुष्टि मार्ग में स्थित, जिससे यह अखिल जगत प्रत्यक्ष हुआ है यानी अस्तित्व में आकर दृश्यमान हुआ है, उस (अपने) लोक के स्वास्थ्य और दुःख-सुख का ध्यान स्वयम श्री हरि करेगें !
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सेवाकृतिर्गुरोराज्ञाबाधनं वा हरीच्छया ।
अतः सेवा परं चित्तं विधाय स्थीयतांसुखम् ॥७॥
हरि-इच्छा गुरु-वचन सुन, हों सेवा में मग्न.
पर सेवा कर मन लगा, सदा रहे मुद-मग्न ॥७॥
पर सेवा कर मन लगा, सदा रहे मुद-मग्न ॥७॥
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चित्तोद्वेगं विधायापि हरिर्यद्यत् करिष्यति ।
तथैव तस्य लीलेति मत्वा चिन्तां द्रुतं त्यजेत ॥८॥
चित में हो उद्वेग यदि, हरि-लीला लें मान
शीघ्र त्याग कर कीजिए, श्री हरि का ही ध्यान ॥८॥
हमारे चित्त में उद्वेग आदि - हरि जो जो भी उत्पन्न करें , उसे उनकी लीला मानकर चिंता को त्वरित (शीघ्रता से ) तज देना चाहिए ॥८॥
शीघ्र त्याग कर कीजिए, श्री हरि का ही ध्यान ॥८॥
हमारे चित्त में उद्वेग आदि - हरि जो जो भी उत्पन्न करें , उसे उनकी लीला मानकर चिंता को त्वरित (शीघ्रता से ) तज देना चाहिए ॥८॥
तस्मात्सर्वात्मना नित्यं श्रीकृष्णः शरणं मम ।
वदद्भिरेव सततं स्थेयमित्येव मे मतिः ॥९॥
सर्वात्मा के मूल हरि, शरणागत मैं दास
सतत कहें मति थिर रखें, यह मेरा विश्वास ॥९॥
सतत कहें मति थिर रखें, यह मेरा विश्वास ॥९॥
अतः मैं सदैव सबके आत्मा श्रीकृष्ण की शरण में हूँ। इस प्रकार बोलते हुए ही निरंतर रहें, ऐसा मेरा निश्चित मत है॥९॥
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