रचना - प्रति रचना:
विजय कुमार सप्पत्ती - संजीव 'सलिल'
*
परायों के घर
Vijay Kumar Sappatti <vksappatti@gmail.com>
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तुमने ठीक कहा
'परायों के घर
भीगी आँखों से नहीं जाते'.
तभी तो मैं साधिकार
यहाँ चली आयी.
ये बात और है कि
यहाँ आकर जान सकी
कि तुम ज़िंदगी का
सबसे बड़ा सच भूल गये
सुनोपरायों को लेकर
कही गयी नज्में
दिल से लगाकर
नहीं रखी जातीं।
लौटा दो मुझे
तमाम नज्मे,
जो मेरे-तुम्हारी
यादों से बावस्ता हैं।
और अब दिल से नहीं
दिमाग से लिखो,
आईने में अपने आप को
खुद से ही अपरिचित दिखो.
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot. com
http://hindihindi.in
***
विजय कुमार सप्पत्ती - संजीव 'सलिल'
*
परायों के घर
कल रात दिल के दरवाजे पर दस्तक हुई;
सपनो की आंखो से देखा तो,
तुम थी .....!!!
मुझसे मेरी नज्में मांग रही थी,
उन नज्मों को, जिन्हें संभाल रखा था,
मैंने तुम्हारे लिये ;
एक उम्र भर के लिये ...!
आज कही खो गई थी,
वक्त के धूल भरे रास्तों में ;
शायद उन्ही रास्तों में ;
जिन पर चल कर तुम यहाँ आई हो .......!!
लेकिन ;
क्या किसी ने तुम्हे बताया नहीं ;
कि,
परायों के घर भीगी आंखों से नहीं जाते........!!!
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तुमने ठीक कहा
'परायों के घर
भीगी आँखों से नहीं जाते'.
तभी तो मैं साधिकार
यहाँ चली आयी.
ये बात और है कि
यहाँ आकर जान सकी
कि तुम ज़िंदगी का
सबसे बड़ा सच भूल गये
सुनोपरायों को लेकर
कही गयी नज्में
दिल से लगाकर
नहीं रखी जातीं।
लौटा दो मुझे
तमाम नज्मे,
जो मेरे-तुम्हारी
यादों से बावस्ता हैं।
और अब दिल से नहीं
दिमाग से लिखो,
आईने में अपने आप को
खुद से ही अपरिचित दिखो.
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Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.
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