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सोमवार, 3 जनवरी 2011

कविता: लोकतन्त्र मकबरा न हो... संजीव 'सलिल'

कविता:

लोकतन्त्र मकबरा न हो...

संजीव 'सलिल'
*
लोकतंत्र है
जनगण-मन की ,
आशाओं का पावन मंदिर.

हाय!
हो रहा आज अपावन.
हमने शीश कटाये
इसकी खातिर हँसकर.
त्याग और बलिदानोंकी थी
झड़ी लगा दी.

आयी आज़ादी तो
भुला देश हित हमने
निजी हितों को
दी वरीयता.

राजनीति-
सत्ता, दल, बल,
छल-नीति होगई.
लोकनीति-जननीति बने
यह आस खो गयी. 
घपलों-घोटालों की हममें
होड़ लगी है.
मेहनत-ईमानदारी की
क्यों राह तजी है?

मँहगे आम चुनाव,
भ्रष्टतम हैं सरकारें.
असर न कुछ होता
दुतकारें या फटकारें.

दोहरे चेहरे भारत की
पहचान बन गये.
भारतवासी खुद से ही
अनजान हो गये.

भुला विरासत
चकाचौंध में भरमाये क्यों?
सरल सादगी पर न गर्व
हम शरमाये क्यों?

लोकतन्त्र का नित्य कर रहे
क्रय-विक्रय हम.
अपने मुख पर खुद ही
कालिख लगा रहे हम.

नाग, साँप, बिच्छू ही
लड़ते हैं चुनाव अब.
आसमाँ छू रहे
जमीं पर आयें भाव कब?

सामाजिक समरसता को
हम तोड़ रहे हैं.
सात्विक, सहज, सरलता से
मुँह मोड़ रहे हैं.

लोकतंत्र पर लोभतन्त्र
आघात कर रहा.
साये से अपने ही
इंसां आज डर रहा.

क्षत-विक्षत हो
सिसक रहा जनतंत्र छुपाओ.
लोक तंत्र मकबरा न हो
मिल इसे बचाओ.

*********************

2 टिप्‍पणियां:

shriprakash shukla ✆ ekavita ने कहा…

आदरणीय आचार्य जी,
लोकतंत्र पर कुठाराघात करती हुई वर्तमान परिस्थितियों का लेखा जोखा लेती हुई एक अद्वितीय रचना I आपका संदेह एवं चेतावनी सामयिक है बधाई हो
सादर
श्रीप्रकाश शुक्ल

sn Sharma ✆ ekavita ने कहा…

आ० आचार्य जी ,
लोकतंत्र बन चुका
भीड़-तंत्र भारत में
झूठे वादे कर फुसला कर
रिश्वत दे कर या धमका कर
जनहित कार्यों का कर शोर
जनता का धन रहे बटोर
लगा रहे अपने स्वारथ में

काश घोटाले आँखें खोले
जगे चेतना सजग होलें
जनमत का असली मूल्य टटोलें
भ्रष्टाचारिओं से मुँह मोड़े
प्रजातंत्र की तब जय बोलें
एक नये भारत के
मुक्त-कंठ स्वागत में !

सादर
कमल