कुल पेज दृश्य

सोमवार, 13 दिसंबर 2010

एक रचना: ऐसा क्यों होता है? -- संजीव 'सलिल'

एक रचना:                                                                                        
ऐसा क्यों होता है?
संजीव 'सलिल'
*
ऐसा क्यों होता होता है ?...
*
रुपये लेकर जाता है जो वह आता है खाली हाथ.
खाली हाथ गया जो भीतर, धन पा करता ऊँचा माथ..
जो सच्चा वह क़र्ज़ चुकाता, जो लुच्चा खा जाता है-
प्रभु का कैसा न्याय? न हमको तनिक समझ में आता है.

कहे बैंक मैनेजर पहले ने धन अपना जमा किया.
दूजा बचत निकाल खा रहा, जैसे पीता तेल दिया..
क़र्ज़ चुकाकर ब्याज बचाता जो वह चतुर सयाना है.
क़र्ज़ पचा निकले दीवाला जिसका वह दीवाना है..

कौन बताये किसको क्यों, कब कहाँ और क्या होता है?
मन भरमाता है दिमाग कहकर ऐसा क्यों होता है ?...
*
जन्म-जन्म का लेखा-जोखा हमने कभी न देखा है.
उत्तर मिलता नहीं प्रश्न का, पृष्ठ बंद जो लेखा है..
सीमा तन की, काल-बाह्य जो वह हम देख नहीं पाते.
झुठलाते हैं बिन जाने ही, अनजाने ही कतराते..

कर्म न कोई निष्फल होता, वह पाता जो बोता है.
मिले अचानक तो हँसता मन, खो जाये तो रोता है..
विधि निर्मम-निष्पक्ष मगर हम उसको कृपानिधान कहें.
पूजा, भोग, चढ़ावा, व्रत से खुद को छल अभिमान करें..

जैसे को तैसा मिलता है, कोई न पाता-खोता है.
व्यर्थ पूछते हम जिस-तिससे कह ऐसा क्यों होता है ?...
*
जैसा औरों से चाहें हम, अपने संग व्यवहार करें.
वैसा ही हम औरों के संग, लेन-देन आचार करें..
हम सबमें है अंश उसी का, जिसका आदि न अंत कहीं.
सत्य समझ लें तो पायेगा कोई किसी से कष्ट नहीं..

ध्यान, धारणा फिर समाधि से सत्य समझ में आता है.
जो जितना गहरा डूबा वह उतना ऊपर जाता है..
पानी का बुलबुला किस तरह चट्टानों का सच जाने?
स्वीकारे अज्ञान न, लगता सत्य समूचा झुठलाने..

'सलिल' समय-सलिला में बहता ऊपर-नीचे होता है.
जान सके जो सत्य, बताते कब-कैसा-क्यों होता है??
*******************************

कोई टिप्पणी नहीं: