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शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

मुक्तिका : मुहब्बत --- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका                                                                               

मुहब्बत

संजीव 'सलिल'
*
खुदा की है ये दस्तकारी मुहब्बत.
मनोभूमि की काश्तकारी मुहब्बत..

मिले मन तो है मस्तकारी मुहब्बत.
इन्सां की है हस्तकारी मुहब्बत..

जीता न दिल को, महज दिल को हारा.
तो कहिये इसे पस्तकारी मुहब्बत..

मिले सज-सँवर के, सलीके से हरदम.
फुर्ती सहित चुस्तकारी मुहब्बत..

बना सीढ़ियाँ पीढ़ियों को पले जो
करिए नहीं पुश्तकारी मुहब्बत..

ज़बर-जोर से रिश्ता बनता नहीं है.
बदनाम है जिस्तकारी मुहब्बत..

रखे एक पर जब नजर दूसरा तो.
शक्की हुई गश्तकारी मुहब्बत..

रही बिस्तरों पे सिसकती सदा जो
चाहे न मन बिस्तकारी मुहब्बत..

किताबी मुहब्बत के किस्से अनेकों.
पढ़ो नाम है पुस्तकारी मुहब्बत..

घिस-घिस के एड़ी न दीदार पाये.
थक-चुक गयी घिस्तकारी मुहब्बत..

बने दोस्त फिर प्यार पलने लगे तो
नकारो नहीं दोस्तकारी मुहब्बत..

मिले आते-जाते रस्ते पे दिल तो.
नयन में पली रस्तकारी मुहब्बत..

चक्कर पे चक्कर लगाकर थके जब
तो बोले कि है लस्तकारी मुहब्बत..

शुरू देह से हो खतम देह पर हो.
है गर्हित 'सलिल' गोश्तकारी मुहब्बत..

बातों ही बातों में बातों से पैदा
बरबस 'सलिल' नशिस्तकारी मुहब्बत..

छिपे धूप रवि से, शशि चांदनी से
'सलिल' है यही अस्तकारी मुहब्बत..

'सलिल' दोनों रूठें मनाये न कोई.
तो कहिये हुई ध्वस्तकारी मुहब्बत..

मिलते-बिछुड़ते जो किस्तों में रुक-रुक
वो करते 'सलिल' किस्तकारी मुहब्बत..

उसे चाहती जो न मिलकर भी मिलता.
'सलिल' चाह यह जुस्तकारी मुहब्बत..

बने एक-दूजे की खातिर 'सलिल' जो
पलती वहीं जीस्तकारी मुहब्बत..

*

दस्तकारी = हस्तकला, काश्तकारी = खेती, पस्तकारी = थकने-हरानेवाली, गश्तकारी = पहरेदारी, जिस्त = निकृष्ट/ खराब, नशिस्त = गोष्ठी, जीस्त = ज़िंदगी, जुस्त = तलाश.

टीप: अब तक आये काफियों से हटकर काफिया प्रयोग करने की यह कोशिश कितनी सफल है, आप ही तय करेंगे. लीक से हटकर काफियों को सामने लाने के नजरिये से भर्ती के षे'र अलग नहीं किये हैं. उन्हें बतायें ताकि शेरोन को छाँटने की कला से भी वाकफियत हो सके.

11 टिप्‍पणियां:

amitabh.ald@gmail.com ने कहा…

Amitabh Tripathi ✆
आदरणीय आचार्य सलिल जी,
आपकी इस तथाकथित ग़ज़ल (क्षमा करियेगा) में कोई निश्चित काफिया नहीं है| मेरी समझ से 'स्तकारी मुहब्बत' या 'श्तकारी मुहब्बत' इसका रदीफ़ है| इसके पहले का जो तुकांत होगा उसे काफिया कहेंगे| अब आप स्वयं निर्णय लेलें कि इसमे काफ़िया क्या है? जो शब्द या शब्दांश हर शे'र के अंत में अविकल दुहराया जाय उसे रदीफ़ कहते हैं| मंच के अन्य ग़ज़लगो कवि इस पर अपना विचार देंगे ही|
सद्भाव सहित
सादर
अमित

Divya Narmada ने कहा…

आत्मीय अमिताभ जी.
वन्दे मातरम.
विनम्र निवेदन है कि यह मुक्तिका है. इसे ग़ज़ल शीर्षक इसीलिये नहीं दिया गया कि इसमें अरबी-फारसी-ईरानी-उर्दू के मानकों का पूरी तरह पालन नहीं हुआ है. अतः, इसे हिन्दी ग़ज़ल या मुक्तिका कहा है. मुक्तिका अर्थात वह रचना जिसकी हर द्विपदी अपने आप में पूर्ण और अन्यों से स्वतंत्र या मुक्त हो. शिल्प ग़ज़ल से मिलता-जुलता किन्तु काफिया के अरबी-फ़ारसी नियमों से मुक्त.
हर द्विपदी में अपरिवर्तनीय शब्दांश ( तुकांत, रदीफ़)'स्तकारी मुहब्बत' या 'श्तकारी मुहब्बत' ही है. पदांत या काफिया 'अ' है जो पूर्व की हलंत ध्वनि में मिलकर उसे पूर्ण कर रहा है.
शेष जैसा विद्वान् कहेंगे वह शिरोधार्य.

amitabh tripathee ने कहा…

Amitabh Tripathi ✆
ekavita

तब ठीक है

गणेश जी बागी : ने कहा…

गणेश जी बागी :

आचार्य जी की ग़ज़ल/ मुक्तिका मे रद्दीफ "स्तकारी मुहब्बत" नहीं है, कृपया मतला देखे, रदीफ़ सिर्फ "मुहब्बत" है तथा यदि काफिया की बात की जाय तो "स्तकारी" है जिसका निर्वहन भी आचार्य जी ने बाखूबी पूरी ग़ज़ल मे किये है |

Dr.M.C. Gupta ✆ ekavita ने कहा…

संदर्भ--मंच के अन्य ग़ज़लगो कवि इस पर अपना विचार देंगे ही|

****

३०८१. न मैं कवि न कोई ग़ज़लगो फिर भी है इतना कहना—रस—ईकविता,१७ दिसंबर २०१०





न मैं कवि न कोई ग़ज़लगो फिर भी है इतना कहना
वही ग़ज़ल-कविता कहलाए जो जाने सुमधुर बहना

पाठक मन में भाव उठे गर रची गई है तोड़-मरोड़
तो वह कविता हरगिज़ भी न कहला पाएगी गहना


मूल लिखें, टिप्पणी लिखें पर भाषा को संयत रखें
तब पढ़ने वालों को न होगा चुप-चुप मन में दहना

अपनी-अपनी रीत मुताबिक आज़ादी है सबको ही
कोई क्यों ये बोल सुनाए किसने क्या बाना पहना

कंचन बरसै मेह मगर तुम ललचाना मत कभी ख़लिश
जावत स्नेह न आवत आदर क्यों ऐसे घर में रहना.

* मेरे पूज्य पिताजी कभी-कभी तुलसी का निम्न दोहा उद्धृत किया करते थे—

"आवत को आदर नहीं, जावत नहीं सनेह

तुलसी तहाँ न जाइए, कंचन बरसे मेह".

महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’

Divya Narmada ने कहा…

रदीफ़ / तुकांत = शेरों के दूसरे मिसरे में अंत में प्रयुक्त अपरिवर्तित शब्द या शब्द समूह, बहुवचन रदाइफ़ / पदांतों. ग़ज़ल में रदीफ़ होना वांछित तो है जरूरी नहीं अर्थात ग़ज़ल बेरदीफ भी हो सकती है. देखे उदाहरण २.
काफिया / पदांत = शे'रों के दूसरे मिसरे में रदीफ़ से पहले प्रयुक्त एक जैसी आवाज़ के अंतिम शब्द / अक्षर / मात्रा. बहुवचन कवाफी / काफिये. ग़ज़ल में काफिये का होना अनिवार्य है, बिना काफिये की ग़ज़ल हो ही नहीं सकती.

दिल से तो हर मुआमला करके चले थे साफ़ हम.
कहने में उनके सामने बात बदल-बदल गई..
आखिरे-शब् के हमसफर 'फैज़' न जाने क्या हुए.
रह गई किस जगह सबा, सुब्ह किधर निकल गई..
यहाँ 'गई' रदीफ़ है जबकि उसके थी पहले 'बदल' और 'निकल' कवाफी हैं.
गजल का पहला शे'र शायर अपनी मर्जी से रदीफ़-काफिया लेकर कहता है, बाद के शे'रों में यही बंधन हो जाता है. रदीफ़ को जैसा का तैसा उपयोग करना होता है जबकि काफिया के अंत को छोड़कर कुछ नियमों का पालन करते हुए प्रारंभ बदल सकता है. जैसे उक्त शेरों में 'बद' और 'निक'. जब काफिया न मिल सके तो इसे 'काफिया तंग होना' कहते हैं. काफिये-रदीफ़ के इस बंधन को 'ज़मीन' कहा जाता है. कभी-कभी कोई विचार केवल इसलिए छोड़ना होता है कि उसे समान ज़मीन में कहना सम्भव नहीं होता. अच्छा शायर उस विचार को किसी अन्य काफिये-रदीफ़ के साथ अन्य शे'र में कहता है. जो शायर वज्न या काफिये-रदीफ़ का ध्यान रखे बिना ठूससमठास करते हैं कमजोर शायर कहे जाते हैं.
२. बेरदीफ ग़ज़ल- हसन नीम की ग़ज़ल के इन शे'रों में सिर्फ काफिये (बड़े, लदे, पड़े) हैं, रदीफ़ नहीं है.
यकसां थे सब निगाह में, छोटे हों या बड़े.
दिल ने कहा तो एक ज़माने हम लड़े..
ज़िन्दां की एक रात में इतना जलाल था
कितने ही आफताब बलंदी से गिर पड़े..

यह तो आप सब पहले ही पढ़ चुके हैं. इस जानकारी को मुक्तिका की द्विपदियों पर लागू करें
- उद्धृत पाठ दिखाएँ -

खुदा की है ये दस्तकारी मुहब्बत.
मनोभूमि की काश्तकारी मुहब्बत..

मिले मन तो है मस्तकारी मुहब्बत.
इन्सां की है हस्तकारी मुहब्बत..

जीता न दिल को, महज दिल को हारा.
तो कहिये इसे पस्तकारी मुहब्बत..

मिले सज-सँवर के, सलीके से हरदम.
फुर्ती सहित चुस्तकारी मुहब्बत..

बना सीढ़ियाँ पीढ़ियों को पले जो
करिए नहीं पुश्तकारी मुहब्बत..

ज़बर-जोर से रिश्ता बनता नहीं है.
बदनाम है जिस्तकारी मुहब्बत..

रखे एक पर जब नजर दूसरा तो.
शक्की हुई गश्तकारी मुहब्बत..

रही बिस्तरों पे सिसकती सदा जो
चाहे न मन बिस्तकारी मुहब्बत..

किताबी मुहब्बत के किस्से अनेकों.
पढ़ो नाम है पुस्तकारी मुहब्बत..

घिस-घिस के एड़ी न दीदार पाये.
थक-चुक गयी घिस्तकारी मुहब्बत..

बने दोस्त फिर प्यार पलने लगे तो
नकारो नहीं दोस्तकारी मुहब्बत..

मिले आते-जाते रस्ते पे दिल तो.
नयन में पली रस्तकारी मुहब्बत..

चक्कर पे चक्कर लगाकर थके जब
तो बोले कि है लस्तकारी मुहब्बत..

शुरू देह से हो खतम देह पर हो.
है गर्हित 'सलिल' गोश्तकारी मुहब्बत..

बातों ही बातों में बातों से पैदा
बरबस 'सलिल' नशिस्तकारी मुहब्बत..

छिपे धूप रवि से, शशि चांदनी से
'सलिल' है यही अस्तकारी मुहब्बत..

'सलिल' दोनों रूठें मनाये न कोई.
तो कहिये हुई ध्वस्तकारी मुहब्बत..

मिलते-बिछुड़ते जो किस्तों में रुक-रुक
वो करते 'सलिल' किस्तकारी मुहब्बत..

उसे चाहती जो न मिलकर भी मिलता.
'सलिल' चाह यह जुस्तकारी मुहब्बत..

बने एक-दूजे की खातिर 'सलिल' जो
पलती वहीं जीस्तकारी मुहब्बत..

ऊपर के उदाहरण में फैज़ की ग़ज़ल में तुकांत 'गई तथा पदांत बदल, निकल हैं. इसमें किसी को आपत्ति नहीं है.

इसके अनुसार उक्त मुक्तिका में तुकांत (रदीफ़) 'मुहब्बत' तथा पदांत (काफिया) उसके पूर्व के शब्द है. यदि 'कारी' को अलग तथा पूर्व के अंश को अलग लिखा जाये तो 'कारी मुहब्बत' तुकांत होगा और 'दस्त', 'काश्त' आदि पदांत होते किन्तु ऐसा करने से पदांत का शब्द अधूरा होता और यह भी एक दोष हो जाता. बागी जी ने सही कहा है कि 'मुहब्बत' तुकांत तथा उसके पूर्व उपयोग किया गया शब्द दस्तकारी, जुस्तकारी आदि पदांत हैं.इस तरह दोनों ही अर्थपूर्ण भी हैं.

संभवतः समाधान होगा.

Dr.M.C. Gupta ✆ ekavita ने कहा…

संदर्भ-- पदांत या काफिया 'अ' है


>>> मैंने कहीं पढ़ा था कि ग़ज़ल में अ का काफ़िया वर्जित है.

--ख़लिश

nadeem_sharma@yahoo.com ने कहा…

Amar Jyoti
ekavita

अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार

घर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तहार


आप बच कर चल सकें ऐसी कोई सूरत नहीं

रहगुज़र घेरे हुए मुर्दे खड़े हैं बेशुमार


रोज़ अखबारों में पढ़कर यह ख़्याल आया हमें

इस तरफ़ आती तो हम भी देखते फ़स्ले—बहार


मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूँ पर कहता नहीं

बोलना भी है मना सच बोलना तो दरकिनार


इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके—जुर्म हैं

आदमी या तो ज़मानत पर रिहा है या फ़रार


हालते—इन्सान पर बरहम न हों अहले—वतन

वो कहीं से ज़िन्दगी भी माँग लायेंगे उधार


रौनक़े-जन्नत ज़रा भी मुझको रास आई नहीं

मैं जहन्नुम में बहुत ख़ुश था मेरे परवरदिगार


दस्तकों का अब किवाड़ों पर असर होगा ज़रूर

हर हथेली ख़ून से तर और ज़्यादा बेक़रार
दुष्यंत कुमार

nadeem_sharma@yahoo.com ने कहा…

Amar Jyoti
ekavita

आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक
ग़ालिब

Dr.M.C. Gupta ✆ ekavita ने कहा…

अमर जी,

दुष्यन्त की ग़ज़ल में काफ़िया र है, अ नहीं.

ऐसा ही ग़ालिब की ग़ज़ल में भी है.



अ का काफ़िया निम्न में कहा जाएगा--


मैं चला था ज़ानिबे-मंज़िल मगर
राह के ही बीच में खोया अटक


जैसा मैंने कहीं पढ़ा, ऐसा अ का काफ़िया अच्छा नहीं समझा जाता.



--ख़लिश

amitabh.ald@gmail.com ने कहा…

Amitabh Tripathi ✆
ekavita

आदरणीय ख़लिश जी
आप इस लिहाज़ से आप सही कह रहे हैं|
सादर
अमित