कुल पेज दृश्य

सोमवार, 25 जुलाई 2011

बाल कविता: चूजे भाई! -- संजीव 'सलिल'

बाल कविता:                                                               
चूजे भाई! 
संजीव 'सलिल'
*

कितने अच्छे लगते हो तुम |
बिना जगाये जगते हो तुम ||

नहीं किसी को ठगते हो तुम |

सदा प्रेम में पगते हो तुम || 

दाना-चुग्गा मंगते हो तुम |
चूँ-चूँ-चूँ-चूँ चुगते हो तुम ||

आलस कैसे तजते हो तुम?

क्या प्रभु को भी भजते हो तुम?
चिड़िया माँ पा नचते हो तुम |
बिल्ली से डर बचते हो तुम ||

क्या माला भी जपते हो तुम?

शीत लगे तो कँपते हो तुम?

सुना न मैंने, हँसते  हो तुम?

चूजे भाई! रुचते हो तुम | 

********************* 
टिप्पणी: यह रचना चौपाई छंद में है. हर पंक्ति में १६ मात्राएँ हैं.  पहली २ तथा बाद में हर दूसरी पंक्ति का अंत 'ते हो तुम' से हुआ है, ऐसी कविता को मुक्तिका या ग़ज़ल कहते हैं. साधारणतः चौपाई में चार चरण, दो पंक्तियाँ होती हैं और वह किसी विषय पर केन्द्रित नहीं होती, यहाँ 'चूजे' को केंद्र में रखकर लिखी गयी चौपाइयाँ हैं. पढ़ो और आनंद लो. किसी जानकर से पूछना कि पदांत-तुकांत (काफिया-रदीफ़) क्या है.

रविवार, 24 जुलाई 2011

संस्मरण : ममतामयी महादेवी संजीव वर्मा 'सलिल'


संस्मरण :
ममतामयी महादेवी
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
नेह नर्मदा धार:
     महीयसी महादेवी वर्मा केवल हिन्दी साहित्य नहीं अपितु विश्व वांग्मय की ऐसी धरोहर हैं जिन्हें पढ़ने और समझने के लिये पाठक को उनके धरातल तक उठना होगा। उनका विराट व्यक्तित्व और उदात्त कृतित्व उन्हें एक दिव्य आभा से मंडित करता तो उनकी निरभिमानता, सहजता और ममतामय दृष्टि नैकट्य की अनुभूति कराती। सफलता, यश और मान्यता के शिखर पर भी उनमें जैसी सरलता, सहजता, विनम्रता और सत्य के प्रति दृढ़ता थी वह अब दुर्लभ है। 

     पूज्य बुआश्री ने जिन अपने साहित्य में जिन मूल्यों का सृजन किया उन्हें अपने जीवन में मूर्तिमंत भी किया। 'नारी तुम केवल श्रृद्धा हो' को मूर्तिमंत करनेवाली कलम की स्वामिनी का लंबा सामाजिक-साहित्यिक कार्यकाल अविवादित और निष्कलुष रहा। उन्होंने सबको स्नेह-सम्मान दिया और शतगुण श्रृद्धा पायी। उनके निकट हर अंतर्विरोध इस तरह विलीन हो जाता था जैसे पावस में पावक।

                  हर बड़ा-छोटा, साहित्यकार-कलाकार, समाजसेवी-राजनेता, विशिष्ट-सामान्य, भाषा -भूषा, पंथ-संप्रदाय, क्षेत्र-प्रान्त, मत-विमत का अंतर भूलकर उनके निकट आते ही उनके पारिवारिक सदस्य की तरह नेह-नर्मदा में अवगाहन कर धन्यता की प्रतीति कर पाता था।      महीयसी ने महाकवि प्रसाद, दद्दा (मैथिलीशरण गुप्त), दादा (माखन लाल चतुर्वेदी), महापंडित राहुल जी, महाप्राण निराला, युगकवि पन्त, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी, दिनकर, इलाचंद्र जोशी, अमृतलाल नागर, भगवतीचरण वर्मा, यशपाल, फणीश्वर नाथ 'रेणू', नवीन, सुमन, भारती, उग्र आदि तीन पीढ़ियों के सरस्वती सुतों को अपने ममत्व और वात्सल्य से सराबोर किया। समस्त साहित्यिक-सामाजिक-राजनैतिक अंतर्विरोध उनकी उपस्थिति में स्वतः विलीन या क्षीण हो जाते थे। उन्हें बापू और जवाहर से आशीष मिला तो अटल जी और इंदिरा जी से आत्मीयता और सम्मान।

ममता की शुचि मूर्ति वे, नेह नर्मदा धार।
माँ वसुधा का रत्न थीं, श्वासों का श्रृंगार॥
अपनेपन की चाह :

     महादेवी जी में चिरंतन आदर्शों को जीवंत करने की ललक के साथ नव परम्पराओं से सृजित करने की पुलक भी थी। वे समग्रता की उपासक थीं। गौरवमयी विरासत के साथ सामयिक समस्याओं के सम्यक समाधान में उनकी तत्परता स्तुत्य थी। वे अपने सृजन संसार में लीन रहते हुए भी राष्ट्रीय, सामाजिक, पारिवारिक नातों तथा अपने उत्स के प्रति सतत सचेष्ट रहती थीं। उनका परिवार रक्त संबंधों नहीं, स्नेह संबंधों से बना था। अजनबी से अपना बना  लेने में उनका सानी नहीं था। वे प्रशंसा का अमृत, आलोचना का गरल, सुख की धूप, दुःख की छाँव समभाव से ग्रहण कर निर्लिप्त रहती थीं। 


     सनातन सलिला नर्मदा तट पर स्थित संस्कारधानी जबलपुर उन्हें अतिप्रिय रहा। जब भी अवसर मिलता वे जबलपुर आतीं और यहाँ के रचनाकारों पर आशीष बरसातीं। इस निकटता का प्रत्यक्ष तात्कालिक कारण स्व. रामानुजलाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी', नर्मदा प्रसाद खरे तथा उनकी प्राणप्रिय सखी सुभद्रा कुमारी चौहान थीं जो अपने पति ठाकुर लक्ष्मण सिंह चौहान के साथ स्वतंत्रता सत्याग्रहों की अलख जलाये थीं। दादा भी कर्मवीर के सिलसिले में बहुधा जबलपुर रहते।
मूल की तलाश:

     जबलपुर से लगाव का परोक्ष कारण महादेवी जी की ननिहाल थी जो किसी चित्रपटीय कथा से अधिक रोमांचक घटनाओं के प्रवाह में उनसे छूट चुकी थी। दो पीढ़ियों के मध्य का अंतराल नयी पीढ़ियों का अपरिचय बन गया। वे किसी से कुछ न कहतीं पर मन से चाहतीं की बिछुड़े परिजनों से कभी मिल सकें। अंततः, उनके अंतिम जबलपुर प्रवास में उनके धैर्य का बाँध टूट गया। उन्होंने नगर निगम भवन के समक्ष सुभद्रा जी की मूर्ति के समीप हुए कवि सम्मेलन को अध्यक्षीय आसंदी से संबोधित करते हुए जबलपुर में अपने ननिहाल होने की जानकारी दी तथा अपेक्षा की कि उस परिवार में से कोई सदस्य हों तो उनसे मिले। 


     साप्ताहिक हिंदुस्तान के होली विशेषांक में उनका एक साक्षात्कार छपा। प्रसिद्ध पत्रकार पी. डी. टंडन से चर्चा करते हुए उन्होंने पुनः परिवार की बिखरी शाखा से मिलने-जुड़ने की कामना व्यक्त की। कहते हैं 'जहाँ चाह, वहाँ राह' उनकी यह चाह किसी निज हित के कारण नहीं स्नेह संबंध की उस टूटी कड़ी से जोड़ने की थी जिसे उनकी माताश्री प्रयास करने पर भी नहीं जोड़ सकीं थीं। शायद वे अपनी माँ की अधूरी इच्छा को पूरा करना चाह रही थीं। नियति को उनकी चाह के आगे झुकना पड़ा। 

     रहीम ने कहा है-
'रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ जाय।'

    महादेवी जी की जिजीविषा ने टूटे धागे को जोड़ ही दिया। अपने सामान्य कार्यक्रम के निर्धारित भ्रमण से लौटने पर मैंने उनके ये दोनों वक्तव्य मैंने पढ़े, तब तक वे वापिस जा चिकी थीं । मैं आजीविका से अभियंता तथा शासकीय सेवा में होने पर भी उन दिनों रात्रिकालीन कक्षाओं में पत्रकारिता में डिप्लोमा कर रहा था। महादेवी जी द्वारा बताया विवरण परिवार से मेल खाता था। उत्सुकतावश मैंने परिवार के बुजुर्गों से चर्चा की। उन दिनों का अनुशासन... कहीं डांट पड़ी, कहीं से अधूरी जानकारी... अधिकांश अनभिज्ञ थे। 


     कुछ निराशा के बाद मैंने अपने परिवार का वंश-वृक्ष (शजरा) बनाया, इसमें महादेवी जी या उनके माता-पिता का नाम कहीं नहीं था। ऐसा लगा कि यह परिवार वह नहीं है जिसे महीयसी खोज रही हैं। अन्दर का पत्रकार कुलबुलाता रहा... खोजबीन जारी रही... एक दिन जितनी जानकारी मिली थी वह महीयसी से भेजते हुए निवेदन किया कि कुछ बड़े आपसे रिश्ता होने से स्वीकारते हैं पर नहीं जानते कि क्या नाता है? मुझे नहीं मालूम किस संबोधन से आपको पुकारूँ? आपके आव्हान पर जो जुटा सका भेज रहा हूँ।

     आप ही कुछ बता सकें तो बताइये। मैं आपकी रचनायें पढ़कर बड़ा हुआ हूँ। इस बहाने ही सही आपका आशीर्वाद पाने के सौभाग्य से धन्य हो सकूँगा।उन जैसी प्रख्यात और अति व्यस्त व्यक्तित्व किसी अजनबी के पत्र पर कोई प्रतिक्रिया दे इसकी मैंने आशा ही नहीं की थी किंतु लगभग एक सप्ताह बाद एक लिफाफे में प्रातः स्मरणीया महादेवी जी का ४ पृष्ठों का पत्र मिला। पत्र में मुझ पर आशीष बरसाते हुए उन्होंने लिखा था कि किसी समय कुछ विघ्न संतोषी संबंधियों द्वारा पनपाये गए संपत्ति विवाद में एक खानदान की दो शाखाओं में ऐसी टूटन हुई कि वर्तमान पीढ़ियाँ अपरिचित हो गयीं। पत्र के अंत में उन्होंने आशीष दिया कि धन का मोह मुझे कभी न व्यापे. मैं धन्य हुआ. 


     उनके पत्र से विदित हुआ कि उनके नाना स्व. खैरातीलाल जी मेरे परबाबा स्व. सुंदर लाल तहसीलदार के सगे छोटे भाई थे। पिताजी जिन चिन्जा बुआ की चर्चा करते थे उनका वास्तविक नाम हेमरानी देवी था और वे महादेवी जी की माता श्री थीं। हमारे कुल में काव्य साधन के प्रति लगाव हर पीढ़ी में रहा पर प्रतिभाएँ अवसर के अभाव में घर-आँगन तक सिमट कर रह गयीं। सुंदरलाल व खैरातीलाल दोनों भाई शिव भक्त थे। शिव भक्ति के स्तोत्र रचते-गाते। उनसे यह विरासत हेमरानी को मिली। बचपन में हेमरानी को भजन रचते-गाते देख-सुनकर महादेवी जी ने पहली कविता लिखी-

माँ के ठाकुर जी भोले हैं।
ठंडे पानी से नहलातीं।
गीला चंदन उन्हें लगतीं।
उनका भोग हमें दे जातीं।
फिर भी कभी नहीं बोले हैं।
माँ के ठाकुर जी भोले हैं...

     माँ से शिव-पार्वती, नर्मदा, सीता-राम, राधा- कृष्ण के भजन-आरती, तथा पर्वों पर बुन्देली गीत सुनकर बचपन से ही महादेवी जी को काव्य तथा हिन्दी के प्रति लगाव के संस्कार मिले। माँ की अपने मायके से बिछड़ने की पीड़ा अवचेतन में पोसे हुए महादेवी जी अंततः टूटी कड़ी से जुड़ सकीं। पूर्व जन्मों के पुण्य कर्मों का सुफल मुझे इस रूप में मिला कि मैं उनके असीम स्नेह का भाजन बना।
जो महान उसमें पले, अपनेपन की चाह।
क्षुद्र मनस जलता रहे, मन में रखकर डाह। 

बिंदु सिंधु से जा मिला:

कबीर ने लिखा है:
जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ।
जो बौरा बूड़न डरा, रहा किनारे बैठ। 

     पूज्या बुआश्री से मिलने की उत्कंठा मुझे इलाहाबाद ले गयी। आवास पर पहुँचा तो ज्ञात हुआ कि वे किसी कार्यक्रम की अध्यक्षता हेतु बाबा विश्वनाथ की नगरी वाराणसी गयी हैं ।इलाहबाद में अन्य किसी से घनिष्ठता थी नहीं सो निराश लौटने को हुआ कि एक कार को द्वार पर रुकते देख ठिठक गया। पलटकर देखा एक तरुणी वृद्धा को सहारा देकर कार से उतारने का जतन कर रही है। 

    मैं तत्क्षण कार के निकट पहुँचा तब तक वृद्धा जमीन पर पैर रखते हुए हाथ सहारे के लिए बढ़ा रहीं थीं। पहले कभी न देखने पर भी मन ने कहा हो न हो यही बुआ श्री हैं। मैंने चरण स्पर्शकर उन्हें सहारा दिया। एक अजनबी युवा को निकट देख तरुणी संकुचाई, 'खुश रहो' कहते हुए बुआजी ने हाथ थामकर दृष्टि उठाई और पहचानने का यत्न करने लगीं कि कौन है? 


     तब तक घर के भीतर से एक महिला और पुरुष आ गये थे। लम्बी यात्रासे लौटी श्रांत-क्लांत महीयसी को थामे अजनबी को देख कर उनके मन की उलझन स्वाभाविक थी। मैं परिचय दूँ इसके पहले ही वे बोलीं 'चलो, अंदर चलो', मैंने कहा-'बुआजी! मैं संजीव' नाम सुनते ही उनके चेहरे पर जिस चमक, हर्ष और उल्लास की झलक देखी वह अविस्मरणीय है। उन्होंने भुजाओं में भरते हुए मस्तक चूमा। पूछा- 'कब आया?' 

     सब विस्मित कि यह कौन अजनबी इतने निकट आने की धृष्टता कर बैठा और उसे हटाया भी नहीं जा रहा। बुआ जी मुस्कुराते हुए जैसे सबकी उलझन का आनंद ले रहीं हो, कुछ पल मौन रहकर बोलीं- 'ये संजीव है, मेरा भतीजा... जबलपुर से आया है।मैंने सबका अभिवादन किया। 

     उन्होंने सबका परिचय कराते हुए कहा 'ये मेरे बेटे की तरह रामजी, ये बहु, ये भतीजी आरती...चल घर ले चल' मैं उन्हें थामे हुए घर में अंदर ले आया।  कमरे में एक तख्त पर उजली सफ़ेद चादर बिछी थी, सिरहाने की ओर भगवान श्री कृष्ण की सुन्दर श्वेत बाल रूप की मूर्ति थी। बुआ जी बैठ गयीं। मुझे अपनी बगल में बैठा लिया, ऐसा लगा किसी तपस्विनी की शीतल वात्सल्यमयी छाया में हूँ। 


     तभी स्नेह सिक्त वाणी सुनी- 'बेटा! थक गया होगा, कुछ खा-पीकर आराम कर ले फिर तुझसे बहुत सी बातें करना है। सामान कहाँ है?' तब तक आरती पानी ले आयी थी। मैंने पानी पिया, बताया चाय नहीं पीता, सुनकर कुछ विस्मित और प्रसन्न हुईं, मेरे मना करने पर भी दूध पिलवाकर ही मानीं। मुझे चेत हुआ कि वे स्वयं सुदूर यात्रा कर थकी लौटी हैं। उन्होंने आरती को स्नान आदि की व्यवस्था करने को कहा तो मैंने बताया कि मैं निवृत्त हो चुका हूँ। मैं धीरे से तखत के समीप बैठकर उनके पैर दबाने लगा... उन्होंने मना किया पर मैंने मना लिया कि वे थकी हैं कुछ आराम मिलेगा। 

     बुआ जी अपनी उत्कंठा को अधिक देर तक दबा नहीं सकीं। पूछा: कौन-कौन हैं घर-परिवार में? मैंने धीरे-धीरे सब जानकारी दी। मेरे मँझले ताऊ जी स्व. ज्वालाप्रसाद वर्मा ने स्व. द्वारकाप्रसाद मिश्र, सेठ गोविन्द दास और व्यौहार राजेंद्र सिंह के साथ स्वतंत्रता सत्याग्रह में सक्रिय भूमिका निभायी, नानाजी रायबहादुर माताप्रसाद सिन्हा 'रईस', मैनपुरी ने ऑनरेरी मजिस्ट्रेट का पद व खिताब ठुकराकर बापू के आव्हान पर विदेशी वस्त्रों की होली जलाकर नेहरु जी के साथ त्रिपुरी कांग्रेस में भाग लिया और तभी इन दोनों की भेंट से मेरे पिताजी और माताजी का विवाह हुआ- यह सुनकर वे हँसी और बोलीं 'यह तो कहानी की तरह रोचक है।' उनका वह निर्मल हास्य अभी तक कानों में गूंजता है


     मेरे एक फूफा जी १९३९ में हिन्दू महासभा के राष्ट्रीय महामंत्री थे तथा कैप्टेन मुंजे व डॉ. हेडगेवार के साथ राम सेना व शिव सेना नामक सशस्त्र संगठनों के माध्यम से दंगों में अपहृत हिन्दू युवतियों को मुक्त कराकर उनकी शुद्धि तथा पुनर्विवाह द्वारा सामाजिक स्वीकृति कराते थे । यह जानकर वे बोलीं- 'रास्ता कोई भी हो, भारत माता की सेवा ही असली बात है।' बुआ श्री ने १८५७ के स्वातंत्र्य समर में अपने पूर्वजों के योगदान और संघर्ष की चर्चा की। आरती ने उनसे स्नानकर भोजन करने का अनुरोध किया तो बोलीं- 'संजीव की थाली लगाकर यहीं ले आ, इसे अपने सामने ही खिलाऊँगी। बाद में नहा लूँगी।'

     मैंने निवेदन किया कि वे स्नान कर लें तब साथ ही खा लेंगे तो बोलीं 'जब तक तुझे खिला न लूँ, पूजा में मन न लगेगा, चिंता रहेगी कि तूने कुछ नहीं खाया।' ऐसी दिव्य भावना उनके स्नेहपूर्ण आदेश का सम्मान करते हुए मैं भोजन हेतु प्रस्तुत हो गया । उन्होंने अपने मुझे सामने ही बैठाया। एक रोटी तोड़-तोड़कर अपने हाथों से खिलायी। भोजन के मध्य आरती से कह-कहकर सामग्री मंगाती रहीं।
    
      मेरा मन उनके स्नेह-सागर में अवगाहन कर तृप्त हो गया। उनके हाथों से घी लगी एक-एक रोटी अमृत जैसा स्वाद दे रही थी। फुल्के, दाल, सब्जी, अचार, पापड़ जैसी सामान्यतः नित्य मिलनेवाली भोजन सामग्री में उस दिन जैसी मिठास फिर कभी नहीं मिली। पेट भर जाने पर भी आग्रह कर-कर के २ रोटी और खिलाईं, फिर मिठाई... बीच में लगातार बातें...फिर बोलीं- 'अब तुम आराम करो, हम नहाकर पूजा करेंगी।' 


     लगभग आधे घंटे में स्नान-ध्यान से निवृत्त होकर आयीं तो उनके तखत पर विराजते ही मैं फिर समीप बैठ गया। उनके पैर दबाते-दबाते कितनी ही बातें हुईं...काश तब आज जैसे यंत्र होते तो वह सब अंकित कर लिया जा सकता। परिवार के बाद अब वे मेरे बारे में पूछ रहीं थीं...क्या-क्या पढ़ लिया?, क्या कर रहा हूँ?, किन विधाओं में लिखता हूँ?, कौन-कौन से कवि-लेखक तथा पुस्तकें पसंद हैं?, घर में किसकी क्या रूचि है?, उनकी कौन-कौन सी कृतियाँ मैंने पढ़ीं हैं? कौन सी सबसे ज्यादा पसंद है? यामा देखी या नहीं?, कौनसा चित्र अधिक अच्छा लगा? प्रश्न ही प्रश्न... जैसे सब कुछ जान लेना चाहती हों, वह सब जो समय-चक्र ने इतने सालों तक नहीं जानने दिया। 

     मैं अनुभव कर सका कि उनके मन में कितना ममत्व है, अदेखे-अनजाने नातों के लिए। शायद मानव और महामानव के बीच की यही सीमा रेखा होती है कि महामानव सब पर स्नेह अमृत बरसाते हैं जबकि मानव अपनों को खोजकर स्नेहवर्षण करता है । मेरे बहुत आग्रह पर वे आराम करने को तैयार हुईं... 'तू क्या करेगा?,ऊब तो नहीं जायेगा?' आश्वस्त किया कि मैं भैया (डॉ.पाण्डेय) - भाभी से गप्प कर रहा हूँ, आप विश्राम कर लें। 

     कुछ देर बाद उठीं तो फिर बातचीत का सिलसिला चला। मुझसे पूछा- 'तू अपना उपनाम 'सलिल' क्यों लिखता है?' मैंने कभी गहराई से सोचा ही न था, क्या बताता? मौन देखकर बोलीं- 'सलिल माने पानी... पानी ज़िंदगी के लिए जरूरी है...पर गंगा में हो या नाले में दोनों ही सलिल होते हैं। बहता पानी निर्मला... सो तो ठीक है पर... सलिल ही क्यों?, सलिलेश क्यों नहीं?' उनका आशय था कि नाम सबसे अच्छा हो तो काम भी अच्छा करने की प्रवृत्ति होगी। वे स्वयं नाम से ही नहीं वास्तव में भी महादेवी ही थीं। कुछ वर्ष पूर्व ही मैंने दिनकर जी का एक निबंध 'नेता नहीं नागरिक चाहिए' पाठ्य पुस्तक विचार और अनुभूति में पढ़ा था । इससे प्रभावित किशोर मन में वैशिष्ट्य के स्थान पर सामान्यता की चाह उपजी थी

           बातचीत के बीच-बीच में वे आरती की प्रशंसा करतीं तो वह संकुचा जाती। मैं भी सुबह से देख रहा था कि वह कितनी ममता से बुआश्री की सेवा में जुटी थी। बुआजी डॉ. पाण्डेय व भाभी जी की भी बार-बार प्रशंसा करती रहीं। कुछ देर बाद कहा- 'तू क्या पूछना चाहता है पूछ न ? सुबह से मैं ही बोल रही हूँ। अब तू पूछ...जो मन चाहे...मैं तेरी माँ जैसी हूँ... माँ से कोई संकोच करता है? पूछ...' उन्होंने न जाने कैसे अनुमान लगाया कि मेरे मन में कुछ जिज्ञासाएँ हैं। 

     पत्रकारिता में पढ़ते समय वरिष्ठ पत्रकार स्व. कालिकाप्रसाद दीक्षित 'कुसुमाकर' विभागाध्यक्ष थे। उनकी धारणा थी कि महादेवी जी ने निराला जी का अर्थ शोषण किया, मैं असहमति व्यक्त करता तो कहते 'तुम क्या जानो?' आज अवसर था लेकिन पूछूँ तो कैसे? उनके मन को चोट न लगे और शंका का समाधान भी हो, अंततः बुआ जी के प्रोत्साहित करने पर मैंने कहा- 'निराला जी के बारे में कुछ बताइए।?'
             'वे महाप्राण थे विषपायी...बुआजी के चेहरे पर प्रसन्नता के भाव आये, ऐसा लगा कि उनकी रूचि का प्रसंग है...कुछ क्षण आँखें मूँद कर जैसे उन पलों को जी रहीं हों जब निराला साथ थे। फिर बोलीं क्या कहूँ?...कितना कहूँ? ऐसा आदमी न पहले कभी हुआ... न आगे होगा... वो मानव नहीं महामानव थे...विषपायी थे। उनके बाद मेरी राखी सूनी हो गयी... आँखों में आसूं छलक आये... उस एक ही पल में मैं समझ गया था कि कुसुमाकर जी की धारणा निराधार थी। 

'निराला जी आम लोगों की तरह दुनियादारी से कोई मतलब नहीं रखते थे। प्रकाशक उनकी किताबें छापकर अमीर हो गये पर वे फकीर ही रह गये। एक बार हम लोगों ने बहुत कठिनाई से दुलारेलाल भार्गव से उन्हें रोयल्टी की राशि दिलवाई, वे मेरे पास छोड़कर जाने लगे मुश्किल से अपने साथ ले जाने को तैयार हुए, मैं खुश थी कि अब वे हमेशा रहनेवाले आर्थिक संकट से कुछ दिनों तक मुक्त रहेंगे।'

     कुछ दिनों बाद आये तो बोले कुछ रुपये चाहिए। मुझे अचरज हुआ कि इतने रुपये कहाँ गए? पूछा तो बोले: 'उस दिन तुम्हारे पास से गया तो भूख से परेशान एक बुढ़िया को भीख माँगते देखा। जेब से एक नोट निकलकर उसके हाथ पर रखकर पूछा कि अब तो भीख नहीं मांगेगी। बुढिया बोली जब तक इनसे काम चलेगा नहीं मांगूगी। निराला जी ने एक गड्डी निकल कर उसके हाथों में रखकर पूछ अब कब तक भीख नहीं मांगेगी? बुढिया बोली 'बहुत दिनों तक।' निराला जी ने सब गड्डियाँ भिखारिन की झोली में डालकर पूछा- 'अब?' 'कभी नहीं' बुढिया बोली। निराला जी खाली हाथ घर चले गए।
       जब खाने को कुछ न बचा तथा बनिए ने उधार देने से मना कर दिया तो मेरे पास आ गए थे। ऐसे थे भैया। कुछ देर रुकीं...शायद कुछ याद कर रहीं थी...फिर बोलीं एक बार कश्मीर में मेरा सम्मान कर पश्मीना की शाल उढ़ायी गयी। मेरे लौटने की खबर पाकर भैया मिलने आये। ठण्ड के दिनों में भी उघारे बदन, मैंने सब हाल बताया तथा शाल उन्हें उढ़ा दी कि अब ठण्ड से बचे रहेंगे। कुछ दिन बाद ठण्ड से काँपते हुए आये। मैंने पूछा शाल कहाँ है? पहले तो सर झुकाये चुप बैठे रहे। दोबारा पूछने पर बताया कि रास्ते में ठण्ड से पीड़ित किसी भिखारी को कांपते देख उसे उढा दी। बोल, देखा है कोई दूसरा ऐसा अवढरदानी ?' मेरी वाणी अवाक् मौन थी और कान ऐसे दुलभ अन्य प्रसंग सुनने के लिये व्याकुल। 

     चर्चा...और चर्चा, प्रसंग पर प्रसंग... निराला और नेहरु, निराला और पन्त, निराला और इलाचंद्र जोशी,, निराला और राजेंद्र प्रसाद, निराला और हिंदी, निराला और रामकृष्ण, निराला और आकाशवाणी, आदि...कभी कंठ रुद्ध हो जाता... कभी आँखें भर आतीं...कभी सर गर्व से उठ जाता... निराला और राखी की चर्चा करते हुए बताया कि निराला और इलाचंद्र जोशी में होड़ होती कि कौन पहले राखी बंधवाये ? निराला राखी बाँधने के पहले रूपये मांगते फिर राखी बंधने पर वही दे देते क्योंकि उनके पास कुछ होता ही नहीं था और खाली हाथ राखी बंधवाना उन्हें गवारा नहीं होता था। 

स्मृतियों के महासागर में डूबती-तिरती बुआश्री का अगला पड़ाव था दद्दा और जिया... चिरगांव की राखी। दद्दा का संसद में कवितामय बजट भाषण... हिंदी संबंधी आंदोलन... फिर प्रसाद और कामायनी की चर्चा। फिर दिनकर... फिर नंददुलारे वाजपेई... हजारीप्रसाद द्विवेदी... नवीन... सुमन... जवाहरलाल नेहरु... इंदिरा जी, द्वारकाप्रसाद मिश्र... पत्रकार पी. डी. टंडन अनेक नाम... अनेक प्रसंग... अनंत कोष स्मृतियों का।
        मैंने प्रसंग परिवर्तन के लिए कहा- 'कुछ अपने बारे में बताइए। 'क्या बताऊँ? अपने बारे में क्या कहूं? मैं तो अधूरी रह गयी हूँ उसके बिना...'

मैं अवाक् था। किसकी कथा सुनने को मिलेगी? ...कौन है वह महाभाग?

'वह तो थी ही विद्रोहिणी... बचपन से ही... निर्भीक, निस्संकोच, वात्सल्यमयी, सेवाभावी, रूढ़िभंजक... फिर प्रारंभ हुआ सुभद्रा पुराण... स्कूल में भेंट... दोनों का कविता लिखना, चूड़ी बदलना... लक्ष्मणप्रसाद जी से भेंट... दोनों का विवाह... पर्दा प्रथा को तोड़ना... दुधमुंहे बच्चों को छोड़कर सत्याग्रह में भाग लेना-जेल यात्रा... फिर सुभद्रा जी के विधायक बनने में सेठ गोविंददास द्वारा बाधा... सरदार पटेल द्वारा समर्थन... गाँधी जी के अस्थि विसर्जन में सुभद्रा जी द्वारा झुग्गीवासियों को लेकर जाना...अंत में मोटर दुर्घटना में निधन... की चर्चा कर रो पड़ीं...खुद को सम्हाला...आंसू पोंछे...पानी पिया...प्रकृतिस्थ हुईं...
     'थक गया न ? जा आराम कर।'

     'नहीं बुआजी! बहुत अच्छा लग रहा है...ऐसा अवसर फिर न जाने कब मिले?...तो क्या सुनना है अब?...इतनी कथा तो पंडित दक्षिणा लेकर भी नहीं कहता'...
'बुआ जी आपके कृष्ण जी!'...;

     ' मेरे नहीं... कृष्ण तो सबके हैं जो उन्हें जिस भाव से भज ले...उन्हें वही स्वीकार। तू न जानता होगा...एक बार पं. द्वारकाप्रसाद और मोरारजी देसाई में प्रतिद्वंदिता हो गयी कि बड़ा कृष्ण-भक्त कौन है? पूरा प्रसंग सुनाया फिर बोलीं- भगवन! ऐसा भ्रम कभी न दे।' 

      अब भी मुझे आगे सुनने के लिए उत्सुक पाया तो बोलीं तू अभी तक नहीं थका?...पी. डी. टन्डन का नाम सुना है? एक बार साक्षात्कार लेने आया तो बोला आज बहुत खतरनाक सवाल पूछने आया हूँ। मैनें कहा- 'पूछो' तो बोला अपनी शादी के बारे में बताइये। मैनें कहा- 'बाप रे, यह तो आज तक किसी ने नहीं पूछा। क्या करेगा जानकर?'
     'बुआ जी बताइए न, मैं भी जानना चाहता हूँ।' -मेरे मुँह से निकला

'तू भी कम शैतान नहीं है...चल सुन...फिर अपने बचपन...बाल विवाह...गाँधी जी व् बौद्ध धर्म के प्रभाव, दीक्षा के अनुभव, मोह भंग, प्रभावतीजी से मित्रता, जे. पी. के संस्मरण... अपने बाल विवाह के पति से भेंट... गृहस्थ जीवन के लिए आमंत्रण, बापू को दिया वचन गार्हस्थ से विराग आदि प्रसंग उन्होंने पूरी निस्संगता से सुनाये। 

     उनके निकट लगभग ६ घंटे किसी चलचित्र की भांति कब कटे पता ही न चला...मुझे घड़ी देखते पाया तो बोलीं- 'तू जायेगा ही? रुक नहीं सकता? तेरे साथ एक पूरा युग फिर से जी लिया मैंने।'
     सबेरे वे अपनी नाराजगी जता चुकी थीं कि इतने कम समय में क्यों जा रहा हूँ?, रुकता क्यों नहीं? पर इस समय शांत थीं...उनका वह वात्सल्य...वह स्पर्श...वह स्नेह...अब तक रोमांचित कर देता है...बाद में ३-४ बार और बुआ जी का शुभाशीष पाया। 

     कभी ईश्वर मिले और वर माँगने को कहे तो मैं बुआ जी के साथ के वही पल फिर से जीना चाहूँगा। 
                                               चित्र : आभार गूगल.
*************************

Acharya Sanjiv Salil

घनाक्षरी सलिला : छत्तीसगढ़ी में अभिनव प्रयोग. -- संजीव 'सलिल'

घनाक्षरी सलिला :
छत्तीसगढ़ी में अभिनव प्रयोग.
संजीव 'सलिल'
*
अँचरा मा भरे धान, टूरा गाँव का किसान, धरती मा फूँक प्राण, पसीना बहावथे.
बोबरा-फार बनाव, बासी-पसिया सुहाव, महुआ-अचार खाव, पंडवानी भावथे..
बारी-बिजुरी बनाय, उरदा के पीठी भाय, थोरको न ओतियाय, टूरी इठलावथे.
भारत के जय बोल, माटी मा करे किलोल, घोटुल मा रस घोल, मुटियारी भावथे..
*
नवी रीत बनन दे, नीक न्याब चलन दे, होसला ते बढ़न दे, कउवा काँव-काँव.
अगुवा के कोचिया, फगुवा के लोटिया, बिटिया के बोझिया, पिपल्या के छाँव..
अगोर पुरवईया, बटोर माछी भइया, अंजोर बैल-गइया, कुठरिया के ठाँव.
नमन माटी मइया, गले लगाये सइयां , बढ़ाव बैल-गइया, सुरग होथ गाँव....
*
देस के बिकास बर, सबन उजास बर, सुरसती दाई माई, दया बरसाय दे.
नव-नवा काम होथ, देस स्वर्ग धाम होथ, धरती म धान बोथ, फसल उगाय दे..
टूरा-टूरी गुणी होथ, मिहनती-धुनी होथ, हिरदा से नेह होथ, सलीका सिखाय दे.
डौका-डौकी चाह पाल, भाड़ मा दें डाह डाल, ऊँचा ही रखें कपाल, रीत नव बनाय दे..
*
रचना विधान: वर्णात्मक छंद, चार पद, हर पद में चार चरण, हर चरण में ८-८-८-७ पर यति, चरणान्त दीर्घ,  
Acharya Sanjiv Salil

मुक्तिका: जानकर भी... संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:                                                                                              
जानकर भी...
संजीव 'सलिल'
*
रूठकर दिल को क्यों जलाते हो?
मुस्कुराते हो, खूब भाते हो..

एक झरना सा बहने लगता है.
जब भी खुश होते, खिलखिलाते हो..

फेरकर मुँह कहो तो क्यों खुद को
खुद ही देते सजा सताते हो?

मेरे अपने! ये कैसा अपनापन
दिल की बातें न कह, छुपाते हो?

खो गया चैन तो बेचैन न हो.
क्यों न बाँहों में हँस समाते हो?

देखते आइना चेहरा अपना
मेरे चेहरे में मिला पाते हो..

मैं 'सलिल' तुम लहर नहीं दो हम.
जानकर क्यों न जान पाते हो?

*****


Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

ताज महल नहीं तेजोमहल, मकबरा नहीं शिवमन्दिर ।।

ताज महल नहीं तेजोमहल, मकबरा नहीं शिवमन्दिर ।।



बी.बी.सी. कहता है........... ताजमहल...........
एक छुपा हुआ सत्य..........
कभी मत कहो कि.........
यह एक मकबरा है..........

प्रो.पी. एन. ओक. को छोड़ कर किसी ने कभी भी इस कथन को चुनौती नही दी कि........


"ताजमहल शाहजहाँ ने बनवाया था"



प्रो.ओक. अपनी पुस्तक "TAJ MAHAL - THE TRUE STORY" द्वारा इस


बात में विश्वास रखते हैं कि,--


सारा विश्व इस धोखे में है कि खूबसूरत इमारत ताजमहल को मुग़ल बादशाह

शाहजहाँ ने बनवाया था.....

ओक कहते हैं कि......


ताजमहल प्रारम्भ से ही बेगम मुमताज का मकबरा न होकर,एक हिंदू प्राचीन शिव

मन्दिर है जिसे तब तेजो महालय कहा जाता था.

अपने अनुसंधान के दौरान ओक ने खोजा कि इस शिव मन्दिर को शाहजहाँ ने जयपुर

के महाराज जयसिंह से अवैध तरीके से छीन लिया था और इस पर अपना कब्ज़ा कर
लिया था,,

=> शाहजहाँ के दरबारी लेखक "मुल्ला अब्दुल हमीद लाहौरी "ने अपने

"बादशाहनामा" में मुग़ल शासक बादशाह का सम्पूर्ण वृतांत 1000  से ज़्यादा
पृष्ठों मे लिखा है,,जिसके खंड एक के पृष्ठ 402 और 403 पर इस बात का
उल्लेख है कि, शाहजहाँ की बेगम मुमताज-उल-ज़मानी जिसे मृत्यु के बाद,
बुरहानपुर मध्य प्रदेश में अस्थाई तौर पर दफना दिया गया था और इसके ०६
माह बाद,तारीख़ 15 ज़मदी-उल- अउवल दिन शुक्रवार,को अकबराबाद आगरा लाया
गया फ़िर उसे महाराजा जयसिंह से लिए गए,आगरा में स्थित एक असाधारण रूप से
सुंदर और शानदार भवन (इमारते आलीशान) मे पुनः दफनाया गया,लाहौरी के
अनुसार राजा जयसिंह अपने पुरखों कि इस आली मंजिल से बेहद प्यार करते थे
,पर बादशाह के दबाव मे वह इसे देने के लिए तैयार हो गए थे.

इस बात कि पुष्टि के लिए यहाँ ये बताना अत्यन्त आवश्यक है कि जयपुर के

पूर्व महाराज के गुप्त संग्रह में वे दोनो आदेश अभी तक रक्खे हुए हैं जो
शाहजहाँ द्वारा ताज भवन समर्पित करने के लिए राजा
जयसिंह को दिए गए थे.......

=> यह सभी जानते हैं कि मुस्लिम शासकों के समय प्रायः मृत दरबारियों और

राजघरानों के लोगों को दफनाने के लिए, छीनकर कब्जे में लिए गए मंदिरों और
भवनों का प्रयोग किया जाता था ,

उदाहरनार्थ हुमायूँ, अकबर, एतमाउददौला और सफदर जंग ऐसे ही भवनों मे

दफनाये गए हैं ....

=> प्रो. ओक कि खोज ताजमहल के नाम से प्रारम्भ होती है---------


=> "महल" शब्द, अफगानिस्तान से लेकर अल्जीरिया तक किसी भी मुस्लिम देश में

भवनों के लिए प्रयोग नही किया जाता...

यहाँ यह व्याख्या करना कि महल शब्द मुमताज महल से लिया गया है......वह कम

से कम दो प्रकार से तर्कहीन है---------


पहला -----शाहजहाँ कि पत्नी का नाम मुमताज महल कभी नही था,,,बल्कि उसका

नाम मुमताज-उल-ज़मानी था ...


और दूसरा-----किसी भवन का नामकरण किसी महिला के नाम के आधार पर रखने के

लिए केवल अन्तिम आधे भाग (ताज)का ही प्रयोग किया जाए और प्रथम अर्ध भाग
(मुम) को छोड़ दिया जाए,,,यह समझ से परे है...

प्रो.ओक दावा करते हैं कि,ताजमहल नाम तेजो महालय (भगवान शिव का महल) का

बिगड़ा हुआ संस्करण है, साथ ही साथ ओक कहते हैं कि----

मुमताज और शाहजहाँ कि प्रेम कहानी,चापलूस इतिहासकारों की भयंकर भूल और

लापरवाह पुरातत्वविदों की सफ़ाई से स्वयं गढ़ी गई कोरी अफवाह मात्र है
क्योंकि शाहजहाँ के समय का कम से कम एक शासकीय अभिलेख इस प्रेम कहानी की
पुष्टि नही करता है.....

इसके अतिरिक्त बहुत से प्रमाण ओक के कथन का प्रत्यक्षतः समर्थन कर रहे हैं......

तेजो महालय (ताजमहल) मुग़ल बादशाह के युग से पहले बना था और यह भगवान्
शिव को समर्पित था तथा आगरा के राजपूतों द्वारा पूजा जाता था-----
 ==> न्यूयार्क के पुरातत्वविद प्रो. मर्विन मिलर ने ताज के यमुना की तरफ़
के दरवाजे की लकड़ी की कार्बन डेटिंग के आधार पर 1985 में यह सिद्ध किया
कि यह दरवाजा सन् 1359 के आसपास अर्थात् शाहजहाँ के काल से लगभग 300 वर्ष
पुराना है...

==> मुमताज कि मृत्यु जिस वर्ष (1631) में हुई थी उसी वर्ष के अंग्रेज

भ्रमण कर्ता पीटर मुंडी का लेख भी इसका समर्थन करता है कि ताजमहल मुग़ल
बादशाह के पहले का एक अति महत्वपूर्ण भवन था......

==>यूरोपियन यात्री जॉन अल्बर्ट मैनडेल्स्लो ने सन् 1638 (मुमताज कि

मृत्यु के 07 साल बाद) में आगरा भ्रमण किया और इस शहर के सम्पूर्ण जीवन
वृत्तांत का वर्णन किया,,परन्तु उसने ताज के बनने का कोई भी सन्दर्भ नही
प्रस्तुत किया,जबकि भ्रांतियों मे यह कहा जाता है कि ताज का निर्माण
कार्य 1631 से 1651 तक जोर शोर से चल रहा था......

==> फ्रांसीसी यात्री फविक्स बर्निअर एम.डी. जो औरंगजेब द्वारा गद्दीनशीन

होने के समय भारत आया था और लगभग दस साल यहाँ रहा,के लिखित विवरण से पता
चलता है कि,औरंगजेब के शासन के समय यह झूठ फैलाया जाना शुरू किया गया कि
ताजमहल शाहजहाँ ने बनवाया था.......

प्रो. ओक. बहुत सी आकृतियों और शिल्प सम्बन्धी असंगताओं को इंगित करते

हैं जो इस विश्वास का समर्थन करते हैं कि,ताजमहल विशाल मकबरा न होकर
विशेषतः हिंदू शिव मन्दिर है.......

आज भी ताजमहल के बहुत से कमरे शाहजहाँ के काल से बंद पड़े हैं,जो आम जनता

की पहुँच से परे हैं

प्रो. ओक., जोर देकर कहते हैं कि हिंदू मंदिरों में ही पूजा एवं धार्मिक

संस्कारों के लिए भगवान् शिव की मूर्ति,त्रिशूल,कलश और ॐ आदि वस्तुएं
प्रयोग की जाती हैं.......

==> ताज महल के सम्बन्ध में यह आम किवदंत्ती प्रचलित है कि ताजमहल के

अन्दर मुमताज की कब्र पर सदैव बूँद बूँद कर पानी टपकता रहता है,, यदि यह
सत्य है तो पूरे विश्व मे किसी किभी कब्र पर बूँद बूँद कर पानी नही
टपकाया जाता,जबकि
प्रत्येक हिंदू शिव मन्दिर में ही शिवलिंग पर बूँद बूँद कर पानी टपकाने की
व्यवस्था की जाती है,फ़िर ताजमहल (मकबरे) में बूँद बूँद कर पानी टपकाने का क्या
मतलब....????

==> राजनीतिक भर्त्सना के डर से इंदिरा सरकार ने ओक की सभी पुस्तकें स्टोर्स से

वापस ले लीं थीं और इन पुस्तकों के प्रथम संस्करण को छापने वाले संपादकों को
भयंकर परिणाम भुगत लेने की धमकियां भी दी गईं थीं....

==> प्रो. पी. एन. ओक के अनुसंधान को ग़लत या सिद्ध करने का केवल एक ही रास्ता है

कि वर्तमान केन्द्र सरकार बंद कमरों को संयुक्त राष्ट्र के पर्यवेक्षण में
खुलवाए, और अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों को छानबीन करने दे ....
 ज़रा सोचिये....!!!!!!
 कि यदि ओक का अनुसंधान पूर्णतयः सत्य है तो किसी देशी राजा के बनवाए गए
संगमरमरी आकर्षण वाले खूबसूरत, शानदार एवं विश्व के महान आश्चर्यों में से
एक भवन, "तेजो महालय" को बनवाने का श्रेय बाहर से आए मुग़ल बादशाह शाहजहाँ
को क्यों......?????
 तथा......

इससे जुड़ी तमाम यादों का सम्बन्ध मुमताज-उल-ज़मानी से क्यों........???????


""""आंसू टपक रहे हैं, हवेली के बाम से.......

    रूहें लिपट के रोटी हैं हर खासों आम से.......
    अपनों ने बुना था हमें, कुदरत के काम से......
    फ़िर भी यहाँ जिंदा हैं हम गैरों के नाम से......"""""

Girish Kamble
Research Associate
Mahyco Life Science Research Centre
Jalna-431203(MS)
India

--
With Best Regards
Mahendra Patel
http://hostsewa.com
http://gyanplus.tk
http://gujvani.tk

abhar: hindustan ka dard.

शनिवार, 23 जुलाई 2011

दोहा सलिला: यमक दमकता सूर्य सम संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
यमक दमकता सूर्य सम
संजीव 'सलिल'
*
खींची-छोड़ी रास तो, लगीं दिखाने रास.
घोड़ी और पतंग का, 'सलिल' नहीं विश्वास..
रास = लगाम/डोर, नृत्य.

मोह न मोहन अब अधिक, सोहन सोह न और.
गह न गहन को कभी भी, अगहन मिले न ठौर..

'रोक न, जाने दे' उसे, था इतना आदेश.
'रोक, न जाने दे' समझ, समझा गया विशेष..

था 'आदेश' विदेश तज, तू अब तो 'आ देश'.
खाया याकि सुना गया, जब पाया संदेश..
आदेश = आज्ञा, देश आ.
संदेश = बंगाली मिठाई, निर्देश. -श्लेष अलंकार.

'खाना' या 'खा ना' कहा, 'आना' या 'आ ना'.
'पा ना' कह 'पाना' दिया, 'गा ना' कह 'गाना'  

नाना ने नाना दिये, स्नेह सहित उपहार.
ना-ना कहकर भी करे, हमने हँस स्वीकार..  

नाक कटी साबित रही, लेकिन फिर भी नाक.
कान करे नापाक जो, कहलाये वह पाक..

नाग चढ़ा जब नाग पर, नाग उठा फुंफकार.
नाग गरजकर बरसता, होता हाहाकार..
नाग = हाथी, पर्वत, एक प्रकार का साँप, बादल.

नाम अनाम सुनाम हो, किन्तु न हो बदनाम.
हो सकाम-निष्काम पर, 'सलिल' न हो बेकाम..
*

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

घनाक्षरी सलिला: संजीव 'सलिल'

घनाक्षरी सलिला:
संजीव 'सलिल'
*
बुन्देली-
जाके कर बीना सजे, बाके दर सीस नवे, मन के विकार मिटे, नित गुन गाइए.
ज्ञान, बुधि, भासा, भाव, तन्नक न हो अभाव, बिनत रहे सुभाव, गुनन सराहिए..
किसी से नाता लें जोड़, कब्बो जाएँ नहीं तोड़, फालतू न करें होड़, नेह सों निबाहिए.
हाथन तिरंगा थाम, करें सदा राम-राम, 'सलिल' से हों न वाम, देस-वारी जाइए..
*
छत्तीसगढ़ी-
अँचरा मा भरे धान, टूरा गाँव का किसान, धरती मा फूँक प्राण, पसीना बहावथे.
बोबरा-फार बनाव, बासी-पसिया सुहाव, महुआ-अचार खाव, पंडवानी भावथे..
बारी-बिजुरी बनाय, उरदा के पीठी भाय, थोरको न ओतियाय, टूरी इठलावथे.
भारत के जय बोल, माटी मा करे किलोल, घोटुल मा रस घोल, मुटियारी भावथे..
*
निमाड़ी-
गधा का माथा का सिंग, जसो नेता गुम हुयो, गाँव खs बटोsर वोsट, उल्लू की दुम हुयो.
मनख को सुभाव छे, नहीं सहे अभाव छे, करे खांव-खांव छे, आपs से तुम हुयो.. 
टीला पाणी झाड़ नद्दी, हाय खोद रए पिद्दी, भ्रष्टs सरsकारs रद्दी, पता नामालुम हुयो.
'सलिल' आँसू वादला, धरा कहे खाद ला, मिहsनतs का स्वाद पा,  दूर मातम हुयो..
*
मालवी: 
दोहा:
भणि ले  म्हारा देस की, सबसे राम-रहीम.
जल ढारे पीपल तले, अँगना चावे नीम.

शरद की चांदणी से, रात सिनगार करे, गगन से फूल झरे, बिजुरी भू पे गिरे.
आधी राती भाँग बाटी, दिया की बुझाई बाती, मिसरी-बरफ़ घोल्यो, नैना हैं भरे-भरे.
भाभीनी जेठानी रंगे, काकीनी मामीनी भीजें, सासू-जाया नहीं आया, दिल धीर न धरे..
रंग घोल्यो हौद भर, बैठी हूँ गुलाल धर, राह में रोके हैं यार, हाय! टारे न टरे..
*
राजस्थानी:
जीवण का काचा गेला, जहाँ-तहाँ मेला-ठेला, भीड़-भाड़ ठेलमठेला, मोड़ तरां-तरां का.
ठूँठ सरी बैठो काईं?, चहरे पे आई झाईं, खोयी-खोयी परछाईं, जोड़ तरां-तरां का...
चाल्यो बीच बजारा क्यों?, आवारा बनजारा क्यों?, फिरता मारा-मारा क्यों?, हार माने दुनिया .
नाव कनारे लागैगी, सोई किस्मत जागैगी, मंजिल पीछे भागेगी, तोड़ तरां-तरां का....
*
छंद विधान : चार पद, हर पद में चार चरण, ८-८-८-७ पर यति,  

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com


गुरुवार, 21 जुलाई 2011

मुक्तिका: बरसात में ----संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:                                                                                             
बरसात में
संजीव 'सलिल'
*
बन गयी हैं दूरियाँ, नज़दीकियाँ बरसात में.
हो गये दो एक, क्या जादू हुआ बरसात में..

आसमां का प्यार लाई जमीं तक हर बूँद है.
हरी चूनर ओढ़ भू, दुल्हन बनीं बरसात में..

तरुण बादल-बिजुरिया, बारात में मिल नाचते.
कुदरती टी.वी. का शो है, नुमाया बरसात में..

डालियाँ-पत्ते बजाते बैंड, झूमे है हवा.
आ गयीं बरसातियाँ छत्ते लिये बरसात में..

बाँह उनकी राह देखे चाह में जो हैं बसे.
डाह हो या दाह, बहकर गुम हुई बरसात में..

चू रहीं कवितायेँ-गज़लें, छत से- हम कैसे बचें?
छंद की बौछार लायीं, खिड़कियाँ बरसात में..

राज-नर्गिस याद आते, भुलाये ना भूलते.
बन गये युग की धरोहर, काम कर बरसात में..

बाँध,झीलें, नदी विधवा नार सी श्री हीन थीं.
पा 'सलिल' सधवा सुहागन, हो गयीं बरसात में..

मुई ई कविता! उड़ाती नींद, सपने तोड़कर.
फिर सजाती नित नये सपने 'सलिल' बरसात में..
*
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

बुधवार, 20 जुलाई 2011

मुक्तिका: ढाई आखर संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
ढाई आखर
संजीव 'सलिल'
*
ढाई आखर जिंदगी में पायेगा.
दर्द दिल में छिपा गर मुस्कायेगा..

मन न हो बेचैन, जग मत नैन रे.
टेरता कागा कि पाहुन आयेगा.

गाँव तो जड़ छोड़ जा शहरों बसा.
किन्तु सावन झूम कजरी गायेगा..

सारिका-शुक खोजते अमराइयाँ.
भीड़ को क्या नीड़ कोई भायेगा?

लिये खंजर हाथ में दिल मिल रहा.
सियासतदां क्या कभी शरमायेगा?

कौन किसका कब हुआ कोई कहे?
असच को सच देव समझा जाएगा.

'सलिल' पल में सिया को वन दे अवध.
सिर धुने, सदियों सिसक पछतायेगा.

*****

गीत; फिर आओ जा याचक द्वारे? संजीव 'सलिल'

गीत;
फिर आओ जा याचक द्वारे?
संजीव 'सलिल'
*
फिर आओ जा याचक द्वारे?...

कहत छंद कछु रचो-सुनाओ.
दर्द सहो चुप औ' मुस्काओ..
जौन कबीरा बसो हिया मां-
सोन न दो, कर टेर जगाओ.
सावन आओ कजरी गा रे...

जलधर-हलधर भेंटे भुजभर.
बीच हमारे अंतर गजभर.
मंतर फूँको, जंतर फूँको-
बाकी रहे न अंतर रजभर.
बन हरियाली मरु पर छा रे...

मंद छंद खों समझ न पावे.
चंद छन्द खों गले लगावे.
काव्य कामिनी टेर रही चुप-
कौन छंद खों हृदै बसावे.
ढाई आखर डूब-डूबा रे...
*
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

POEMS : DR. MAHENDRA BHATNAGAR

POEMS : DR. MAHENDRA BHATNAGAR

[1] TO  STARS 

Why do the stars shiver in the sky? 

Are their feet chained? 
Restrained breaths are suffocated, 
Do they also face oppression by weapons? 
Are they too scorched by the fire of exploitation, every moment? 
They look tortured, perturbed, weak. 
Some, simply shiver, 
Some are shooting, measuring the limit of the sky! 
Are the worldly people at guilty?
In life’s dreams — of happiness and sadness,
while the world is sleeping, unconscious,
And is encircled from head to feet
in the cover of night,
Feeling bored in loneliness,
When every particle is sad and heavy-hearted,
Whom they are cursing then?
Is shivering their only life?
Appearing happy down the ages,
Is their youth  perpetual?
Falling, hiding continuously
Are they playing hide and seek?
Sowing vine of nectar like affection, and
laughing, stirring together instinctively
in their own world!

Ä

[2] DARKNESS-FELLOW STARS

Stars are the perpetual partners of deep darkness!

When bright new dawn descends
the grimy night departs
They, too, silently go
with their bag and baggage somewhere!

Seeing the fascinating evening near
The eternal indestructible moon rises
They also return; though kept hidden in the sky
                  throughout the day!

When dense darkness covers the day
These numerous stars come and surround the sky,
They want the extinguishing extinction
                  of the full moonlight!

The affectionate union of light and darkness
Denotes the cheer and pains of life,
The life becomes happy when
rise with fall and laughter with tears mingle together!

Ä

[3] THE WAKING STARS
The stars awake at midnight!
When all habitants —
humans, trees, animals, birds — of the world sleep!
    The stars awake at midnight!
They remain vigilant like watchmen
And say fables to each other, silently
Oh, not feeling drowsy even a moment
They sparkled and flashed!
      The stars awake at midnight!
The jingling voice of the cricket and,
Wailing voice of the distressed woman, too,
Become fusioned in the free wind,
reaching the doors of the fickle stars!
      The stars awake at midnight!
Slumber comes equipped with its army
and says, “Dear ! take a nap!”
so that I seize all your glamour;
but they don’t surrender to such temptation!
      The stars awake at midnight!
All night they twinkle without being dim,
Never closed their eye-doors,
Never attained dreams of life,
Poor helpless!
Remained aloof  from pleasures and pain!
      The stars awake at midnight!

Ä

man ranjan:

THIS WILL BLOW YOUR MIND!Wink
Dear friends, this has to be one of the best tags I have come across I love it and hope that you will too.
Magickal art, This will blow your mind!
Magickal art, This will blow your mind!
Magickal art, This will blow your mind!
Magickal art, This will blow your mind!
Magickal art, This will blow your mind!

ट्रांसलिटरेशन (लिप्यंतरण) विधि से हिन्दी में टाइप करने का सर्वोत्तम टूल

Posted: 19 Jul 2011 12:49 AM PDT
ट्रांसलिटरेशन (लिप्यंतरण) विधि में यूनिकोड-हिन्दी में लिखने वाले लोगों के लिए एक खुशख़बरी है। माइक्रोसाफ्ट ने आईएलआईटी (इंडिक लैंग्वेज इनपुट टूल) नाम से अपना एक उत्पाद ज़ारी किया है, जिसके वेब (केवल ऑनलाइन इस्तेमाल के लिए) और डेस्टटॉप (माइक्रोसॉफ्ट विंडोज़ में किसी भी अनुप्रयोग में ऑफलाइन तथा ऑनलाइन प्रयोग के लिए) दोनों ही संस्करण उपलब्ध हैं। इस टूल में उन सभी समस्याओं से छूटकारा पा लिया गया है जो गूगल आईएमई टूल में मौज़ूद हैं। इस टूल की मदद से हिन्दी के अलावा बंगाली, गुजराती, कन्नड़, मलयालम, मराठी, उड़िया, पंजाबी, तमिल और तेलगू भाषाओं में टाइपिंग की जा सकती है।

माइक्रोसाफ्ट आईएलआईटी की खूबियाँ-

1) यह डाउनलोड करने में बहुत सरल है और इसके सेट-अप को एक बार डाउनलोड करके कई कम्प्यूटर मशीनों पर संस्थापित किया जा सकता है। (गूगल का सेट-अप यह सुविधा सीधे तौर पर प्रदान नहीं करता। यद्यपि इसका एक जुगाड़ ई-पंडित ने लिखा है)।
2) गूगल आईएमई की भाँति यह टूल भी आपकी पसंदों को याद रखता है और अगली बार निश्चित अक्षरयुग्मों से वहीं परिणाम देता है, जो आप चाहते हैं। उदाहरण के लिए यदि आप karan टाइप करें तो पहले विकल्प के तौर पर यह आपको ‘कारण’ दिखायेगा, लेकिन मान लीजिए आप अंग्रेजी के इन अक्षरों से ‘कारण’ की जगह ‘करण’ या ‘करन’ लिखना चाहते हैं, तो एरो-की या माउस से अपना वांछित शब्द चुनें, अगली बार आप जब भी आप इस टूल से अपने सिस्टम पर karan टाइप करेंगे, तो यह आपकी पसंद को ध्यान में रखते हुए परिणाम देगा। घबराए नहीं, यदि आप उसके बाद अपनी पसंद में हेर-फेर भी करना चाहें, तो कर सकते हैं।
3) अंतरराष्ट्रीय अंक-प्रणालीः हिन्दी के ज्यादातर टाइपिंग टूलों की एक समस्या यह है कि वे अंकों को हिन्दी अंकों के रूप में प्रदर्शित करते हैं, जबकि भारतीय अंक प्रणाली, जिसे दुनिया भर में इंडो-अरैबिक अंकीय प्रणाली के नाम से भी जाना जाता है, को अंतरराष्ट्रीय मानक के तौर पर स्वीकार किया जा चुका है। लेकिन यह दुर्भाग्य ही है कि हिन्दी टाइपिंग टूलों में पुराने स्थानीय अंकीय प्रणाली का इस्तेमाल किया जाता रहा है। गूगल आईएमई भी हिन्दी अंकों का ही इस्तेमाल करता है। लेकिन माइक्रोसाफ्ट के इस टूल में अंकों के अंतरराष्ट्रीय स्वरूपों को ही पहली प्राथमिकता दी गई है। लेकिन यदि आप पुरानी अंकीय प्रणाली ही पसंद करते हैं तो दूसरे विकल्प के तौर पर वह भी मौज़ूद है। आप अंकों के लिए केवल एक बार अपनी पसंद निर्धारित कर लें तो यह आगे से अंकों को आपकी पसंद के हिसाब से वैयक्तिक करेगा। आप विकल्प में जाकर हमेशा के लिए अंकों को प्रदर्शित करने की अपनी पसंद भी निर्धारित कर सकते हैं।
4) पूर्ण विराम (डंडा या खड़ी पाई) की उपस्थितिः हिन्दी कम्प्यूटिंग के यदि वेब-संसार को देखें तो हिन्दी टाइपिंग की एक नई परम्परा विकसित होती दिखायी पड़ती है। हिन्दी के पूर्ण विराम के स्थान पर अंग्रेजी का डॉट (.) या फुल स्टॉप का प्रयोग बहुतायत हो रहा है। बहुत सी प्रतिष्ठित ई-पत्रिकाएँ भी इस परम्परा की पोषक रही हैं। असल में हिन्दी टाइपिंग में यह चलन इसलिए भी चल पड़ा है, क्योंकि हिन्दी टाइपिंग का अधिकतम प्रचलित टूल गूगल आईएमई हिन्दी पूर्ण विराम (डंडा) टाइप करने का विकल्प प्रदान नहीं करता। जहाँ तक मेरी जानकारी है लगभग सभी ऑनलाइन टाइपिंग टूलों (यूनिनागरी को छोड़कर) में हिन्दी पूर्ण विराम का चिह्न अनुपस्थित है। ऑफलाइन टाइपिग टूलों जैसे- बरह, माइक्रोसॉफ्ट इंडिक आईएमई, हिन्दी टूल किट, कैफेहिन्दी इत्यादि में यह सुविधा उपलब्ध है। माइक्रोसॉफ्ट का यह टूल पूर्ण विराम के चिह्न से लैश है। जैसे ही आप डॉट टाइप करेंगे यह टूल उसे ‘।‘ में बदल देगा। यद्यपि यह . का विकल्प भी देगा।
5) अंग्रेजी शब्द-संक्षेपों को देवनागरी में लिखनाः इस टूल का यह बहुत खास फीचर है। अभी तक सभी लिप्यांतरण टूलों से अंग्रेजी के शब्द-संक्षेपों (संक्षेपाक्षरों) को देवनागरी में लिखने में बहुत अधिक असुविधा होती थी। जैसे मान लें कि आपको WHO, RBI, IIT, IIM इत्यादि को देवनागरी में लिखना है, आप इस टूल से जैसे ही किसी अक्षरयुग्म को पूरा का पूरा कैपिटल लैटर्स में टाइप करेंगे, यह टूल आपको पहले विकल्प के तौर पर उस शब्द-संक्षेप का देवनागरी संस्करण प्रदान करेगा।

अपने सिस्टम में इस टूल को इंस्टॉल कैसे करें

सबसे पहले अपने वेबब्राउजर में http://specials.msn.co.in/ilit/Hindi.aspx लिंक खोलें। अब आपको यहाँ तीन विकल्प मिलेंगे। पहला रास्ता तो यह है कि आप वहाँ बने टाइपिंग बॉक्स में रोमन में हिन्दी में लिखना शुरू करें और कॉपी-पेस्ट विधि से जहाँ ज़रूरत हो, वहाँ इस्तेमाल करें।

आप चाहें तो इस टूल का मात्र वेब-संस्करण ही इंस्टॉल करके काम चला सकते हैं। इसके लिए आपको कुछ नहीं करना है। उपर्युक्त लिंक-पेज़ पर उपलब्ध ‘Install Web Version’ बटन पर क्लिक करें और निर्देशों का पालन करें। आप लगभग सभी प्रचलित ब्राउजरों में इसे इंस्टॉल कर सकते हैं।

यदि आप इस टूल का प्रयोग विंडोज़ के सभी अनुप्रयोगों में करना चाहते हैं तो ‘Install Desktop Version’ पर क्लिक करें। यह टूल विंडोज़ 7, विडोंज़ विस्टा या विंडोज़ एक्स पी SP2+ (32-bit) में से किसी भी सिस्टम में संस्थापित किया जा सकता है। आपके कम्प्यूटर में कम से कम 512 MB का RAM होना ज़रूरी है, और साथ ही साथ 1 GHz 32-bit (x86) या 64-bit (x64) प्रोसेसर होना चाहिए।

XP प्रयोक्ताओं के लिए
यदि आपके सिस्टम में पहले से Microsoft .Net Framework 2.0 और Mircosoft Windows Installer 3.1 नहीं हैं, तो इस टूल का सेट-अप पहले इन्हें डाउनलोड करके इंस्टॉल करेगा। आपको परेशान होने की ज़रूरत नहीं है, ये काम यह टूल स्वयं कर लेगा। इन दोनों के इंस्टॉल होने के बाद आपका सिस्टम अपने आप रिस्टार्ट होगा। इसके बाद सेट-अप अपने आप चलेगा और इंस्टॉलेशन पूरा होगा। रिस्टार्ट होने के बाद यदि सेट-अप अपने आप नहीं चालू होता, तो उसे मैनुअली चलाएँ। अतः आपको सलाह दी जाती है कि जब आप इस टूल का सेट-अप डाउनलोड करें, तो सीधे ‘Run’ पर क्लिक करने की बजाय, ‘Save’ पर क्लिक करें।

इंस्टॉलेशन के बाद अलग-अलग मशीनों में इसे किस तरह से संचालित किया जाय, इसका सचित्र विवरण इस टूल की वेबसाइट पर उपलब्ध है। फिर भी यदि आप इस टूल को इंस्टॉल करने में किसी प्रकार की असुविधा का अनुभव करें तो मुझे लिखें, मैं उस ट्यूटोरिल को सरल भाषा में लिखने का प्रयास करूँगा।
You are subscribed to email updates from e-मदद
To stop receiving these emails, you may unsubscribe now.
Email delivery powered by Google
Google Inc., 20 West Kinzie, Chicago IL USA 60610

मंगलवार, 19 जुलाई 2011

भजन तेरी शरण : प्रभु तेरी शरण --मृदुल कीर्ति

: Mridul Kirti <mridulkirti@gmail.com>,

ॐ!
भजन
मृदुल कीर्ति
तेरी शरण प्रभु तेरी शरण,  तेरी शरण प्रभु तेरी शरण.
सुख पुंज महा प्रभु तेरे चरण.
संसार महा विष व्याल घना,  नहीं दीख रहा कोई अपना.
तुझसे ही पाया अपनापन. सुख पुंज महा प्रभु तेरे चरण
तेरी शरण ------------------------------
----------------
जग मायामय और झूठा है, तेरा सांचा प्यार अनूठा है.
सब तन-मन-धन तेरे अरपन , सुख पुंज महा प्रभु तेरे चरण.
तेरी शरण -----------------------------------------------
हरि नाम जपन  साँची पूंजी, भव-सिन्धु तरन नहीं विधि दूजी.
करो तारण हार मेरा भी तरन, सुख पुंज महा प्रभु तेरे चरण.
तेरी शरण ------------------------------------------------
तू व्यापक ब्रह्म निरंजन है, कण- कण में तेरा स्पंदन है.
रहूँ ध्यान में तेरे प्रति पल क्षण ,  सुख पुंज महा प्रभु तेरे चरण.
तेरी शरण प्रभु तेरी शरण -------------------------------

दोहा सलिला: यमक झमककर मोहता --संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
यमक झमककर मोहता
--संजीव 'सलिल'
*
हँस सहते हम दर्द नित, देते हैं हमदर्द.
अपनेपन ने कर दिए, सब अपने पन सर्द..
पन = संकल्प, प्रण.
*
भोग लगाकर कर रहे, पंडित जी आराम.
नहीं राम से पूछते, ग्रहण करें आ राम..
*
गरज रहे बरसे नहीं, आवारा घन श्याम.
रुक्मिणी-राधा अधर पर, वेणु मधुर घनश्याम..
*
कृष्ण-वेणु के स्वर सुनें, गोप सराहें भाग.
सुन न सके जो वे रहे, श्री के पीछे भाग..
भाग = भाग्य, पीछा करना.
*
हल धरकर हलधर चले, हलधर-कर थे रिक्त.
हल धरकर हर प्रश्न का, हलधर कर रस-सिक्त..
हल धरकर = हल रखकर, किसान के हाथ, उत्तर रखकर, बलराम के हाथ.
*
बरस-बरस घन बरसकर, करें धराको तृप्त.
गगन मगन विस्तार लख, हरदम रहा अतृप्त..
*
असुर न सुर को समझते, सुर से रखते बैर.
ससुरसुता पर मुग्ध हो, मना रहे सुर खैर..
असुर = सुर रहित / राक्षस - श्लेष
सुर = स्वर, देवता. यमक
ससुर = सुर सहित, श्वसुर श्लेष.
*
ससुर-वाद्य संग थिरकते, पग-नूपुर सुन ताल.
तजें नहीं कर ताल को,बजा रहे करताल..
ताल = तालाब, नियमित अंतराल पर यति/ताली बजाना.
कर ताल = हाथ द्वारा ताल का पालन, करताल = एक वाद्य
*
ताल-तरंगें पवन सँग, लेतीं विहँस हिलोर.
पत्ते झूमें ताल पर, पर बेताल विभोर..
ताल = तालाब, नियमित अंतराल पर यति/ताली बजाना.
पर = ऊपर / के साथ, किन्तु.
*
दिल के रहा न सँग दिल, जो वह है संगदिल.
दिल का बिल देता नहीं, ना काबिल बेदिल..
सँग दिल = देल के साथ, छोटे दिलवाला.
*
यमक झमककर मोहता, खूब सोहता श्लेष.
प्यास बुझा अनुप्रास दे, छोड़े हास अशेष..
*****
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम


Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

सोमवार, 18 जुलाई 2011

कविता : -- संजीव 'सलिल'

कविता
संजीव 'सलिल'
*
युग को सच्चाई का दर्पण, हर युग में दिखाती चले कविता.
दिल की दुनिया में पलती रहे, नव युग को बनाती पले कविता..
सूरज की किरणों संग जागे, शशि-किरणों संग ढले कविता.
योगी, सौतन, बलिदानी में, बन मन की ज्वाल जले कविता.
*