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बुधवार, 20 जुलाई 2011

गीत; फिर आओ जा याचक द्वारे? संजीव 'सलिल'

गीत;
फिर आओ जा याचक द्वारे?
संजीव 'सलिल'
*
फिर आओ जा याचक द्वारे?...

कहत छंद कछु रचो-सुनाओ.
दर्द सहो चुप औ' मुस्काओ..
जौन कबीरा बसो हिया मां-
सोन न दो, कर टेर जगाओ.
सावन आओ कजरी गा रे...

जलधर-हलधर भेंटे भुजभर.
बीच हमारे अंतर गजभर.
मंतर फूँको, जंतर फूँको-
बाकी रहे न अंतर रजभर.
बन हरियाली मरु पर छा रे...

मंद छंद खों समझ न पावे.
चंद छन्द खों गले लगावे.
काव्य कामिनी टेर रही चुप-
कौन छंद खों हृदै बसावे.
ढाई आखर डूब-डूबा रे...
*
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

9 टिप्‍पणियां:

- ksantosh_45@yahoo.co.in ने कहा…

आदरणीय सलिल जी
बहुत ही अच्छा गीत लिखा है आपने।
तरन्नुम में पढ़ कर दिल गदगद हो गया।
वास्तव में आपके ऊपर माँ शारदे की असीम कृपा है।
हर तरह की कविताओं में आप निपुण हैं।
मेरी बधाई स्वीकारें।
सन्तोष कुमार सिंह
मथुरा।

sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.com ekavita ने कहा…

आ० आचार्य जी,
ब्रजभाषा में सुन्दर गेय छंदों के लिये साधुवाद |
सादर,
कमल

- madanmohanarvind@gmail.com ने कहा…

आदरणीय
गीत का सौन्दर्य अप्रतिम है. साधुवाद.
सादर
मदन मोहन 'अरविन्द'

- mstsagar@gmail.com ने कहा…

आचार्य जी,
सादर वंदन,
इस नए गीत का अभिनन्दन |
लग रहा है,यह समय की भी पुकार है -
'फिर आओ जा याचक द्वारे'
'ढाई आखर डूब-डुबा रे'
( वाह वाह वाह )
ढाई अक्षर की खातिर ही लोट आओ |
-महिपाल

- mstsagar@gmail.com ने कहा…

आदरणीय कमल दादा ,
क्षमा प्रार्थी हूँ एक छोटी सी गुस्ताखी के लिए,
आदरणीय आचार्य जी का गीत संभवतः बुन्देली का है|
-महिपाल

- mukuti@gmail.com ने कहा…

आचार्य जी,

गीत को गुनगुनाने के बाद कबीर सा मलंग हो जाने को जी चाहता है, और यही आपकी विद्वता है।

सादर,

मुकेश कुमार तिवारी

sanjiv 'salil' ने कहा…

फिर आओ जा याचक द्वारे?...

हो मुकेश महिपाल कमल सम
सुख-संतोष कभी ना हो कम.
अचल राधिका काहे रूठी?
पूछ मदन मोहन नैना नम.
छोड़ मानिनी मान मना रे...

*

www.navincchaturvedi.blogspot.com ने कहा…

मैं भी इसे ब्रजभाषा ही समझ रहा हूँ|

संकेतों से भरा आप का यह नवगीत विद्यार्थियों की पूजी है आचार्यवर|

माँ शारदे आप को दीर्घायु प्रदान करें|

shar_j_n ✆ ekavita ने कहा…

"जौन कबीरा बसो हिया मां-
सोन न दो, कर टेर जगाओ"
बहुत सुन्दर!

सादर शार्दुला