लेख
हिंदी में तकनीकी शिक्षा - क्यों और कैसे?
- संजीव वर्मा 'सलिल'
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भाषा वाहक कथ्य की, भाव-तथ्य अनुसार
शिशु माँ की भाषा समझ, करता है व्यवहार
मनोवैज्ञानिकों के अनुसार नवजात शिशु अक्षर, अंक, लिपि आदि का विधिवत ज्ञान न होते हुए भी माँ की कही बात न केवल समझ लेता है अपितु लंबे समय तक याद भी रखता है। नवजात शिशु कुछ न जानने पर भी माँ द्वारा कहे गए शब्दों का भावार्थ समझकर प्रतिक्रिया देता है।इसका प्रमाण अभिमन्यु को गर्भ-काल में पिता द्वारा दिया गया चक्रव्यूह प्रवेश का ज्ञान स्मरण रहने का दृष्टांत है। भाषा वाचक के कथ्य को श्रोता तक पहुँचाने का माध्यम होती है। सामान्यत: आप जिस भाषा को जानते हैं उसमें विषय या कथ्य को आसानी से समझते हैं। अगर भाषा ही समझ न सकें तो विषय या कथ्य कैसे समझेंगे? अपवादों को छोड़कर किसी भी भारतीय की मातृभाषा अंग्रेजी नहीं है। अंग्रेजी में बताई गयी बात समझना अधिक कठिन होता है। सामान्यत:, हम अपनी मातृभाषा में सोचकर अंग्रेजी में अनुवाद कर उत्तर देते हैं। इसीलिए अटकते हैं, या रुक-सोचकर बोलते हैं।
शिक्षा हेतु मातृ भाषा सर्वोत्तम
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा कराए गए अध्ययन से यह तथ्य सामने आया कि दुनिया में सर्वाधिक उन्नत देश वे हैं जो उच्च तथा तकनीकी शिक्षा अपनी मातृभाषा देते हैं। इनमें रूस, चीन, जापान, फ़्रांस, जर्मनी आदि हैं। यह भी कि दुनिया में सर्वाधिक पिछड़े देश वे हैं जो उच्च तथा तकनीकी शिक्षा किसी विदेश भाषा में देते हैं। इनमें से अधिकांश कभी न कभी अंग्रेजों के गुलाम रहे हैं। पराधीनता-काल में भारत की शिक्षा नीति पर इंग्लैंड की संसद में हुई बहस में नीति बनानेवाले लार्ड मैकाले ने स्पष्ट कहा था कि उसका उद्देश्य भारत की सनातन ज्ञान परंपरा पर अविश्वास कर पश्चिम द्वारा थूका गया चाटनेवाली पीढ़ी उत्पन्न करना है। दुर्भाग्य से वह सफल भी हुआ। स्वतंत्रता के बाद भारत के शासन-प्रशासन में अंग्रेजी का बोलबाला रहा, आज भी है। इस संवर्ग में स्थान बनाने के लिए सामान्य जनों ने भी अंग्रेजी को सर पर चढ़ा लिया।
इस संदर्भ में एक प्रसंग यह है कि दक्षिण भारत के राजा कृष्ण देव राय के दरबार में पड़ोस के राज्य से एक विद्वान आया जो अनेक भाषाएँ धाराप्रवाह तथा शुद्ध बोलता-लिखता था। उसने चुनौती दी कि राज दरबार के विद्वान उसकी मातृभाषा बताएँ अथवा पराजय स्वीकार करें। कोई दरबारी यह गुत्थी सुलझा नहीं सका तो राजा ने अपने श्रेष्ठ विद्वान तेनालीराम से राज्य की प्रतिष्ठा बचाने का अनुरोध किया। तेनालीराम ने अगले दिन उत्तर देने का वचन दिया। दरबार समाप्त होने के बाद वह विद्वान अपने कक्ष में विश्राम हेतु गया तो सेवकों ने तेनालीराम के निर्देश अनुसार सोते समय उस पर गरम पानी गिर दिया, वह हड़बड़ कर उठा और सेवकों को फटकारने लगा। सेवकों ने क्षमा माँग ली। अगले दिन दरबार में तेनालीराम ने भरे दरबार में अतिथि विद्वान की मातृ भाषा बता दी। अतिथि ने जानना चाहा कि तेनालीराम ने कैसे सही उत्तर का पता लगाया। तेनालीराम ने कहा कि व्यक्ति बिना विचारे मातृ भाषा में ही बोल सकता है, सोते समय अचानक गर्म पानी गिरने पर व्यक्ति को सोचने का समय ही नहीं मिलता और उसके मुँह से केवल मातृ भाषा ही निकल सकती है। अतिथि ने हार मान ली।
हिंदी में तकनीकी शिक्षा- मध्य प्रदेश प्रथम राज्य
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश के द्रुत विकास के लिए बड़ी संख्या में अभियंताओं, चिकित्सकों तथा वैज्ञानिकों आदि की आवश्यकता हुई। सरकार ने उच्च तकनीकी शिक्षा हेतु शिक्षा संस्थान आरंभ किए किंतु उनमें से अधिकांश में अंग्रेजी माध्यम में अध्यापन, अंग्रेजी की किताबें तथा परीक्षा में अंग्रेजी में ही उत्तर लिखने की बाध्यता के कारण सामान्य पृष्ठभूमि के शहरी-ग्रामीण तथा आदिवासी छात्र बार-बार असफल होकर हौसला हार बैठे। कई ने आत्म हत्या तक कर ली, जो उत्तीर्ण भी हुए वे कम अंकों के कारण व्यवसाय में सफल नहीं हुए। निजी अभियांत्रिकी महाविद्यालय खुलने पर उनमें ग्रामीण पृष्ठ भूमि के छात्रों ने बड़ी संख्या में प्रवेश लिया। उच्च तकनीकी शिक्षा मातृ भाषा में देने की माँग होने पर सरकार ने हिंदी में उच्च तकनीकी शिक्षा देने की नीति बनाई। मध्य प्रदेश अभियांत्रिकी और चिकित्सा शिक्षा हिंदी में देने वाला प्रथम राज्य बना।
तकनीकी विषयों की भाषा कैसी हो?
इंजीनियरिंग तथा मेडिकल कॉलेजों में हिंदी-अंग्रेजी मिश्रित भाषा में अध्यापन होने लगा, प्रश्न पत्र दोनों भाषाओं में आने लगे तथा विद्यार्थी को हिंदी या/और अंग्रेजी में उत्तर लिखने की सुविधा मिली। अटल बिहारी हिंदी विश्वविद्यालय भोपाल ने इंजीनियरिंग तथा मेडिकल की किताबें हिंदी में अनुवादित कराकर तथा लिखवाकर इंजीनियारिंग में डिप्लोमा, बी.टेक./एम.टेक., एम.बी.बी.एस. आदि में हिंदी में अध्ययन-अध्यापन करना संभव कर दिया किंतु हिन्दीकरण करते समय शुद्ध संस्कृत निष्ठ हिंदी का प्रयोग किया जाने के कारण ये किताबें विद्यार्थियों को विषय का ज्ञान सरलता से कराने के उद्देश्य में असफल हुईं। इनमें संस्कृत निष्ठ शब्दों के अत्यधिक प्रयोग ने जटिल विषयों को और अधिक कठिन बना दिया। परिभाषिक शब्दों की भिन्नता के कारण हिंदी माध्यम से उत्तीर्ण छात्रों के लिए अन्य राज्यों में हो रही संगोष्ठियों में सहभागिता तथा रिक्त स्थानों के लिए हो रहे साक्षात्कारों में चयन की संभावना न्यूनतम कर दी है। इंडियन जिओ-टेक्निकल सोसायटी के जबलपुर चैप्टर चेयरमैन के नाते अभियांत्रिकी महाविद्यालयों के छात्रों और प्राध्यापकों के साथ निरंतर संपर्क में मैंने पाया कि हिंदी की रोजगार -क्षमता से वे पूरी तरह अपरिचित हैं। यह मिथ्या धारणा कि हिंदी माध्यम से पढ़ने से रोजगार मिलने में कठिनाई होगी फैलने का कारण हिंदी माध्यम की पुस्तकों की भाषा तकनीकी न होकर साहित्यिक होना ही है।
तकनीकी शब्दकोश
विज्ञान विषयों में अध्ययन-अध्यापन एक स्थान पर, प्रश्न पत्र बनाना दूसरे स्थान पर, उत्तर लिखना तीसरे स्थान पर तथा उत्तर पुस्तिका जाँचना चौथे स्थान पर होता है। अत:, भाषा व शब्दावली ऐसी हो जिसे सब समझकर सही अर्थ निकालें। इसलिए तकनीकी तथा पारिभाषिक शब्दों को यथावत लेना ही उचित है। भाषा हिंदी होने से वाक्य संरचना सरल-सहज होगी। विद्यार्थी जो सोचता है वह लिख सकेगा। अंग्रेजी माध्यम से पढ़ा परीक्षक भी हिंदी के उत्तर में तकनीकी-पारिभाषिक शब्द यथावत भाषांतरित होने पर समझ सकेगा। मैंने बी.ई., एम.ई. की परीक्षाओं में इस तरह की समस्याओं का अनेक बार सामना किया है तथा हल भी किया है। तकनीकी लेख लिखते समय भी यह समस्या सामने आती है। ऐसी समस्याओं का एक मात्र समाधान विषय/शाखा वार ऐसा तकनीकी शब्द कोश बनाया और प्रचलित किया जाना है जिसमें आम जन जीवन में प्रचलित शब्दों को अधिकतम ग्रहण किया जाए, नए शब्द केवल तब ही बनाए जाएँ जब उनका कोई पर्याय लोक में प्रचलित ना हो। अंग्रेजी या अन्य भाषाओं के जन सामान्य में प्रचलित शब्दों को यथावत लिया जाकर देवनागरी लिपि में लिखा जाए तो छात्रों को सैंकड़ों शब्दों की स्पेलिंग रटने से मुक्ति मिलेगी। सीमेंट, आर.सी.सी., मशीन, मोटर, स्टेशन, मीटर जैसे लोक-प्रचलित शब्दों का अनुवाद न कर इन्हें यथावत प्रयोग किया जाना चाहिए।
हिंदी व भारतीय भाषाएँ अनिवार्य हो अंग्रेजी वैकल्पिक
तकनीकी शिक्षा के हिन्दीकरण में सबसे बड़ी बाधा इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स, इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी, इंडियन मेडिकल असोसिएशन, इंडियन अर्थक्वैक सोसायटी, इंडियन रोड कॉंग्रेस, इंडियन बार काउंसिल आदि ऐसी संस्थाएँ हैं जहाँ हिंदी या ने भारतीय भाषाओं का प्रयोग वर्जित घोषित न होने पर भी, सभी महत्वपूर्ण कार्य अंग्रेजी में किया जाता है। इन संस्थाओं में सभी तकनीकी विमर्श केवल अंग्रेजी में होता है। अंग्रेजी को कार्य कुशलता का पर्याय मान लिया गया है। फलत:, हिंदी भाषी ग्राहक को भी इंजीनियर और आर्किटेक्ट मूल्यानुमान पत्रक (एस्टिमेट) अंग्रेजी में देता है, हिंदी भाषी मरीज को डॉक्टर दवाई का पर्चा अंग्रेजी में लिखता है। हद यह है कि कई बार अंग्रेजी न पढ़ पाने के करण मेडिकल स्टोर से गलत दवाई दे दी या मरीज दवाई के सेवन संबंधी निर्देश समझ न सके और गलत समय या मात्रा में दवाई खा ली तो मरीजों की जान पर बन आई। कुछ सरकारों ने हिंदी में दवाइयों के नाम लिखने हेतु दवा निर्माताओं तथा डॉक्टरों को निर्देश दिए हैं किंतु उनका पालन नहीं हो रहा है। यहाँ तक कि सर्वोच्च न्यायालय में अंग्रेजी पाठ को मानक और हिंदी पाठ को केवल अनुवाद कहा जाता है। इस दिशा में प्रभावी कदम तत्काल आवश्यक है। तकनीकी उत्पाद, यंत्र, निर्माण सामग्री आदि के निर्माताओं को भी उत्पाद तथा प्रचार सामग्री पर हिंदी व अन्य स्थानीय भाषाओं का प्रयोग करने हेतु कानून बनाकर सख्ती से लागू किए जाने चाहिए।
देशज तकनीकी शब्द
भारत में विश्व की सर्वाधिक प्राचीन और उन्नत संस्कृति रही है। भारत की प्राचीन यांत्रिकी संरचनाओं को देखकर आज भी लोग दाँतों तले अँगुली दबाने के लिए विवश हो जाते हैं। इन निर्माण कार्यों में से कई सैंकड़ों वर्षों बाद भी यथावत हैं। अनेक मंदिर, किले, मीनारें, महल, पल, बाँध आदि भारतीय अभियांत्रिकी की श्रेष्ठता के जीवंत उदाहरण हैं। इन इमारतों को बननेवाले कारीगर अंग्रेजी नहीं जानते, वे निर्माण कार्य की प्रक्रिया और सामग्री के लिए देशज शब्दों का प्रयोग करते हैं। म्यारी (बीम), बड़ेरी (रैफ्टर), कैंची (टीआरएस), मलगा , कवेलू -खपरे (टाइल्स), फर्श (फ्लोर), दीवाल (वाल), ईंट (ब्रिक), गारा (मॉर्टर), गिट्टी (एग्रीगेट), रेत (सैंड), मिट्टी (सॉइल), धूल (सिल्ट), सरिया (बार), तसला (हाड), गेंती (पीक एक्स), फावड़ा (हो), सब्बल (शॉवल), रंदा (प्लेनिंग मशीन), वसूला (ऐडज), हथौड़ी (हैमर), गज, साहुल (प्लमबाब), कुर्सी (प्लिन्थ), परछी (वरांडा), आँगन (कोर्ट यार्ड), बाड़ी (फेंसिंग) आदि अनगिनत शब्द ग्राम्य अंचलों में मिस्त्री, बढ़ई, कारीगर आदि प्रयोग करते हैं। पुल निर्माण कार्य करवाते समय मैंने पाया है कि लोहा बाँधने वाले कारीगरों का दल अल्प शिक्षित होने पर भी ड्राइंग को अच्छी तरह समझ कर लोहा सही-सही बाँधता है। वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह कार्य करते आते हैं और काम संबंधी पूरी बात-चीत अपनी बोली में करते हैं। अयोध्या के राम मंदिर का कार्य भी ऐसे ही पारंपरिक कारीगरों के दल ने पूर्ण किया है। ये कारीगर आपस में अंग्रेजी के शब्द जाने बिना देशज शब्दों का प्रयोग करते हैं। तकनीकी शब्द कोशों में ऐसे शब्दों को प्रमुखता दी जानी चाहिए जो जन सामान्य में प्रचलित हैं।
हिंदी स्वतंत्र भाषा
हिंदी का अत्यधिक संस्कृतीकरण किया जाना हिंदी के विकास में बाधक है। हिंदी स्वतंत्र भाषा है। उसका अपना व्याकरण, पिंगल शास्त्र और हर सृजन विधा की समृद्ध विरासत है। भाषाशास्त्री मानते हैं कि हिंदी का उद्भव अपभ्रंश से है, संस्कृत से नहीं किंतु संस्कृत को समस्त भाषाओं की जननी घोषित करने के कारण द्रविड भाषाएँ बोलनेवालों ने संस्कृत के साथ हिंदी का भी विरोध आरंभ कर दिया है। राजनैतिक कारणों से गठित प्रदेशों में उनके नाम के आधार पर ऐसी भाषाओं को राजभाषा घोषित कर दिया गया है जो राज्य गठन से पहले अस्तित्व में ही नहीं थी। राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी ऐसी ही भाषाएँ हैं। इस नीति के कारण इन राज्यों में पूर्व प्रचलित बोलियों (मेवाड़ी, मारवाड़ी, शेखावटी, हाड़ौती, हलबी, गोंड़ी , भीली, सरगुजिहा आदि) के समक्ष अस्तित्व का संकट है। साहित्यकार इन बोलियों में निरंतर रचनाकर्म कर रहे हैं पर शासन इन्हें अमान्य कह रहा है।
हिंदी की रोजगार क्षमता
हिंदी की अवहेलना का आरोप युवा पीढ़ी पर लगाया जाता है किंतु यह भुला दिया जाता है की पूर्व में शिक्षा प्राप्ति का उद्देश्य गया वर्धन था जबकि इस पीढ़ी को शिक्षा पाने का उद्देश्य पैरों पर खाद्य होना अर्थात आजीविका अर्जन करना बताया गया है। इसलिए युवा वही भाषा पढ़ेगा जिसमें रोजगार प्राप्ति में सहायक किताबें उपलब्ध हों। हिंदी उत्पादक-विक्रेता तथा ग्राहक की संपर्क भाषा है यह उसकी रोजगार सामर्थ्य है। जैसे ही हर विषय/शाखा की जन सामान्य में प्रचलित भाषा में तकनीकी किताबें प्रचुर संख्या में उपलब्ध होंगी वैसे ही हिंदी की रोजगार परकता में कल्पनातीत वृद्धि होगी। इस दिशा में हिंदी पत्रिकाओं की भी महती भूमिका है।
हिंदी पर गर्व
हिंदी को मातृ भाषा मानते हुए उस पर गर्व करने के साथ-साथ दैनिक जीवन में अधिकतम प्रयोग करने की दिशा में जन सामान्य को सचेष्ट होना होगा। लोकतंत्र में तंत्र की मंशा न होने पर भी लोकमत का अपना महत्व होता है। जन सामान्य अपनी नाम पट्टिका, हस्ताक्षर तथा लेखन कार्य हिंदी और देवनागरी में करे तो शासन-प्रशासन को भी हिंदी का प्रयोग बढ़ाना होगा। हिंदी के साथ भारतीय बोलिओं और भाषाओं में भाषांतरण, अनुवाद तथा लिप्यंतरण का कार्य निरंतर किया जाना चाहिए। धार्मिक तथा सांस्कृतिक अनुष्ठानों में पूजन आदि हिंदी में हो ताकि सुननेवाले समझ सकें कि क्या कहा जा रहा है? यह समझना होगा कि हिंदी का समर्थन अंग्रेजी या किसी अन्य भाषा का विरोध कदापि नहीं है।
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संपर्क- विश्व वाणी हिंदी संस्थान अभियान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष- ९४२५१ ८३२४४
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