घनाक्षरी सलिला:
संजीव 'सलिल'
*
बुन्देली-
जाके कर बीना सजे, बाके दर सीस नवे, मन के विकार मिटे, नित गुन गाइए.
ज्ञान, बुधि, भासा, भाव, तन्नक न हो अभाव, बिनत रहे सुभाव, गुनन सराहिए..
किसी से नाता लें जोड़, कब्बो जाएँ नहीं तोड़, फालतू न करें होड़, नेह सों निबाहिए.
हाथन तिरंगा थाम, करें सदा राम-राम, 'सलिल' से हों न वाम, देस-वारी जाइए..
*
छत्तीसगढ़ी-
अँचरा मा भरे धान, टूरा गाँव का किसान, धरती मा फूँक प्राण, पसीना बहावथे.
बोबरा-फार बनाव, बासी-पसिया सुहाव, महुआ-अचार खाव, पंडवानी भावथे..
बारी-बिजुरी बनाय, उरदा के पीठी भाय, थोरको न ओतियाय, टूरी इठलावथे.
भारत के जय बोल, माटी मा करे किलोल, घोटुल मा रस घोल, मुटियारी भावथे..
*
निमाड़ी-
गधा का माथा का सिंग, जसो नेता गुम हुयो, गाँव खs बटोsर वोsट, उल्लू की दुम हुयो.
मनख को सुभाव छे, नहीं सहे अभाव छे, करे खांव-खांव छे, आपs से तुम हुयो..
टीला पाणी झाड़ नद्दी, हाय खोद रए पिद्दी, भ्रष्टs सरsकारs रद्दी, पता नामालुम हुयो.
मालवी:
दोहा:
भणि ले म्हारा देस की, सबसे राम-रहीम.
जल ढारे पीपल तले, अँगना चावे नीम.
शरद की चांदणी से, रात सिनगार करे, गगन से फूल झरे, बिजुरी भू पे गिरे.
आधी राती भाँग बाटी, दिया की बुझाई बाती, मिसरी-बरफ़ घोल्यो, नैना हैं भरे-भरे.
भाभीनी जेठानी रंगे, काकीनी मामीनी भीजें, सासू-जाया नहीं आया, दिल धीर न धरे..
रंग घोल्यो हौद भर, बैठी हूँ गुलाल धर, राह में रोके हैं यार, हाय! टारे न टरे..
*
राजस्थानी:
जीवण का काचा गेला, जहाँ-तहाँ मेला-ठेला, भीड़-भाड़ ठेलमठेला, मोड़ तरां-तरां का.
ठूँठ सरी बैठो काईं?, चहरे पे आई झाईं, खोयी-खोयी परछाईं, जोड़ तरां-तरां का...
चाल्यो बीच बजारा क्यों?, आवारा बनजारा क्यों?, फिरता मारा-मारा क्यों?, हार माने दुनिया .
नाव कनारे लागैगी, सोई किस्मत जागैगी, मंजिल पीछे भागेगी, तोड़ तरां-तरां का....
*
छंद विधान : चार पद, हर पद में चार चरण, ८-८-८-७ पर यति,
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot. com
संजीव 'सलिल'
*
बुन्देली-
जाके कर बीना सजे, बाके दर सीस नवे, मन के विकार मिटे, नित गुन गाइए.
ज्ञान, बुधि, भासा, भाव, तन्नक न हो अभाव, बिनत रहे सुभाव, गुनन सराहिए..
किसी से नाता लें जोड़, कब्बो जाएँ नहीं तोड़, फालतू न करें होड़, नेह सों निबाहिए.
हाथन तिरंगा थाम, करें सदा राम-राम, 'सलिल' से हों न वाम, देस-वारी जाइए..
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छत्तीसगढ़ी-
अँचरा मा भरे धान, टूरा गाँव का किसान, धरती मा फूँक प्राण, पसीना बहावथे.
बोबरा-फार बनाव, बासी-पसिया सुहाव, महुआ-अचार खाव, पंडवानी भावथे..
बारी-बिजुरी बनाय, उरदा के पीठी भाय, थोरको न ओतियाय, टूरी इठलावथे.
भारत के जय बोल, माटी मा करे किलोल, घोटुल मा रस घोल, मुटियारी भावथे..
*
निमाड़ी-
गधा का माथा का सिंग, जसो नेता गुम हुयो, गाँव खs बटोsर वोsट, उल्लू की दुम हुयो.
मनख को सुभाव छे, नहीं सहे अभाव छे, करे खांव-खांव छे, आपs से तुम हुयो..
टीला पाणी झाड़ नद्दी, हाय खोद रए पिद्दी, भ्रष्टs सरsकारs रद्दी, पता नामालुम हुयो.
'सलिल' आँसू वादला, धरा कहे खाद ला, मिहsनतs का स्वाद पा, दूर मातम हुयो..
*मालवी:
दोहा:
भणि ले म्हारा देस की, सबसे राम-रहीम.
जल ढारे पीपल तले, अँगना चावे नीम.
शरद की चांदणी से, रात सिनगार करे, गगन से फूल झरे, बिजुरी भू पे गिरे.
आधी राती भाँग बाटी, दिया की बुझाई बाती, मिसरी-बरफ़ घोल्यो, नैना हैं भरे-भरे.
भाभीनी जेठानी रंगे, काकीनी मामीनी भीजें, सासू-जाया नहीं आया, दिल धीर न धरे..
रंग घोल्यो हौद भर, बैठी हूँ गुलाल धर, राह में रोके हैं यार, हाय! टारे न टरे..
*
राजस्थानी:
जीवण का काचा गेला, जहाँ-तहाँ मेला-ठेला, भीड़-भाड़ ठेलमठेला, मोड़ तरां-तरां का.
ठूँठ सरी बैठो काईं?, चहरे पे आई झाईं, खोयी-खोयी परछाईं, जोड़ तरां-तरां का...
चाल्यो बीच बजारा क्यों?, आवारा बनजारा क्यों?, फिरता मारा-मारा क्यों?, हार माने दुनिया .
नाव कनारे लागैगी, सोई किस्मत जागैगी, मंजिल पीछे भागेगी, तोड़ तरां-तरां का....
*
छंद विधान : चार पद, हर पद में चार चरण, ८-८-८-७ पर यति,
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.
5 टिप्पणियां:
आचार्य जी,
आप वास्तव में आचार्य हैं. अभियन्ता विज्ञान के ही नहीं, काव्य के भी हैं. भारतीय भाषाओं और हिंदी के विभिन्न रूपों को समृद्ध रखने की ज़रूरत है. आप यह कार्य बखूबी कर रहे हैं.
शंका:
१--अनेक शब्द समझ न आए. अर्थ बता सकें तो बेहतर.
२--मुटियारी भावथे--इस पर ध्यान अटक गया. शायद मतलब है--"सुंदर / युवती को मन भाता है". यदि ऐसा है तो आश्चर्य की बात है कि मुटिया शब्द छत्तीसगढ़ी बोली में ही नहीं, पंजाबी में भी प्रचलित है किंतु राम चन्द्र वर्म्मा के शब्दकोश में नहीं है.
"उदाहरण के तौर पर पंजाब में गाया जाने वाला वह गीत जिसमे कुँए पर पानी भरने जा रही नायिका को रोककर सिपाही पूछता है- ये जो तेरे पैर में कांटा चुभ गया है, इसे कौन निकालेगा, कौन इसकी पीर सहेगा -
सड़के सड़के जानिये मुटियारे नी कंडा चुबा तेरे पैर बांकिये नारे नी, ओये नी अडिये
कौन कढे तेरा कांडडा मुटियारे नी कौन सहे तेरी पीड बांकिये नारे नी, ओये नी अडिये
सिपाही उससे पानी पिलाने को कहता है तो वह तमक कर जवाब देती है – मैं तुम्हारी बांदी नहीं हूँ.
घड़ा पजे कुमियारा दा सिपैया वे लज्ज पई टोटे चार कि मैं तेरी मैरम ना.
देर से घर पहुँचनेपर सास नाराज़ होती है, बरसों पहले परदेस गया उसका बेटा जो लौट आया है. मिलने पर पता लगता है कि कुँए पर उसे छेड़ने वाला कोई और नहीं उसका पति ही था."
http://chauraha.in/2011/04/%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%A8%E0%A4%BE-%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%87%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%82-%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%BE-%E0%A4%A1%E0%A5%82%E0%A4%AC/
मुझे बहुत अफ़सोस होता है कि हिंदी के विद्वानों में भाषाविज्ञान के प्रति प्राय: उदासीनता पाई जाती है. जब हिंदी वाले ही हिंदी के लिए अपने उद्यम की इतिश्री चंद आँसू बहा कर और हिंदी का विकास न करने का दोषारोपण सरकार पर करके कर लेते हैं तो भाषा के भविष्य पर आँसू बहाने से क्या लाभ?
होइहै वही जो राम रचि राखा
कोऊ बिदेसी बचाइहै भाखा.
--ख़लिश
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- उद्धृत पाठ दिखाएं -
--
(Ex)Prof. M C Gupta
MD (Medicine), MPH, LL.M.,
Advocate & Medico-legal Consultant
www.writing.com/authors/mcgupta44
"माटी माँ करै किलोल घोटुल मा रस घोल,मुटियारी भावथे " वाह आचार्य जी वाह
कमाल की घनाक्षरी और वह भी वहाँ की लोकभाषा में ! पशंसा के लिये शब्द मेरे पास नहीं |
बहुत दिनों बाद लोकभाषा की रचना से साक्षात्कार हुआ | धन्य है कलम आपकी !
सस्नेह
कमल
केवल एक शब्द की प्रतिक्रिया--"नमन"
--ख़लिश
आ० आचार्य जी ,
दूसरी बुन्देली भाषा वाली घनाक्षरी भी बेजोड़ है | हर पंक्ति रसदार है
"किसी से नाता लें जोड़, कब्बो जाएँ नहीं तोड़, फालतू न करें होड़, नेह सों निबाहिए."
वाह क्या खूब कहा है | काश ऐसा हो पाता !
सस्नेह
कमल
'घनाक्षरी सलिला : छत्तीसगढ़ी में अभिनव प्रयोग. संजीव 'सलिल''
salil ji aakke rachna bahut badhiya haway
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