मुक्तिका:
जानकर भी...
संजीव 'सलिल'
*
रूठकर दिल को क्यों जलाते हो?
मुस्कुराते हो, खूब भाते हो..
एक झरना सा बहने लगता है.
जब भी खुश होते, खिलखिलाते हो..
फेरकर मुँह कहो तो क्यों खुद को
खुद ही देते सजा सताते हो?
मेरे अपने! ये कैसा अपनापन
दिल की बातें न कह, छुपाते हो?
खो गया चैन तो बेचैन न हो.
क्यों न बाँहों में हँस समाते हो?
देखते आइना चेहरा अपना
मेरे चेहरे में मिला पाते हो..
मैं 'सलिल' तुम लहर नहीं दो हम.
जानकर क्यों न जान पाते हो?
*****
Acharya Sanjiv Salil
जानकर भी...
संजीव 'सलिल'
*
रूठकर दिल को क्यों जलाते हो?
मुस्कुराते हो, खूब भाते हो..
एक झरना सा बहने लगता है.
जब भी खुश होते, खिलखिलाते हो..
फेरकर मुँह कहो तो क्यों खुद को
खुद ही देते सजा सताते हो?
मेरे अपने! ये कैसा अपनापन
दिल की बातें न कह, छुपाते हो?
खो गया चैन तो बेचैन न हो.
क्यों न बाँहों में हँस समाते हो?
देखते आइना चेहरा अपना
मेरे चेहरे में मिला पाते हो..
मैं 'सलिल' तुम लहर नहीं दो हम.
जानकर क्यों न जान पाते हो?
*****
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com
1 टिप्पणी:
आचार्य जी,
उच्च भाव से भरपूर मुक्तिका आपने प्रस्तुत किया है | मुस्कुराने वाले चेहरों पर रूठना ठीक नहीं लगता, सही बात है , बधाई इस अभिव्यक्ति हेतु |
एक टिप्पणी भेजें