संजीव 'सलिल'
*
ज्यों मोती को आवश्यकता सीपोंकी.
मानव मन को बहुत जरूरत दीपोंकी..
संसद में हैं गर्दभ श्वेत वसनधारी
आदत डाले जनगण चीपों-चीपोंकी..
पदिक-साइकिल के सवार घटते जाते
जनसंख्या बढ़ती कारों की, जीपोंकी..
चीनी झालर से इमारतें है रौशन
मंद हो रही ज्योति झोपड़े-चीपों की..
नहीं मिठाई और पटाखे कवि माँगे
चाह सभी को है ताली-तारीफों की..
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मुक्तिका:
संजीव 'सलिल'
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सारा जग पाये उपहार ये दीपोंका.
हर घर को भाये सिंगार ये दीपोंका..
रजनीचर से विहँस प्रभाकर गले मिले-
तारागण करते सत्कार ये दीपोंका..
जीते जी तम को न फैलने देते हैं
हम सब पर कितना उपकार ये दीपोंका..
निज माटी से जुड़ी हुई जो झोपड़ियाँ.
उनके जीवन को आधार है दीपों का..
रखकर दिल में आग, अधर पर हास रखें.
सलिल' सीख जीवन-व्यवहार ये दीपोंका..
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मुक्तिका:
किसलिए?...
संजीव 'सलिल'
*
हर दिवाली पर दिए तुम बालते हो किसलिए?
तिमिर हर दीपक-तले तुम पालते हो किसलिए?
चाह सूरत की रही सीरत न चाही थी कभी.
अब पियाले पर पियाले ढालते हो किसलिए?
बुलाते हो लक्ष्मी को लक्ष्मीपति के बिना
और वह भी रात में?, टकसालते हो किसलिए?
क़र्ज़ की पीते थे मय, ऋण ले के घी खाते रहे.
छिप तकादेदार को अब टालते हो किसलिए?
शूल बनकर फूल-कलियों को 'सलिल' घायल किया.
दोष माली पर कहो- क्यों डालते हो किसलिए?
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२-११-२०१०
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