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सोमवार, 2 नवंबर 2020

समीक्षा काल है संक्रांति का -राजेश कुमारी ‘राज‘

समीक्षा
पुस्तक चर्चा-
स्तुत्य, सम्यक, सरस,सुगन्धित पुष्प वल्लरी है ‘काल है संक्रांति का’
राजेश कुमारी ‘राज‘
*
हमारे वेद शास्त्रों में कहा गया है “छन्दः पादौ वेदस्य” अर्थात छंद वेद के पाँव हैं | यदि गद्य की कसौटी व्याकरण है तो कविताओं की कसौटी छंद है| कवि के मन के भाव यदि छंदों का कलेवर पा जाएँ तो पाठक के लिए हृदय ग्राही और स्तुत्य हो जाते हैं | आज ऐसी ही स्तुत्य सुगन्धित सरस पुष्पों की वल्लरी “काल है संक्रांति का” गीत नवगीत संग्रह मेरे हाथों में है | जिसके रचयिता आचार्य संजीव सलिल जी हैं|
आचार्य सलिल जी हिंदी साहित्य के जाने माने ऐसे हस्ताक्षर हैं जो छंदों के पुरोधा हैं छंद विधान की गहराई से जानकारी रखते हैं| जो दत्त चित्त होकर रचनाशीलता में निमग्न नित नूतन बिम्ब विधान नवप्रयोग चिन्तन के नए धरातल खोजती हुई काव्य सलिला, गीतों की मन्दाकिनी बहाते हुए सृजनशील रहते हैं| आपका सद्य प्रकाशित काव्य संकलन ‘काल है संक्रांति का इसी की बानगी है|
कुछ दिनों पूर्व भोपाल के ओबीओ साहित्यिक आयोजन में सलिल जी से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था आपके कृतित्व से तो पहले ही परिचय हो चुका था जिससे मैं बहुत प्रभावित थी भोपाल में मिलने के बाद उनके हँसमुख सरल सहृदय व्यक्तित्व से भी परिचय हुआ | वहाँ मंच पर आपकी कृति काल है संक्रांति का” पर बोलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। "काल है संक्रांति का” ६५ गीत - नवगीतों का एक सुन्दर संग्रह है| समग्रता में देखें तो ये गीत - नवगीत एक बड़े कैनवस पर वैयक्तिक जीवन के आभ्यांतरिक और चयनित पक्षों को उभारते हैं, रचनाकार के आशय और अभिप्राय के बीच मुखर होकर शब्द अर्थ छवियों को विस्तार देते हैं जिनके मर्म पाठक को सोचने पर मजबूर कर देते हैं। 
सलिल जी ने वंदन, स्तवन, स्मरण से लेकर ‘दरक न पायें दीवारें’ तक यद्यपि पाठक को बाँध कर रखा है तथापि उनका कवि अपनी रचनाओं का श्रेय खुद नहीं लेना चाहता -- - "नहीं मैंने रचे हैं ये गीत अपने /क्या बताऊँ कब लिखाए और किसने?"
पुस्तक के शीर्षक को सार्थक करती प्रस्तुति ‘संक्रांति काल है" की निम्न पंक्तियाँ दिल छू जाती हैं -
"सूरज को ढाँपे बादल
सीमा पर सैनिक घायल"
पुस्तक में नौ - दस नवगीत सूरज की गरिमा को शाब्दिक करते हैं कवि सूरज को कहीं नायक की तरह, कहीं मित्रवत संबोधित करते हुए कहता है –
"आओ भी सूरज !
छट गए हैं फूट के बादल
पतंगे एकता की मिल उड़ाओ
गाओ भी सूरज" (आओ भी सूरज से) 
कवि ने अपने कुछ नवगीतों में नव वर्ष का खुले हृदय से स्वागत किया है | “मत हिचक” में व्यंगात्मक लहजा अपनाते हुए कवि पूछता है – "नये साल मत हिचक, बता दे क्या होगा ?" अर्थात आज की जो सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक परिस्थितियाँ हैं क्या उनमे कोई बदलाव या सुधार होगा? यह बहुत सारगर्भित प्रस्तुति है |
"सुन्दरिये मुंदरिये एक ऐसा गीत है जो बरबस ही आपके मुख पर मुस्कान ले आएगा |कवि ने पंजाब में लोहड़ी पर गाये आने वाले लोकगीत की तर्ज़ पर इसे लिखा है | पाठक को मुग्ध कर देंगी उनकी ये पंक्तियाँ –
"सुन्दरिये मुंदरिये होय!
सब मिल कविता करिए होय!
कौन किसी का प्यारा होय|
स्वार्थ सभी का न्यारा होय|"
समसामयिक विषयों पर भी कवि की कलम जागरूक रहती है – "ओबामा आते देस में करो पहुनाई"| आना और जाना प्रकृति का नियम है और शाश्वत सत्य भी जिसे हृदय से सब स्वीकारते हैं वृक्ष पर फूल - पत्ते आयेंगे, पतझड़ में जायेंगे ही सब इस तथ्य को स्वीकार करते हुए मानसिक रूप से तैयार रहते हैं किन्तु जहाँ बेटी के घर छोड़कर जाने की बात आती है तो कवि की कलम भी द्रवित हो उठती है हृदय को छू गया ये नवगीत –
“अब जाने की बारी”-- --
देखे बिटिया सपने, घर आँगन छूट रहा
है कौन कहाँ अपने, ये संशय है भारी
सपनो की होली में, रंग अनूठे ही
साँसों की होली ने,कब यहाँ करी यारी
अब जाने की बारी"
‘खासों में ख़ास’ रचना में कवि ने व्यंगात्मक शैली में पैसों के गुरूर पर जो आघात किया है देखते ही बनता है |
"वह खासो में ख़ास है
रुपया जिसके पास है
सब दुनिया में कर अँधियारा
वह खरीद लेता उजियारा"
‘तुम बन्दूक चलाओ तो’ आतंकवाद जैसे सामयिक मुद्दे पर कवि की कलम तीक्ष्ण हो उठती है जिसके पीछे एक लेखक, एक कवि की हुंकार है वो ललकारता हुआ कहता है –
"तुम बन्दूक चलाओ तो
हम मिलकर कलम चलाएंगे
तुम जब आग लगाओगे
हम हँस के फूल खिलाएंगे"
एक मजदूर जो सुबह से शाम तक परिश्रम करता है अपना पसीना बहता तो दो वक़्त की रोटी का जुगाड़ कर पाता है| ‘मिली दिहाड़ी’ एक दिल छू लेने वाली रचना है जो पाठकों को झकझोर देती है |
"चूड़ी - बिंदी दिला न पाया
रूठ न मों से प्यारी
अगली बेर पहलऊँ लेऊँ
अब तो दे मुस्का री" - मिली दिहाड़ी चल बाज़ार
अंधविश्वास, ढकोसलों,रूढ़िवादिता जैसे विषयों के विरोध और उन्मूलन हेतु रची गयी रचनाओं से भी समृद्ध है यह संग्रह | ‘अंधश्रद्धा’ एक ऐसा ही नवगीत है जिसमे मनुष्यों को कवि आगाह करता हुआ कहता है –
"आदमी को देवता मत मानिए
आँख पर अपनी न पट्टी बाँधिए"
कवि निकटता से कैंसर जैसे भयंकर रोग से रूबरू हुआ है तथा अपनी निजी जिंदगी में अपनी अर्धांगनी को उस शैतान के जबड़े से छुडा कर लाया है उसकी कलम उस शैतान को ललकारते हुए कहती है -- -
"कैंसर! मत प्रीत पालो
शारदा सुत पराजित होता नहीं है
यह जान लो तुम। 
पराजय निश्चित तुम्हारी
मान लो तुम।" 
"हाथों में मोबाईल" एक सम सामयिक रचना है जिसमें पश्चिमी सभ्यता में रँगी नव पीढ़ी पर जबरदस्त तंज है|
‘लोकतंत्र का पंछी’ आज की सियासत पर बेहतर व्यंगात्मक नवगीत है|
‘जिम्मेदार नहीं है नेता’ प्रस्तुति में आज के स्वार्थी भ्रष्ट नेताओं को अच्छी नसीहत देते हुए कवि कहता है –
"सत्ता पाते ही रंग बदले
यकीं न करना किंचित पगले
काम पड़े पीठ कर देता
रंग बदलता है पल-पल में।"
‘उड़ चल हंसा’ एक शानदार रचना है जिसमें हंस का बिम्ब प्रयोग करते हुए मानव में होंसला जगाते हुए कवि कहता है –
"उड़ चल हंसा! मत रुकना
यह देश पराया है। "
आज के सामाजिक परिवेश में पग पग पर उलझनों जीवन की समस्याओं से दो चार होता कवि मन आगे आने वाली पीढ़ी को प्रेरित करता हुआ कहता है –‘आज नया इतिहास लिखें हम’ बहुत अच्छे सन्देश को शब्दिक करता शानदार नवगीत है | इस तरह ‘उम्मीदों की फसल’ उगाती हुई आचार्य सलिल जी की ये कृति ‘दरक न पायें दीवारे’ इसका ख़याल और निश्चय करती हुई ‘अपनी मंजिल’ पर आकर पाठकों की साहित्यिक पठन पाठन की क्षुदा को संतुष्ट करती हैं| निःसंदेह यह पुस्तक पाठकों को पसंद आएगी मैं इसी शुभकामना के साथ आचार्य संजीव सलिल जी को हार्दिक बधाई देती हूँ | 
काल है संक्रांति का
गीत-नवगीत संग्रह 
समन्वय प्रकाशन अभियान, जबलपुर ४८२००१
२४१११३१, 
समीक्षक –राजेश कुमारी ‘राज‘ देहरादून 
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