नर्मदा कथा १
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माँ नर्मदा! जगतारिणी।
सुरमोहिनी, शिवभावनी।।
हे चंद्रबिंदु सुसज्जिता।
हे स्वेद-धार निमज्जिता।।
गिरि अमरकंटक से बहीं।
युग-चेतना अनगिन तहीं।।
हे वंशलोचनवंशिनी।
रुद्राक्षतनया हंसिनी।।
हर कष्ट लूँ सब सृष्टि के।
दूँ मिटा क्लेश अवृष्टि के।।
प्रगटीं पुलक मेकलसुता।
भवतारिणी माँ अमृता।।
माई की बगिया मन रुची।
थी साथ प्रिय जुहिला सखी।।
गुलबकावली लाया-खिला।
था शोणभद्र लगा भला।।
दुर्भाग्य जुहिला-शोण का।
छिप मिले; सोन मुड़ा वृथा।।
मुँह मोड़, शिव को था भजा।
जा कपिलधारा दुःख तजा।।
शिव ने दिए वरदान दो।
कर प्रलय-जय, माँ-क्वाँरि हो।।
कंकर बने शंकर जहाँ।
सुर-नर-असुर तापस तहाँ।।
सँग ऋक्ष-वानर-नाग हो।
मनु-संस्कृति की फसल बो।।
तुम दूध धारा तृप्तिदा।
मिलती शिवानी भक्तिदा।।
जा घाट चंदन ले नहा।
मठ कुकर्रा हर दुःख दहा।।
डिम-डिम सतत डमरू बजा।
तहँ ग्राम डिंडोरी बसा।।
यश नंदिकेश गगन छुए।
दे नाँदि-पाठ अमर हुए।।
है बाँध बरगी, पायली।
छवि नयन को लगती भली।।
टेमर मिले, झट गौर भी।
रव करें 'रेवा' शोर भी।।
है घाट सिद्ध व जिलहरी।
गौरी तपस्या जहँ करी।।
क्रमश:
संजीव
२.११.२०१८, ७९९९५५९६१८
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