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गुरुवार, 19 नवंबर 2020

दोहा, मुक्तक

दोहा सलिला
*
शब्द-सुमन शत गूँथिए, ले भावों की डोर
गीत माल तब ही बने, जब जुड़ जाएँ छोर
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केवट करता चाकरी, शुष्क जाह्नवी धार
ठिठक खड़े सिय राम जी, लछमन चकित निहार
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करते रहते शब्द ही, हर दिन मुझसे खेल
कथ्य बिम्ब रस भाव लय, करें ह्रदय से मेल 
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मन-सागर मंथन करो, उठे विचार तरंग 
काव्य नायिका से मिले, मन्मथ मस्त मलंग 
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मुक्तक 
कुछ नहीं में भी कुछ तो होता है
मौन भी शोर उर में बोता है
पंक में खिल रहा 'सलिल' पंकज
पग में लगता तो मनुज धोता है
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