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मंगलवार, 31 मार्च 2020

लघुकथा : माँ की नज़र -कांता रॉय

लघुकथा:
माँ की नजर
कान्ता रॉय, भोपाल
*
"लंच में क्या बनाऊँ?"
"आप रहने दीजिए। एक अर्जेंट मेल करना है, बस पाँच मिनट में उठती हूँ।"
"तुम रहने दो, अपना प्रोजेक्ट पूरा करो। आज लंच मैं बना लेता हूँ।" कहते हुए अखिलेश फ्रीज में से सब्जी निकालने लगे।
ईमेल करने के बाद राहत महसूस करते हुए कुर्सी पर सिर टिकाए पूना वाले अगले क्लाइंट के लिए एस्टीमेट बनाने लगी। तभी ‌कुकर की सीटी बजी। नजर रसोई में सब्जी काटने में व्यस्त अखिलेश पर जाकर टिक गई।
माँ के जाने के बाद अखिलेश में कई बदलाव देखने को मिल रहे हैं। अब मेरे देर तक बाहर काम करने पर ऐतराज नहीं जताते। बात-बात में टोकने की आदत खत्म हो गई है। पहले इन्हीं सब बातों को लेकर पहले घर में जाने कितनी बार तनातनी और बहसें हुई हैं।
माँ की आँखों से उमड़ते आँसूवाली छवि जेहन में तैर आई। हम पति-पत्नी की लड़ाईयों से माँ बेचारी हमेशा दुखी रहती थीं। माँ को तो बेटे का सुखी गृहस्थ जीवन देखना भी नसीब नहीं हुआ था। चैन से बेचारी ने कभी एक रोटी न खाईं। मैं, न तो ऑफिस में पूरी पड़ती, न ही घर में। दस घंटे की नौकरी और ये गृहस्थी। दोनों को अकेले सम्भालना। माँ और अखिलेश, दोनों की अपनी-अपनी जरूरतें, पूरा करने वाली अकेली मैं।
कभी-कभी सोचती थी कि कह दूँ - "माँ! आपको नौकरी वाली बहू नहीं लाना चाहिए था। किसी कम पढ़ी-लिखी को ब्याह लातीं जो सुबह से रात तक आप दोनों माँ- बेटे की तीमारदारी में लगी रहती।"
लेकिन कभी कहा नहीं, उनका इसमें दोष भी नहीं था। माँ बहुत ही अच्छी थीं। भले वह घर के किसी काम में मदद नहीं करती थीं, कभी मुझे परेशान करने की उनकी मंशा भी नहीं रही। जो जैसा मैंने थाली में परस दिया, बेचारी खुशी-खुशी खा लेती थीं।
अखिलेश ही थे जो माँ की थाली में ताक-झाँक करते रहते थे और लड़ाई के लिए कोई न कोई विषय ढूंढ लेते थे, रोटी के साथ सलाद क्यों नहीं रखा, माँ की थाली में दही नहीं परोसा, माँ भिंडी नहीं खाती, माँ के लिए तुरई और लौकी की सब्जी रोज बनाया करो।
कपड़े धोने से लेकर प्रेस करने तक की जिम्मेदारी मेरी थी। मेरी नौकरी इस घर की जरूरत नहीं थी, वह मेरी अपनी महत्वाकांक्षा थी। इसलिए झेलना मुझे ही था। यह अकेली मेरी समस्या थी। अकेले घर-बाहर सामंजस्य स्थापित करते हुए मेरा बुरा हाल हो रहा था। उस दिन सुबह अचानक माँ को सोते में ही अटैक आया और सदा के लिए सो गई। उनके जाने से घर में एक बहुत बड़ा सन्नाटा पसर गया था।
अखिलेश, मैं और लम्बी चुप्पी। लगा जैसे माँ के हाथों में ही हम सबकी जीवन डोर थी। बिना इशारे के ही हम दोनों कठपुतली बनकर उनके लिए नाच रहे थे। माँ को गए करीब तीन माह बीत चुके हैं। रसोई की परिधि में जहाँ सिर्फ मैं हुआ करती थी अब उसमें अखिलेश भी शामिल हो गए हैं। अखिलेश का घर जल्दी लौटने पर हमारे लिए डिनर तैयार करके रख लेना, सुबह वॉशिंग मशीन चलाना और अपने कपड़ों के साथ मेरे कपड़े भी धो देना। घर के कामों में मदद करना, मन में मीठी लहर भरता था पर कौतूहल भी जगाता था।
आज मैंने कहा- जानते हैं, जैसे अब आप हैं, हमेशा से मैंने ऐसे ही पति की परिकल्पना की थी, मेरे सपनों के राजकुमार। मेरी हर बात में मेरे साथ ऐसे ही खड़े होने वाले।"
उन्होंने मेरी तरफ देखा और करीब आकर रूमानियत से पूछा,"और क्या-क्या सोचा था?"
इस अनोखी अदा पर मेरा रोम-रोम पुलकित हो उठा। शर्मा कर झट् नजरें उन पर से हटाने की कोशिश की। हठात् दीवार पर सुनहरे फ्रेम में जड़ी माँ की तस्वीर देखने लगी।
"माँ के सामने कितने झगड़े हुए हमारे। जैसे हम आज प्यार से रहते हैं, वैसे ही माँ के होने पर रहते तो वे बहुत खुश होती न?"
सुन कर अखिलेश गम्भीर हो गए और माँ की तस्वीर के पास जाकर खड़े हो गए।
मैंने फिर से कहा : "काश, माँ हमारी खुशियों में शामिल हो पाती। हम दोनों में सामंजस्य देखकर वे कितनी खुश होती। क्या माँ के सामने आप इस तरह से क्यों नहीं रहते थे?"
"नहीं रह सकता था।"
"क्यों नहीं रह सकते थे?"
"क्योंकि मुझे माँ की नजरों में 'जोरू का गुलाम' नहीं बनना था।"
*
२८ मार्च २०२०, २२.५०

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