एक रचना
काम न काज
*
काम न काज
जुबानी खर्चा
नये वर्ष का कोरा पर्चा
*
कल सा सूरज उगे आज भी
झूठा सच को ठगे आज भी
सरहद पर गोलीबारी है
वक्ष रक्त से सने आज भी
किन्तु सियासत कहे करेंगे
अब हम प्रेम
भाव की अर्चा
*
अपना खून खून है भैया
औरों का पानी रे दैया!
दल दलबंदी के मारे हैं
डूबे लोकतंत्र की नैया
लिये ले रहा जान प्रशासन
संसद करती
केवल चर्चा
*
मत रोओ, तस्वीर बदल दो
पैर तले दुःख-पीर मसल दो
कृत्रिम संवेदन नेता के
लौटा, थोड़ी सीख असल दो
सरकारों पर निर्भर मत हो
पायें आम से
खास अनर्चा
***
1 टिप्पणी:
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