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शुक्रवार, 27 नवंबर 2015

rasanand de chhand narmada

रसानंद दे छंद नर्मदा ८ 

दोहा का रचना विधान, २३ प्रकार तथा विविध रसों के दोहों का आन्नद लेने के बाद अब देखिये विविध भाषा रूपों के दोहे। 
  

बुन्देली दोहा-




मन्दिर-मन्दिर कूल्ह रै, चिल्ला रै सब गाँव.




फिर से जंगल खों उठे, रामचंद के पाँव..- प्रो. शरद मिश्र. 




छत्तीसगढी दोहा-




चिखला मती सीट अऊ, घाम जौन डर्राय.




ऐसे कायर पूत पे, लछमी कभू न आय.. - स्व. हरि ठाकुर 




बृज दोहा-




कदम कुञ्ज व्है हौं कबै, श्री वृन्दावन मांह.




'ललितकिसोरी' लाडलै, बिहरेंगे तिहि छाँह.. -ललितकिसोरी




उर्दू दोहा-




सबकी पूजा एक सी, अलग-अलग हर रीत.




मस्जिद जाए मौलवी, कोयल गाये गीत.. - निदा फाज़ली 




मराठी द्विपदी- (अभंग)




या भजनात या गाऊ, ज्ञानाचा अभंग.




गाव-गाव साक्षरतेत, नांदण्डयाचा चंग.. -- भारत सातपुते




हाड़ौती दोहा-




शादी-ब्याऊँ बारांता , तम्बू-कनाता देख.




'रामू' ब्याऊ के पाछै, करज चुकाता देख.. -रामेश्वर शर्मा 'रामू भैय्या' 




भोजपुरी दोहा-




दम नइखे दम के भरम, बिटवा भयल जवान.




एक कमा दू खर्च के, ऊँची भरत उदान.. -- सलिल 




निमाड़ी दोहा-




जिनी वाट मं$ झाड़ नी, उनी वाट की छाँव.




नेह, मोह, ममता, लगन, को नारी छे छाँव.. -- सलिल 




हरयाणवी दोहा-




सच्चाई कड़वी घणी, मिट्ठा लागे झूठ.




सच्चाई कै कारणे, रिश्ते जावें टूट.. --रामकुमार आत्रेय. 




राजस्थानी दोहा-




करी तपस्या आकरी, सरगां मिस सगरोत. 




भागीरथ भागीरथी, ल्याया धरा बहोत.. - भूपतिराम जी.



गोष्ठी के अंत में कहा जाने वाला -



कथा विसर्जन होत है, सुनहुं वीर हनुमान. 


जो जन जहाँ से आयें हैं, सो तहँ करहु पयान..



दोहा और सोरठा:


दोहा की तरह सोरठा भी अर्ध सम मात्रिक छंद है. इसमें भी चार चरण होते हैं. प्रथम व तृतीय चरण विषम 


तथा द्वितीय व  चतुर्थ चरण सम कहे जाते हैं. सोरठा में दोहा की तरह दो पद (पंक्तियाँ) होती हैं. प्रत्येक पद 

में २४ मात्राएँ होती हैं. 



दोहा और सोरठा में मुख्य अंतर गति तथा यति में है. दोहा में १३-११ पर यति होती है जबकि सोरठा में ११ - 



१३ पर यति होती है. यति में अंतर के कारण गति में भिन्नता होगी ही.


दोहा के सम चरणों में गुरु-लघु पदांत होता है, सोरठा में यह पदांत बंधन विषम चरण में होता है. दोहा में 



विषम चरण के आरम्भ में 'जगण' वर्जित होता है जबकि सोरठा में सम चरणों में. इसलिए कहा जाता है-


दोहा उल्टे सोरठा, बन जाता - रच मीत.


दोनों मिलकर बनाते, काव्य-सृजन की रीत.


कहे सोरठा दुःख कथा:


सौरठ (सौराष्ट्र गुजरात) की सती सोनल (राणक) का कालजयी आख्यान को पूरी मार्मिकता के साथ गाकर 


दोहा लोक मानस में अम्र हो गया। कथा यह कि कालरी के देवरा राजपूत की अपूर्व सुन्दरी कन्या सोनल 

अणहिल्ल्पुर पाटण नरेश जयसिंह (संवत ११४२-११९९) की वाग्दत्ता थी। जयसिंह को मालवा पर आक्रमण में 

उलझा पाकर उसके प्रतिद्वंदी गिरनार नरेश रानवघण खंगार ने पाटण पर हमला कर सोनल का अपहरण कर 

उससे बलपूर्वक विवाह कर लिया. मर्माहत जयसिंह ने बार-बार खंगार पर हमले किए पर उसे हरा नहीं सका। 

अंततः खंगार के भांजों के विश्वासघात के कारन वह अपने दो लड़कों सहित पकड़ा गया। जयसिंह ने तीनों को 

मरवा दिया। यह जानकर जयसिंह के प्रलोभनों को ठुकराकर सोनल वधवाण के निकट भोगावा नदी के 

किनारे सती हो गयी। अनेक लोक गायक विगत ९०० वर्षों से सती सोनल की कथा सोरठों (दोहा का जुड़वाँ 

छंद) में गाते आ रहे हैं-


वढी तऊं वदवाण, वीसारतां न वीसारईं.


सोनल केरा प्राण, भोगा विहिसऊँ भोग्या. 


दोहा की दुनिया से जुड़ने के लिए उत्सुक रचनाकारों को दोहा की विकास यात्रा की झलक दिखने का उद्देश्य 


यह है कि वे इस सच को जान और मान लें कि हर काल की अपनी भाषा होती है और आज के दोहाकार को 

आज की भाषा और शब्द उपयोग में लाना चाहिए। अब निम्न दोहों को पढ़कर आनंद लें- 


कबिरा मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर.

पाछो लागे हरि फिरे, कहत कबीर-कबीर.


असन-बसन सुत नारि सुख, पापिह के घर होय.

संत समागम राम धन, तुलसी दुर्लभ होय. 


बांह छुड़ाकर जात हो, निबल जान के मोहि.

हिरदै से जब जाइगो, मर्द बदौंगो तोहि. - सूरदास 


पिय सांचो सिंगार तिय, सब झूठे सिंगार.

सब सिंगार रतनावली, इक पियु बिन निस्सार.


अब रहीम मुस्किल पडी, गाढे दोऊ काम.


सांचे से तो जग नहीं, झूठे मिले न राम.


रोला और सोरठा 



सोरठा में दो पद, चार चरण, प्रत्येक पद-भार २४ मात्रा तथा ११ - १३ पर यति रोला की ही तरह होती है 


किन्तु रोला में विषम चरणों में गुरु-लघु चरणान्त बंधन नहीं होता जबकि सोरठा में होता है.


सोरठा तथा रोला में दूसरा अंतर पदान्त का है. रोला के पदांत या सम चरणान्त में दो गुरु होते हैं जबकि 

सोरठा में ऐसा होना अनिवार्य नहीं है.


सोरठा विषमान्त्य छंद है, रोला नहीं अर्थात सोरठा में पहले - तीसरे चरण के अंत में तुक साम्य अनिवार्य है, 

रोला में नहीं.


इन तीनों छंदों के साथ गीति काव्य सलिला में अवगाहन का सुख अपूर्व है.



दोहा के पहले-दूसरे और तीसरे-चौथे चरणों का स्थान परस्पर बदल दें अर्थात दूसरे को पहले की जगह तथा 


पहले को दूसरे की जगह रखें. इसी तरह चौथे को तीसरे की जाह तथा तीसरे को चौथे की जगह रखें तो 

रोला बन जायेगा. सोरठा में इसके विपरीत करें तो दोहा बन जायेगा. दोहा और सोरठा के रूप परिवर्तन से 

अर्थ बाधित न हो यह अवश्य ध्यान रखें 


दोहा: काल ग्रन्थ का पृष्ठ नव, दे सुख-यश-उत्कर्ष.

करनी के हस्ताक्षर, अंकित करें सहर्ष.


सोरठा- दे सुख-यश-उत्कर्ष, काल-ग्रन्थ का पृष्ठ नव.


अंकित करे सहर्ष, करनी के हस्ताक्षर.


सोरठा- जो काबिल फनकार, जो अच्छे इन्सान.


है उनकी दरकार, ऊपरवाले तुझे क्यों?


दोहा- जो अच्छे इन्सान है, जो काबिल फनकार.

ऊपरवाले तुझे क्यों, है उनकी दरकार?


दोहा तथा रोला के योग से कुण्डलिनी या कुण्डली छंद बनता है.


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