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बुधवार, 4 नवंबर 2015

samiksha

कृति चर्चा:

'धरती तपती है' तभी गीत नर्मदा बहती है

चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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[कृति विवरण: धरती तपती है, नवगीत संग्रह, आनंद तिवारी, वर्ष २००८, पृष्ठ १५२, १५०/-, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी, जैकेट सहित, उद्भावना प्रकाशन दिल्ली, कृतिकार संपर्क समीप साईं मंदिर, छोटी खिरहनी, कटनी, ४८३५०१, चलभाष ९४२५४ ६४७७९]
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धरती और मनुष्य का नाता अभिन्न और विशिष्ट है। धरती है तो आधार है, आधार है तो ठोकर है, ठोकर है तो दर्द है, दर्द है तो गीत है। धरती तपती-फटती है उसकी पीड़ा धरती पुत्र को विगलित कर, नव सृजन की चुनौती से जूझने का हौसला देती है। पीड़ा और आनंद के परों पर अनुभूति की कोयल कल्पना की उड़ान भरते हुए अभिव्यक्ति के वृक्ष पर बैठकर नवगीत की कुहु-कुहु से अश्रुओं को बीज बनाकर भविष्य के सपनों की फसल आनंददायी बोती है। युवा कवि आनंद तिवारी का प्रथम नवगीत संग्रह 'धरती तपती है' का वचन ऐसी ही उड़ान का साक्षी होना है। निस्संदेह प्रथम पग लक्ष्य को नहीं छूता किन्तु वह लक्ष्य-प्राप्ति की दिशा और गति का संकेत तो करता ही है। 

एक सौ पाँच गीति रचनाओं की यह मञ्जूषा बाल भास्कर की निखरती-बिखरती किरण-छटा की तरह आनंदित करती है। भोर के भास्कर से दोपहर के सूर्य  की सी प्रखरता या साँझ के अस्ताचलगामी रवि की तरह परिपक्वता की नहीं, ताजगी की अपेक्षा होती है। यह ताजगी आनंद के गीत-नवगीत की पंक्ति-पंक्ति में समाहित है, जिसका पान कर पाठक-मन आनंदित हो उठता है। बुन्देल-बघेलखण्ड की माटी की तरह खाँटी ईमानदारी से आनंद अपनी बात कहते हैं। वे कृत्रिम भाव मुद्राएँ नहीं बनाते, शब्दों को चुनकर नहीं सजाते, लय को अलंकृत नहीं करते। उनके गीतों में अन्तर्निहित सौंदर्य ब्यूटी पार्लर से सज्जित-अलंकृत रूपसी सा नहीं किसी ग्राम्य बाला की अनगढ़-सरल रूप-छटा सा है। इन गीतों में बाह्य उपादानों का आश्रयकम से कम लेकर गीतकार आतंरिक तत्वों को उद्घाटित करने के प्रति सचेष्ट है।

आनंद अपने चतुर्दिक जो पाते हैं (गाँव-घर, गाँव-क़स्बा, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, रहन-सहन, खान-पान, प्रेम-पीड़ा, कार्य-व्यापार, सभ्यता-संस्कार, हाट-बाजार, मंडई-मेला आदि) वह सब उनके गीतों में बिम्बित होता है।
संयोगवश उस अंचल में कुछ दिन कार्य करने का सुअवसर मुझे भी मिला है, इसलिए उस माटी की सौंधी महक, ग्राम्य-श्रमिक के अर्थाभाव, निर्मम शोषण, प्राकृतिक सुषमा, ग्राम्य शब्दों के खुरदरेपन में निहित मिठास, अपनत्व और पिछड़कर आगे आने की जिजीविषा का साक्षी हूँ। 

परिवर्तन प्रकृति का नियम है। आनंद पारंपरिक परिवेश में नव्यता तलाश  समय कुछ मानकों का अनुसरण करे, कुछ को छोड़े, कुछ को तोड़-झिंझोड़-मरोड़े और कुछ लो गढ़े इसमें न तो कुछ अस्वाभाविक हैं, न आपत्ति जनक, विशिष्ट यह  सब करते हुए आनंद अनुभूति की अभिव्यक्ति अपनी ईमानदारी नहीं छोड़ते। वे विधागत बंधनों पर अभिव्यक्तिगत निजता को वरीयता देते हुए परिवर्तन और परंपरा के दो पाटों के बीच पिसते आम जन के सुख-दुःख, हर्ष-पीड़ा, उतार-चढ़ाव, सुन्दर-असुंदर के प्रति प्रतिबद्धता न छोड़ते हुए इन अनुभूतियों को शब्द देते हैं। लोक गीत कहे, नवगीत कहे, कविता कहे या कुछ न कह खुद को उसमें खोजता-पाता रहे, यही उन्हें अभीष्ट है -

समस्याओं अनायास उत्पन्न हों तो उन्हें सुलझाया जा सकता है किन्तु समस्याओं को आमंत्रित किया जाए तो उनका हल कभी नहीं मिलता-
ददुआ का बबुआ बालू पर / कब्जा किये हुए 
बुनियादी अधिकारों पर / अवरोधक लगे हुए  
आयातित की गईं / समस्याएं हैं शीश लदीं 
जिन पर बाग़ की रखवाली का दायित्व है वे ही कलियों को रौंदने लगें तो किस तरह रोक जाए-

मौसम ने अपनी 
मनमानी कर डाली
निकल न पाई आमों में 
अब तक बाली 
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आनंद की विशेषता कथ्य के कैनवास पर परिवेश को शब्द-कूची से अंकित सकना है- 

ठंडी रातें / बर्फ हो रहीं 
सिकुड़ा हुआ शहर 
लौह-पूत / रिक्शेवाला वह 
कुलगुंटी से ढाँके तन को  
 पैर उपनहे / फ़टी बिवाई 
बैरागी सा / साधे मन को 
सुविधाओं की / गठरी बाँधे 
रिक्शे पर अफसर है  
बुचकी-बुचकी लगे कमरिया 
तुचके-तुचके गाल 
निहुरे-निहुरे ऐसे चलती 
जैसे चले श्रृगाल 
उम्र बीत गयी भाग-दौड़ में 
मिले न चैन कमीना 
चहकूं-चूँ तेल बिना गाड़ी सी ज़िंदगी 
पहिए की पूही जो टूटी 
बेटों की बजी अलग ढपली 
पूरे घर की किस्मत फूटी 
बरगद की बर्रोंहों जैसे 
लटके हुए अधर में 
खो-खो खेल रहे हैं चूहे 
भूखे-धँसे उदर में 
धरती तपती है की ठेठ देशज शब्दों से युक्त मुहावरेदार भाषा वनजा षोडशी के चिकुर-जाल के तरह मन मोहने के समर्थ है। गैर बुंदेली-बघेली अंचल के पाठकों के सामने एक समस्या अवश्य होगी, ग्राम्यांचली शब्दों के अर्थ खोजने की। हिंदी के शब्दकोशों में तो ये शब्द मिलने से रहे, इसलिए ऐसे शब्दों के अर्ह पद टिप्पणी में देना एक उपाय हो सकता है।

आनंद अपने कथ्य को इस तरह पेश करते हैं की उसे सूक्ति की तरह कहा जा सके- गर्व से गुर्रा रही है / यह निगोड़ी गंदगी, आयतन मजदूर का / सँकरा गया, सबके अंतर्मन संवेदन / को चंदन करिये, अफ्रीका के मानचित्र सी / खटिया पड़ी उतान, बंजर में बो-बोकर बीज चूक गए, कौन मंत्र / फूकूँ फिर / फेंकू मैं राई आदि।

सामान्य और शहरी पाठक के शब्द भण्डार में यह संकलन निश्चय ही वृद्धि करेगा- टिपिर-टिपिर, तितिर-बिटिर, फुलगुंती, उपनहे, टाटी, धनकुट, पैनारी, ललछौंही, फँलांगी, भब्भड़, पसही, बर्रोंहों, फटोही, उतान, चेंक, पगड़ी, सुआ-चरेरू, नोहरी, ऊना, गोरुआ, सँझबाती जैसे शब्द और 'बीछी रखे डंक पर डेरा' जैसी लोकोक्ति हिंदी की रोटी खा रहे और कॉंवेंटों में बच्चे पढ़ा रहे हिंदी प्राध्यापकों ने सुने ही न होंगे।

'कहते हैं कि ग़ालिब का है तर्ज़े बयां और' की तर्ज पर आनंद की कहन अपनी मौलिक है। वे किसी का नुकरण नहीं करते। समय-शकुनि, क्रूर-कँगूरे, दर्द के वितान, कोदों के पैरे, पुआल का बिछौना, पुआल का वितान, कुहरील प्रभात, अगिन चितेरा, मन के भोजपत्र, गली के कोड़े, भूंजी-भांग, बंजारा मन, चिकन-चांदन, आशा का कचनार, बुद्धि का मछेरा, भावों की फसल, संदेह का सँपेरा, सुधियों के मृग-शावक जैसी अभिव्यक्तियाँ कथ्य की कड़वाहट में चाशनी घोल देती हैं।

इस संकलन में घाघ, भड्डरी, दधीचि, कणाद, वात्स्यायन का होना चकित कर गया। प्रकृति और परिवेश से जुड़े आनंद के इस नवगीत-मंच पर नदियाँ (सोनभद्र, महानदी, खैर), पर्वत (विंध्याचल, हिमालय), नृत्य-गान (राई, कजरी, करमा, ढोल, मंजीरे, मादल), वनस्पति (चन्दन, गेंदा, सोनजुही, जासौंन, कांस, टेसू, महुआ, सेमल, आम), पक्षी (पनडुब्बी, कौआ, सोनचिरैया, पपीहा, कोयल, चकवा-चकवी, चकोर, अबाबील, हंस, खंजन, गौरैया, सुग्गा, चटक, चकोरी, कागा, मैन, बाज मुर्गा और तितली) भी अपनी भूमिका निभाते हैं।

बिम्ब, प्रतीकों, रूपकों की मायानगरी रचने के मूल में जो भाव है उसे आनंद यूं बयां करते हैं:

सबके जीवन में / रस घोलें / ऐसा गीत लिखें 
जीवन की / सच्चाई बोले / ऐसा गीत लिखें 

नर्मदांचल का तरुण नवगीतकार ऐसे गीत लिख सका है यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है।
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