अलंकार सलिला: २८
भ्रांतिमान अलंकार*
*
समझें जब उपमेय को, भ्रम से हम उपमान
भ्रांतिमान होता वहीँ, लें झट से पहचान.
जब दिखती है एक में, दूजे की छवि मीत.
भ्रांतिमान कहते उसे, कविजन गाते गीत..
गुण विशेष से एक जब, लगता अन्य समान.
भ्रांतिमान तब जानिए, अलंकार गुणवान..
भ्रांतिमान में भूल से, लगे असत ही सत्य.
गुण विशेष पाकर कहें, ज्यों अनित्य को नित्य..
जैसे रस्सी देखकर, सर्प समझते आप.
भ्रांतिमान तब काव्य में, भ्रम लख जाता व्याप..
जब रूप, रंग, गंध, आकार, कर्म आदि की समानता के कारण भूल से प्रस्तुत में अप्रस्तुत का आभास होता है, तब ''भ्रांतिमान अलंकार'' होता है.
जब दो वस्तुओं में किसी गुण विशेष की समानता के कारण भ्रमवश एक वस्तु को अन्य वस्तु समझ लिया जाये तो उसे ''भ्रांतिमान अलंकार'' कहते हैं.
जब दो वस्तुओं में किसी गुण विशेष की समानता के कारण भ्रमवश एक वस्तु को अन्य वस्तु समझ लिया जाये तो उसे ''भ्रांतिमान अलंकार'' कहते हैं.
उदाहरण:
१. कपि करि ह्रदय विचार, दीन्ह मुद्रिका डारि तब.
जनु असोक अंगार, दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ.. -तुलसीदास
यहाँ अशोक वृक्ष पर छिपे हनुमान जी द्वारा सीताजी का विश्वास अर्जित करने के लिए श्री राम की अँगूठीफेंके जाने पर दीप्ति के कारण सीता जी को अंगार का भ्रम होता है. अतः, भ्रांतिमान अलंकार है.
२. जानि स्याम घन स्याम को, नाच उठे वन-मोर.
यहाँ श्री कृष्ण को देखकरउनके सांवलेपन के कारण वन के मोरों को काले बादल होने का भ्रम होता है औरवे वर्षा होना जानकार नाचने लगते हैं. अतः, भ्रांतिमान है.
३. चंद के भरम होत, मोद है कुमोदिनी को.
कुमुदिनी को देखकर चंद्रमा का भ्रम होना, भ्रांतिमान अलंकार का लक्षण है.
४. चाहत चकोर सूर ओर, दृग छोर करि.
चकवा की छाती तजि, धीर धसकति है..
५. हँसनि में मोती से झरत जनि हंस दौरें बार मेघ मानी बोलै केकी वंश भूल्यौ है.
कूजत कपोत पोत जानि कंठ रघुनाथ फूल कई हरापै मैन झूला जानि भूल्यौ है.
ऐसी बाल लाल चलौ तुम्हें कुञ्ज लौं देखाऊँ जाको ऐसो आनन प्रकास वास तूल्यौ है.
चितवे चकोर जाने चन्द्र है अमल घेरे भौंर भीर मानै या कमल चारु फूल्यौ है.
६. नाक का मोती अधर की कांति से.
बीज दाडिम का समझ कर भ्रांति से.
देखकर सहसा हुआ शुक मौन है.
सोचता है अन्य शुक यह कौन है. - मैथिलीशरण गुप्त
३. चंद के भरम होत, मोद है कुमोदिनी को.
कुमुदिनी को देखकर चंद्रमा का भ्रम होना, भ्रांतिमान अलंकार का लक्षण है.
४. चाहत चकोर सूर ओर, दृग छोर करि.
चकवा की छाती तजि, धीर धसकति है..
५. हँसनि में मोती से झरत जनि हंस दौरें बार मेघ मानी बोलै केकी वंश भूल्यौ है.
कूजत कपोत पोत जानि कंठ रघुनाथ फूल कई हरापै मैन झूला जानि भूल्यौ है.
ऐसी बाल लाल चलौ तुम्हें कुञ्ज लौं देखाऊँ जाको ऐसो आनन प्रकास वास तूल्यौ है.
चितवे चकोर जाने चन्द्र है अमल घेरे भौंर भीर मानै या कमल चारु फूल्यौ है.
६. नाक का मोती अधर की कांति से.
बीज दाडिम का समझ कर भ्रांति से.
देखकर सहसा हुआ शुक मौन है.
सोचता है अन्य शुक यह कौन है. - मैथिलीशरण गुप्त
७. काली बल खाती चोटी को देख भरम होता नागिन का. -सलिल
८. अरसे बाद
देख रोटी चाँद का
आभास होता. -सलिल
९. जन-गण से है दूर प्रशासन
जनमत की होती अनदेखी
छद्म चुनावों से होता है
भ्रम सबको आजादी का. -सलिल
८. अरसे बाद
देख रोटी चाँद का
आभास होता. -सलिल
९. जन-गण से है दूर प्रशासन
जनमत की होती अनदेखी
छद्म चुनावों से होता है
भ्रम सबको आजादी का. -सलिल
१०. पेशी समझ माणिक्य को, वह विहग, देखो ले चला
११. मनि मुख मेलि डारि कपि देहीं
१२. चंद अकास को वास विहाई कै
आजु यहाँ कहाँ आइ उग्यौ है?
भ्रांतिमान अलंकार सामयिक विसंगतियों को उद्घाटित करने, आम आदमी की पीडा को शब्द देने और युगीन विडंबनाओं पर प्रहार करने का सशक्त हथियार है किन्तु इसका प्रयोग वही कर सकता है जिसे भाषा पर अधिकार हो तथा जिसका शब्द भंडार समृद्ध हो.
साहित्य की आराधना आनंद ही आनंद है.
काव्य-रस की साधना आनंद ही आनंद है.
'सलिल' सा बहते रहो, सच की शिला को फोड़कर.
रहे सुन्दर भावना आनंद ही आनंद है.
**********
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें